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Showing posts from 2012

बलात्कार, स्वतंत्र-मन,व्यवसायिक अनुबंध और भारतीय समाज

सिद्धान्तिक दृष्टिकोण से बलात्कार मात्र एक अपराध नहीं, वरन, समाज में एक  स्वतंत्र-मन (free-will)  के दमन का प्रतीक होता है । विज्ञानं में स्वतंत्र-मन एक बहोत ही कोतुहलता का विषय रहा है । आरंभ में कर्म-कांडी धार्मिक  मान्यताओं ने हमे येही बतलाया था को "वही होता है जो किस्मत में लिखा होता है " । दर्शन और समाजशास्त्र  में इस प्रकार के विचार रखने वालो को 'भाग्यवादी' कह कर बुलाया जाता है । मगर एक कर्म-योगी धार्मिक मान्यता ने इस विचार के विपरीत यह एक विचार दिया की "किस्मत खुद्द आप के किये गए कर्मो का फल होती है "। दूसरे शब्दों में , यह भागवत  गीता जैसे ग्रन्थ  से मिला वही विचार है की "जो बोयेगा, वही पायेगा ", या फिर की "जैसे कर्म करेगा तू , वैसा फल देगा भगवान् "। दर्शन में इस विचार धरा को कर्म योगी कहा जाता है । सिद्धांत में यह दोनों विचार एक दूसरे के विपरीत होते है । या कहे तो मन में यह प्रश्न होता है की "क्या किस्मत या भाग्य कोई निश्चित वस्तु है , या फिर कोई खुद अपनी किस्मत या भाग्य को किसी तरह से नियंत्रित कर सकता है ?"।     सदिय

अकबर-बीरबल और भ्रष्टाचार

भ्रष्टाचार को पूर्णतः ख़तम कर सकना कभी भी आसान नहीं था/     एक बार बादशाह अकबर के दरबारियों ने उन्हें यह खबर दी की उनके दरबार में कहीं कोई मंत्री भ्रष्टाचारी हो गया है । अकबर ने बीरबल से इस बात की चर्चा करी / बीरबल ने अकबर से कहा की आलमपनाह अब भ्रष्टाचार का कोई इलाज नहीं होता / इस पर अकबर ने बीरबल के इस उत्तर को एक चुनौती मानते हुए बीरबल से कहा की वह भ्रष्टाचार को ख़तम कर के ही दिखायेंगे । अकबर ने अपने उस भ्रष्टाचारी दरबारी को एक दम वहायत नौकरी पर रख दिया जहाँ उसे भ्रष्टाचार करने का कोई मौका ही न मिले ।      उस दरबारी को यमुना नदी की लहरों को गिन कर लेखा-जोखा बनाने के काम पर लगा दिया /   कुछ दिन के बाद अकबर ने बीरबल से पुछा की अब उस दरबारी का भ्रष्टाचार करने का मौका ख़तम हुआ की नहीं । बीरबल मुस्कराए और जवाब दिया की 'नहीं' । इस पर अकबर को अचम्भा हुआ और उन्होंने बीरबल से पूछा की अब वह दरबारी कैसे भ्रष्टाचार कर लेता है । बीरबल ने अकबर को खुद ही यमुना के तट पर चल कर देखने को कहा ।     वह जा कर अकबर ने देखा की अब वह दरबार यमुना नदी पर चलने वाली नावों से रिश्वत वसूलने के काम में

"जनता जाग उठी है " से क्या अभिप्राय होता है ?

"जनता जाग उठी है " से क्या अभिप्राय होता है ? जनता की मदहोशी क्या है, किन कारणों से है, और क्यों यह बार-बार होती है कि मानो जनता की बेहोशी का कोई स्थाई इलाज नहीं है ?    जनता एक रोज़मर्रा के जीवन संघर्ष में तल्लीन व्यक्तियों का समूह है / यह दर्शन,ज्ञान-ध्यान , खोज, वाले तस्सली और फुरसत में किये जाने वाले कामो के लिए समय नहीं व्यर्थ कर सकने वाले लोगों का समूह है / समय व्यर्थ का मतलब है जीवन संघर्ष में उस दिन की दो वक़्त की रोटी का नुक्सान / मगर "समय व्यर्थ" का एक अन्य उचित मतलब यह भी है की विकास पूर्ण और मूल्यों की तलाश कर नयी संपदाओं और अवसरों की खोज का आभाव /      साधारणतः एक बहुमत में व्यक्ति समूह के पास यह समय नहीं होता की वह यह 'व्यर्थ' कर सके / मगर एक छोटे अल्पमत में वह समूह जो भोजन किसी अन्य आराम के संसाधन से प्राप्त करता है, जैसे की राजा -महाराजा लोग , वह यह फुरसत का समय ज़रूर रखते हैं की वह इस बहुमत वाले समूह के संचालन के नियम बना सके / भ्रष्टाचार तब होता है जब यह छोटा समूह बड़े समूह की मजबूरी का फयदा उठता है की बड़े समूह के पास समय नहीं होता नियम

'राजनैतिक स्थिरता' से क्या अभिप्राय होता है ?

