भारत वासियों में शाकाहारी होने के पीछे क्या कथा छिपी हुई है ?
भोजन प्रकृति के विषय में एक गहरा, क्रमिक-विकास सांस्कृतिक सत्य बताता हूँ आप सभी को -------
मनुष्य जाति आरम्भ से धरती के सभी भूक्षेत्रों में सर्वाहारी (वे जीव जो दोनों, मांस एवं वनस्पति, का भक्षण करते है ) रही है।
इस कारण से मनुष्य जाति में आरम्भ से ही कई सारे शारीरिक कष्ट भी रहे है। जैसे कि , मांस में जल्दी कीड़े लग जाते हैं, सूक्षम बीमारी वाले जीवाणु जल्दी मांस युक्त भोजन को ख़राब कर देते हैं, और यदि मांसाहारी मनुष्य उन जीवाणुओं को भी भक्षण कर ले ये सोच कर कि वह तो पहले ही माँसाहारी पाचन तंत्र से लैस है, उन्हें पचा जायेगा -- तब वह पूरी तरह गलत है ! सूक्ष्म बीमारी वाले जीवाणु (बैक्टीरिया , वायरस , अमीबा ) इंसानी शरीर में प्रवेश करके जटिल बीमारियां देते है। युवा अवस्था में तो इंसान भले इन बिमारियों को झेल जायेगा, मगर उम्र बढ़ने के साथ मुश्किल आने लगती है।
आरम्भिक युग में समाज को बीमारियां इंसान के शरीर और मन के कष्ट बन कर दिखाई पड़ती थी। संभवतः इसरायली यहूदी लोग प्रथम समूह था मानव जाति का जिन्होंने भोजन और शरीर के कष्टों के बीच का सम्बन्ध कुछ कुछ समझा था। तो उन्होंने अपने समाज में इंसानों का जीवन कष्ट मुक्त करने के वास्ते भोजन ग्रहण से सम्बंधित कुछ नियम बनाये , जिन्हे "kosher "(कोषर ) भोजन ग्रहण कहा गया। कट्टरपंथी यहूदी आज भी कोषर भोजन खाते है , जिसका अर्थ है कुछ खास गिने चुने किस्म के जीवन जंतुओं का माँस भोजन में भक्षण करना , उन जीवों को मारने की विधि भी कुछ विशेष प्रकार की करना। शाकाहारी भोजन में अधिकांश किस्म के पेड़ पौधे और जड़ी बूटियों की अनुमति है, हालाँकि कुछ पर विशेष लगाम लगी है, उनको खाने से पूर्व कुछ प्रयोजन करना होता है। कोषर विधि में कुछ भोजनों को दूसरे के संग खाने पर प्रतिबन्ध भी है, जैसे कि माँस के संग दूध का भक्षण की अनुमति नहीं है।
आरम्भिक युग में कोषर विधि के नियम यहूदियों के समाज में "ईश्वर का आदेश" बन कर प्रसारित हुए थे। और समस्त यहूदी इसका पालन करते थे। ऐसा करने से उनका समाज अधिक कष्ट मुक्त हो सका और लम्बी यात्राओं को करने के लिए सशक्त बन सका , जिससे कि वे लोग बहुत सफल व्यापारी बनने वाला समाज बन गए।
कल्पना करिये, जब पूरी धरती पर इंसानी जाति अभी गुफाओं में ही थी , भोजन के आहार के प्रति जागॄत नहीं थी, तब यहूदी समाज कितना आगे निकल आया था। यहूदी आज भी दुनिया के सबसे सफल व्यापारी समाजों में गिने जाते है।
उनके देखा-देखि, आगे के काल में जब मुस्लमान धर्म निकला अरब की भूमि से , तो उन्होंने भोजन ग्रहण में "हलाल" का मानक अपनाया। ध्यान रहे कि ये सब कुछ अपने अपने पैगम्बर के "ईश्वर के बताये आदेश" के अनुसार हो रहा था। मुसलमानों ने कोषर नियम में कुछ फेरबदल करके "हलाल" बना लिया।
मगर अभी तक हिन्दुकुश पहाड़ो के पूर्व में , सिंधु घाटी सभ्यता में ऐसे कोई नियम नहीं उभरे थे। हालाँकि व्यापारी वर्ग सभी समाजों का , उसी एक "रेश्म महामार्ग" (the silk route ) से यात्रा करते हुए मेल-मिलाप करता रहता था। इसलिए ये सब बातें दिमाग में पनप रही थी, सभी समाजों के व्यापारी वर्गों में। बाद में मुसलमानों के भारत भूमि पर आगमन के उपरांत कुछ प्रतिक्रियात्मक तौर पर यहाँ भी "कोषर" और "हलाल" कि तर्ज़ पर "शाकाहारी" भोजन निकल पड़ा। और साथ में गौमांस के भक्षण पर प्रतिबन्ध स्वीकार कर लिया गया , जो कि वैसे वेदों , उपनिषदों, पुराणों में कही पर नहीं दर्ज़ था। ये केवल सांस्कृतिक तौर पर हुआ।
(ध्यान रहे कि "वैदिक" और "सांस्कृतिक" में भेद होता है। "वैदिक" वे है जो किसी लिखे हुए ग्रन्थ से निकला हो। मगर चूंकि साधारण हिन्दू व्यक्ति को वेद अपाठ्य थे, संस्कृत भाषा वेदों की लिपि थी, जबकि बोलचाल की भाषा प्राकृत और पाली थी, तो लोगों ने अपनी खुद की बुद्धि और विवेक अनुसार कुछ और भी किया जो चलन में आता गया। ये सब "सांस्कृतिक" कहलाता है। )
