Character यानि शख्सियत के निर्माण क्रिया के विषय में

किसी भी इंसान में Character यानी शख्सियत को उभारने के लिए एक जरूरी कार्यवाही होती है भावनाओं को बहने देने का रास्ता देना। इंसान जब बच्चा होता है, उसका मस्तिष्क अपने आसपास के संसार को बस अपने अंदर ग्रहण करना शुरू ही करता है , तभी से उसके दिमाग में तरह तरह को भावनाएं उभरने लगती है। भय यानी डर एक प्रारंभिक और नैसर्गिक भावना होती है जो कि प्रकृति सभी जीव जंतुओं में जन्म से ही सुसज्जित करके जन्म देती है। मगर इसके बाद आगे की भावनाएं संसार में आने के बाद में उत्पन्न होती है। माता पिता के प्रति प्रेम, दूसरे नंबर पर होती है। माता के आने से हुई खुशी तीसरी भावना , और फिर बाहर घूमने निकलने पर होने वाली जिज्ञासा शायद चौथी नंबर पर उत्पन्न हुई भावना होती है बालक के अंदर में । 

भावनाओं की ये संख्या यहीं खत्म नहीं होती है। आगे समय के संग संग और भी आती रहती हैं। 

दिक्कत होती है जब ये सभी भावनाएं संसार का आनंद लेने में दिक्कत करती है , क्योंकि सही समय पर सही प्रकार की भावना के संग हम अपने माता पिता, बंधु या मित्र से अपने अनुसार, अपनी अपेक्षित प्रतिक्रिया ले सकने से बात नहीं कर पाते हैं।  
दरअसल ऐसा कर लेना अपने आप में बहुत अभ्यास मांगता है इंसान से। एक प्रकार का योग होता है। ऐसा योग जिसका फल मिलता है एक सफल सामाजिक संबंध बना सकने में प्रवीणता देना। जो संबंध फिर बदले में हमें सामाजिक, धार्मिक, राजनैतिक और फिर प्रशासनिक शक्तियों से संपन्न करके हमे शक्तिवान पुरुष बनाते है ।

और ये सब शुरू होता है बातचीत कर सकने की कला से। 

सवाल उठता है कि ये बेहतर संवाद और बहती हुई भावनाओं वाला योग कैसे किया जाना चाहिए?
 या कि, बच्चों में शख्सियत या character कैसे विकसित किया जाना चाहिए ?

एक तरीका तो है कि कहानियां पढ़ने , सुनने या फिल्म, नाटक, और रंगमंच को देखने, शामिल होने इत्यादि से हमें अवसर मिलता है अनातर्मन की भावना को बाहर निकाल देने का मार्ग निर्मित करने का।

इंसान को खुशी तब मिलती है जब वह अपने मन की बात को सफलता से दुनिया के सामने प्रस्तुत कर लेता है और दुनिया से उसे उसके विचारों के लिए स्वीकृति मिलने लगती है।
ये जो स्वीकृति का मुद्दा है ये दो तरफा होता है। यानी, न सिर्फ कहने वाले में कला होनी चाहिए बेहतर कह सकने की, बल्कि सुनने वाले में भी पर्याप्त समझ होनी चाहिए बात पर उचित प्रतिक्रिया दे सकने की।

यानी, परिपक्व समाज और बेहतर बौद्ध से सुसज्जित मित्र मंडली के चयन का महत्व वापस से केंद्र में आ जाता है, एक अच्छी शख्सियत को विकसित कर सकने के लिए किसी भी बालक के भीतर में।

ये जरूरी नहीं की मित्रमंडली हमेशा उत्साहवर्धन के नाम पर प्रशंसा ही करे किसी बालक के प्रस्तुतिकरण पर। किंतु, यदि आलोचना भी हो तब उसके लिए प्रयोग शब्दों का चयन उचित हो, संतुलित हो, और अनावश्यक और अनर्गल न हो। यानी आलोचना करने में भी संवाद की कला का परित्याग नही हुआ जाना चाहिए।

Psychology विज्ञान के आरंभिक काल में अंतर्मन का विवरण कुछ इस प्रकार से किया गया है कि इंसान का मस्तिष्क जो उसके कपाल के भीतर में होता है, जहां पर मन का निवास है, तब फिर अंतर्मन तो मस्तिष्क के भी भीतर में मौजूद होता है। यानी ये एक बेहद अंधकार स्थल पर रहता है, और इसलिए इस तक शरीर से आती इंद्रियों का सूचना नहीं पहुंच पाती है। ये केवल भावनाओं से संसार को बोध कर पाता है। और अपनी प्रतिक्रिया भी केवल भावना यानी moods से करता है। प्रारंभिक काल की theory वहां तक कहती है कि अंतर्मन सभी जंतुओं में होती है। यानी एक जीव की भावना यदि सही से , सही माहौल में निकले तब दूसरे किस्म का जंतु भी उसे समझ सकता है आगे में, बात यहां तक कही जा चुकी है कि अंतर्मन यानी sub conscious mind में इतनी शक्ति होती है कि वह ब्रह्मांड को भी संचालित करके आपके हितनुसार कार्य करवा सकता है।

हालांकि आगे के समय के psychology vigyan में अंतर्मन यानी sub conscious mind को अधिक सार्थक प्रत्यय और सिद्ध बात नहीं माना गया है.  इसलिए फिलहाल इससे संबंधित theories को असिद्ध, outdated करार कर दिया गया है। मगर फिर भी आगे नए निकले विचारो को समझाने हेतु इसका प्रयोग अभी भी लिया जाता है, क्योंकि बुनियादी बात में ये theories अभी भी अपना महत्व रखती हैं।

बरहाल, अंतर्मन को पारसी समाज में जहन करके समझा गया और उनकी संस्कृति में अंतर्मन की भावनाओं को व्यक्त कर सकने की कला को बेहद उच्च स्तर का दर्जा दिया जाने लगा था। शायद इसलिए क्योंकि सभी इंसानो में  ये कला नही होती है। और इसलिए वह अपनी अंतर्मन को बात को कहने के लिए दूसरे किसी कलाकार व्यक्ति से प्राप्त हुए उसके शब्दो से करते थे। तो फिर संसार बेहद कृतज्ञ महसूस करता था, ऐसे कलाकारों के प्रति।
यही से शायद पारसी भाषा के समाज में  शेरो-शायरी, मुशायरे का जन्म हुआ। और जो कला फिर आगे चल कर हिंदी फिल्मों के गीत संगीत में तब्दील हो गई।

आज भी इंसानी को अपने अंतर्मन को गहराइयों में दबी भावनाओं को बाहर निकालने के लिए उसी तरीके पर निर्भर होना होता है। यानी, फिल्म, उसकी कहानी, उसका संगीत आज भी इंसान को ऐसे संतुलित , नपे तुले शब्दो से सुसज्जित करने का कार्य करते है, जिनके माध्यम से इंसान अपने अंतर्मन को भावनाओं को व्यक्त करके समाज में अपना स्थान बना पाते है, मंत्री संबंध बनाते है, स्वीकृति प्राप्त करके शक्ति वान होने के मार्ग पर प्रशस्त होते हैं। 

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