'राजनैतिक स्थिरता' से क्या अभिप्राय होता है ? व्यावासिक अनुबंधन में 'राजनैतिक स्थिरता' क्यों आवश्यक है? सेंसेक्स और शेयर बाज़ार विकास के लिए राजनैतिक स्थिरता की मांग करता है ?      प्रजातान्त्रिक व्यवस्था में जहाँ हर एक सर्कार एक निश्चित कार्यकाल के लिए ही नियम और निति-निर्माण के बहुमत में रहती है, या नयों कहें की सत्तारुड रहती है , और एक कार्यावधि के बाद आम चुनाव अनिवार्य होता है , जैसे भारत में 5 वर्ष के उपरान्त , एक सरकार का किया अनुबंध यदि अगली सरकार न माने तब किसी भी निवेशक का पैसा उसको निवेष का लाभ देने के पूर्व ही निति-परिवर्तन हो जाने से आर्थिक हानि दे देगा / इसलिए निवेशक यह भय को निवेष से पूर्व ही नापेगा की कही निति परिवर्तन का आसार तो नहीं है , और तब ही निवेश करेगा / विदेशी निवेषक तो ख़ास तौर पर यह जोखिम नहीं लेगा /      प्रजातान्त्रिक व्यवस्था के निर्माण में इस कारको को आज से सदियों पूर्व ही समझ लिया गया था / इसी समस्या का समाधान बना था ब्यूरोक्रेसी, यानि लोक सेवा की नौकरी / भारत में लोक सेवा और अन्य सरकारी सेवा में आये, "चयनित ", व्यक्ति आजीवन (

वास्तविकता वक्रता क्षेत्र

{विकिपीडिया के लेख reality distortion field (RDF ) द्वारा प्रभावित } :  Reality Distortion Field यानी "वास्तविकता वक्रता क्षेत्र " कह कर बुलायी जाने वाली विवरणी की रचना सन 1981 में एप्पल कंप्यूटर इन्कोर्पोरैट में कार्यरत बड ट्रिबल ने करी थी / इस विवरणी के माध्यम से वह एप्पल कंप्यूटर के संयोजक स्टीव जोब्स के व्यक्तित्व को समझने के लिए किया था / ट्रिबल "वास्तविकता वक्रता क्षेत्र" के प्रयोग से जोब्स की स्वयं के ऊपर (अंध-)विश्वास करने की क़ाबलियत और अपनी कंपनी में कार्यरत लोगों को भ्रमित विश्वासी कैसे बना कर बहोत ही मुश्किल से मुश्किल काम कैसे करवा लिए , यह वर्णित करते हैं /     ट्रिबल का कहना था की यह विवरणी टीवी पर दिखाए जाने वाले एक विज्ञान परिकल्पना के धारावाहिक 'स्टार ट्रेक' से उन्होंने प्राप्त किया था /     "वास्तविकता वक्रता क्षेत्र " एक मनोवैज्ञानिक दशा है जो हर एक इंसान में उसके आसपास मौजूद मन-लुभावन वस्तुएं , व्यक्ति ; वाहवाही वाले कृत्य (bravado) ; अतिशोयक्ति (= hyperbole); विक्री-प्रचार ; शांति और रमणीयता के आभास देने वाले जीवन-शैली ; और

परिवार-वाद में गलत क्या है ? - Part 2

      परिवार-वाद में गलत क्या है ? इस प्रश्न की एक पुनः समीक्षा पर यह बोध भी प्राप्त होता है की परिवार-वाद योग्यता को अपने आधीन करने में लिप्त रहता है / परिवार में से आये "राज कुमार " अपनी योग्यताओं की सीमाओं की अपने अंतर-मन में भली भाति जानते है / इसलिए वह अपने आस-पास मौजूद योग्य व्यक्तियों का दमन करने की बजाये उन्हें अपना सहयोगी (या "गुलाम") बनाने की रणनीति रखते हैं / येह सहयोगी उन्हें सीमाओं के बहार उठा कर रखने में उपयोगी होते है /       वैसे आपसी-सहयोग किसी भी अच्छे नेतृत्व का आधार स्तंभ भी होता है / इसलिए यह भ्रम हो सकता है की 'परिवार-वादी सहयोग' और 'आदर्श-नेतृत्व सहयोग' में क्या भेद होगा , या क्या अंतर होगा ? यह कैसे कह सकते हैं की 'परिवार-वादी सहयोग' किसी की पराधीनता के समान है ?      इस भ्रम का निवारण यह है की 'परिवार-वादी सहयोगी' एक आदर्श योग्यता से प्राप्त उन नीतियों और न्यायों को पालन नहीं करते जो उनके परिवार को अगला शासक, (= नेतृत्व ) बनाने में बांधा दे सकते है / तो परिवार-वाद के संरक्षण में एक ऐसी व्यवस्था का निर्माण