भारत का पश्चिमी भूगौलिक क्षेत्र अपनी निकटता के चलते इन सब अतिक्रमण से प्रथम तौर पर, और गहरे तौर पर प्रभावित हुआ था। इसलिए इस क्षेत्र में ही ज्यादातर ये सब विचार मिलेंगे। आप आज भी ध्यान से देखें तो "हिन्दू" धर्म की "मुस्लिम विरोधी" परिभाषा पश्चिमी राज्यों में अधिक पनपती है (राजस्थान , गुजरात , हरयाणा , दिल्ली , इत्यादि में ). जबकि पूर्वी राज्यों (वर्तमान के यूपी , बिहार , इत्यादि ) तक आते-आते मुस्लमान और हिन्दू समाज बहुत मिल-जुल गये और एक नयी "गंगा जमुनवी' संस्कृति बना गए। पश्चिमी राज्यों में आज भी व्यापारी समाज पनपता है , जबकि पूर्वी राज्यों में "नौकरी" और "आरक्षण" पनपता है। ज्यादातर उद्योगपति देश के पश्चिमी राज्यों से है , मारवाड़ी और मेवाड़ी व्यापारी वर्ग के नाम के भूक्षेत्र राजस्थान गुजरात में आते है , जहाँ के लोग स्वाभाव और सोच से ही व्यापारी होते है। रेशम महामार्ग भारत में जिन क्षेत्रों को छूता था , वे वर्तमान के भारत के पश्चिमी राज्य है।
तो भारत के व्यापारी समाजों ने भी "शाकाहारी" भोजन विधि अपनायी, और जिससे की वे शरीर के कष्टों से निवृत हो कर अच्छे, सफल व्यापारी बन गए। मगर जैसे जैसे विज्ञान प्रसारित होने लगा , ये ज्ञान निकलता गया की शाकाहारी भोजन में कई सारे आवश्यक protein नहीं मिलते है। इससे ये समझा जा सकता है कि कैसे मुस्लिम और अन्य समाज शारीरिक बलशाली हो गए , जबकि उत्तर भारत के वासी शारीरिक कमज़ोर होने लगे। जहाँ जहाँ शाकाहारी भोजन सांस्कृतिक चलन में आया , मगर तमान जड़ी बूटी (spices ) का अभाव था , वहां इंसान शारीरिक कमज़ोर होने लग गया। और भारत के तटीय क्षेत्रों में मछली भक्षण ने समूचे भारत वासी को शारिरिक कमज़ोर होने से बचा लिया। केरल और गोवा के क्षेत्रों में तो spices (जड़ी बूटी ) भी अच्छी मात्रा में उपलब्ध थी।
ब्राह्मणो में व्यपारियों के प्रभाव में आ कर भारतवासी 'हिन्दुओं " को शाकाहारी भोजन में तब्दील होने में अच्छा सहयोग दिया था। शायद अतीतकाल में भारतवासी 'हिन्दू'आरोग्य इसी में से प्राप्त कर सके होंगे। भारत में "शाकाहारी " होने का चलन कुछ ऐसे निकला। इसमें से कुछ मजेदार अपवाद भी निकले , जो आधुनिक हिन्दुओं को अब जा कर दिखाई पड़ते होंगे। जैसे कि , दूध को "शाकाहारी" माना जाता है , जबकि वह जीव के शरीर से निकलता है। अण्डों को कई "शाकाहारी" हिन्दू खाने लग गए है , डॉक्टरी सलाह के आवेश में आ कर , और मच्छली को तटीय क्षेत्रों में "देवी माता का प्रसाद" करके शाकाहारी में गिना जाता है !
इन सब अपवाद को बूझने के लिए आप धर्मशास्त्र और समाजशास्त्र के ज्ञान को प्रयोग मत करें। क्रमिक विकास , यानि Evolutionary theory को लगाए। Archeological history का प्रयोग करें , सब साफ़ साफ़ दिखाई पड़ जाएगा, पूर्ण निष्पक्षता और निर्मोह के साथ।
वर्तमान विज्ञान ने यहूदियों के कोषर भोजन शैली में तब्दीलियां लायी है। आज कोषर भोजन करने वाले केवल "कट्टरपंथी वर्ग" के यहूदी ही बचे है। मुसलमानो में भी कई सारे सूअर के मीट को छोड़ कर बाकि सब "हलाल" या "हराम" को नहीं देखते है। हिन्दू समाज में भी केवल "गौ मांस" को छोड़ कर बाकी सभी खाद्य मांस को खाया जाता है।
आधुनिक विज्ञान में शाकाहारी अथवा मांसाहारी करके कोई debate नहीं है। जापान और नॉर्वे के लोग सबसे दीर्घायु माने जाते है। वे लोग युवा अवस्था में मांसाहारी रहते है, मगर वृद्ध अवस्था (करीब ४० -४५ वर्ष आयु ) के बाद शाकाहारी होने के साथ साथ भोजन ग्रहण की मात्रा में भी कमी करने लगते है। फिर भी, वे कुछ एक किस्म के sea food को बरक़रार रखते हैं। विज्ञान में ऐसा समझा जाता है कि निम्न मात्रा में भोजन ग्रहण करने से metabolism को नियंत्रित करने में सहायता मिलती है , जो शरीर को आरोग्य देता है।
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