भारत में कहां से और कैसे आते हैं आज के ये कन्हैया कुमार, दिलीप मंडल और उमर खालिद ?

भारत की असलियत ये है कि ये जिसको हम लोग "आधुनिक भारत" के कर पुकारते हैं, इसमे ये "आधुनिक" वो अंश है जो कि ब्रिटेन और दूसरे देशों से आयात करके, या फिर चुरा करके लाया गया है। और जिन-जिन क्षेत्रों में इस "आधुनिक" को भोग किया गया, जिस समाजों के द्वारा सर्वप्रथम, अग्रिम पंक्ति में अर्जित किया गया, वे सब छोड़ कर, बाकी सभी जन पिछड़ा, "ग्रामीण" भारत बन कर रह गए थे। 

मगर पिछली शताब्दी के अंत में जैसे-जैसे यातायात के संसाधन में तकनीकी विकास हुआ, ये "आधुनिक" भारत और "ग्रामीण भारत" को आपस में एक दूसरे को मटमैला करने की आवृत्ति बढ़ती गई है। 'आधुनिक' ने 'ग्रामीण' को गंदा किया, 'ग्रामीण' ने 'आधुनिक' को। कुल मिला कर भारत मैला होता रहा है।

ग्रामीण भारत का नवयुवक जब शहर में आता है, तब उसको सबसे प्रथम दिक्कत होती है ये समझने में कि "क्या चल रहा है, ....चल क्या रहा है?" उसका मन अपने आसपास के समाज को, व्यवस्थाओं को, कोर्ट को, पुलिस को, यातायात के नियमों से लेकर विश्वविद्यालय के नियमों तक किसी भी चीज को समझ नही पाता है, क्योंकि वह गांव में इनसे अनभिज्ञ हो कर रह रहा था ।

सबसे पहले वह इनको बूझना शुरू कर देता है, और अक्सर करके इनको बूझने की पहेली में संम्मोहित हो जाता है, जुनून बन कर बूझने बैठ जाता है। और तब वह 'जेएनयू का कन्हैया कुमार, ब्राह्मणवाद—विरोधी अंबेडकरवादी दिलीप चंद्र मंडल और उमर खालिद बन जाता है। वह समाजशास्त्र में पीएचडी कर गुजरता है।

समझ सकेंगे आप कि क्यों ये सब तथाकथित युवा नेता , लगभग सारे ही समाजशास्त्र के विषय को पकड़ कर शोध करते हुए पॉलिटिक्स में घुसड़ जाते है। इनमें से कोई भी तकनीकी विषय जैसे गणित, भौतिकी, रसायन, जीव विज्ञान, चिकित्सा संबंधित विषय में से नहीं है। 

समझे, क्यों?

इन सब के पीएचडी की सीमाएं हैं, और वे बहुत छोटी है। ये सब के सब तकनीकी विषय के दर्शन में बेहद कमज़ोर है। इनका आधुनिक वैश्विक नजरिया ज्यादा सहरनीय नही है। आशा और उम्मीद बस ये रखिए कि इनकी भविष्य की पीढ़ियां शायद कुछ तकनीकी विज्ञान में उन्नत करें। और यदि वे भी शोध ने जाएं, तब उनका दर्शन ज्यादा सुसज्जित बना रहे आधुनिक विज्ञान के दर्शन अनुसार।

शहरी आधुनिक इंसान को, यदि कमोबश ग्रामीण भारत से मिलने की जरूरत यदि नहीं हो, तब इन कन्हैया कुमारों से फिलहाल दूरी बनाए रखने में ही भलाई है।

ये लोग समाज को बूझते बूझते समाज में बसी बुराईयों को भी खोज करने लग जाते हैं। और फिर, ऐसे में वे उन बुराईयों का जब विरोध करने पर उतारू होने लगते हैं, तब अनजाने में उन बुराईयों को और अधिक व्यापक बना देते हैं,दूसरे बुरे लोगों को idea प्रसारित कर देते हैं। अक्सर करके किसी विलुप्ति की कगार पर पहुंच चुकी बुराई को वापस जीवन फूंक देते हैं, उस पर जिक्र कर-करके। जब जनमानस 'कन्हैया कुमारों' के प्रति अपनी नफरत को जाहिर करके के बहाव में आ कर उन समापत हो रही बुराईयों को यकायक नयोचित करने के तर्क देने लग जाता है !! और ऐसे हालात में ये बुराई वापस लौट आती है चलन में, जो की पहले विलुप्त होने के कगार पर खड़ी हुई थी !

कन्हैया कुमार नही समझता है कि कैसे आधुनिक भारत उससे अभी भी घृणा करता है। कन्हैया को नहीं मालूम की घृणा करने का कोई कारण , कोई वजह, कोई तर्क नहीं होता है। इंसान दूसरे इंसान से घृणा केवल किसी प्रकार की पहचान के चलते करता है। घृणा की संभावित परिभाषा ही यही है। पहचान में छिपी नापसंदी।

और भारत में एक दूसरे के प्रति घृणा लबालब है। हम अपने देश को बहु सांस्कृतिक, बहु भाष्य , बहु धार्मिक, तो बड़े फक्र, बड़े गर्व से बताते हैं, मगर लोगो के बीच एक-दूसरे के प्रति छिपी नफरतों का आज तक संज्ञान लेने से मुंह फेरते रहे हैं। 

आधुनिक भारत और ग्रामीण भारत, ये भी दोनो एक दूसरे से नफरत करते हैं।

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