आधुनिक राजनीति में रंगे सीयार

रंगा सियार की कहानी बहोत चर्चित कहानी रही है / एक जाने माने लेखक , श्री राजेंद्र यादव जी ने भी "गुलाम" शीर्षक से सीयार की कहानी बतलाई है जो गलती से एक मृत शेर की खाल औढ बैठता है / जंगल के पशु उसे ही अपना राजा शेर खान समझने लगते हैं / रंगा सियार किस डरपोक और कायरो वाली मानसिकता से दिमाग चलता है और शेर और शेर जैसी बहादुरी का ढोंग कर के बडे-बड़े जानवर , जैसे चीता, हाथी और भालू पर "भयभीत बहादुरी" से हुकम चला कर शाशन करता है , यह "ग़ुलाम" कहानी का सार है / शेर की खाल के भीतर बैठा सियार आखिर था तो ग़ुलाम ही , इसलिए अकेले में भी मृत शेर के तलवे चाट करता था , जिससे उसमे ताकत का प्रवाह महसूस होता था /     राज-पाठ और शासन की विद्या का उसे कोई ज्ञान नहीं था , मगर मृत शेर की खाल उसकी मदद करती है , जब सब पशु उसके हुकम को बिना प्रश्न किया, बिना न्याय की परख के ही पालन करते हैं , और समझ-दार पशु भी 'दाल में काला' के आभास के बावजूद अपना मष्तिष्क बंद कर लेते है की जब जंगल का काम-काज चल रहा है तो व्यर्थ हलचल का कोई लाभ नहीं /     यह कहानी हमने अपनी दसवी कक्षा में प

लुभावना हास्य खतरनाक हो सकता है !

   हास्य को हम सभी लोग क्यों इतना पसंद करते हैं ? फेसबुक पर, टीवी पर, सिनेमा में ..जहाँ देखो वहां , करीब-करीब हर पल हर कोई हंसने और हँसाने की कोशिश कर रहा होता है / और जब यह प्रश्न उठता है की इतनी हंसी इंसान को क्यों चाहिए होती है, तब एक 'शब्द-आडम्बर तर्क' (=Rhetorical) में हम यही उत्तर देते हैं कि, "आज कल के जीवन में तनाव इतना बड गया है कि उस तनाव को कम करने के लिए हास्य की आवश्यकता पड़ती है /"    हास्य मनुष्य को प्रकृति का अनोखा उपहार है / मानव विज्ञानी (=anthropologist ) हास्य को मनुष्य की बौद्धिकता का सूचक मानते हैं , की जब मनुष्य को मृत्यु की सत्यता की ज्ञान हुआ तब हास्य ही मनुष्य का प्रथम प्रतिक्रिया बनी /     मगर आज के युग में यह इतना हास्य स्वयं कुछ रोगी सा हो गया है/ जीवन को तनाव मुक्त करने के नाम नाम पर जो कुछ भी उपलब्ध हो रहा है , वह या तो किसी का उपहास करता है , या तर्क हीन हैं / किसी भी सूरत में यह हास्य वह हास्य नहीं है जो ज्ञान , विवेक अथवा बौद्धिकता से उदगल करता है /      आलम यह है की एक पूरा-पूरा कल कारखाना , एक उद्योग , हास्य के नाम पर मनोरंजन

"विचार-संग्राहक संस्थान "(think-tank bodies ) का प्रजातंत्र में उपयोग

           प्रजातंत्र में निर्णयों को सत्य और धर्म के अलावा जन प्रिय होने की कसौटी पर परखा जाता है / यहाँ पर एक चुनौती यह रहती है की कोई निर्णय धर्मं और सत्यता की कसौटी पर खरा है यह कैसे पता चलेगा ? इस समस्या का समाधान आता है "विचार-संग्राहक संस्थानों "(think-tank bodies ) के उद्दगम से / हर विषय से सम्बंधित कोई विश्वविद्यालय या कोई स्वतंत्र संस्थान ( स्वतंत्र= अपनी आर्थिक स्वतंत्रता और पदों की नियुक्ति का नियम स्वयं से लागू करने वाला ) जनता में व्याप्त तमाम विचारों को संगृहीत करता हैं , उन पर अन्वेषण करता है , तर्क और न्याय विकसित करता है और समाचार पत्रों , टीवी डिबेट्स इत्यादि के माध्यम से उनको परखता और प्रचारित करता है /        तब इस तरह के संस्थानों दिए गए कुछ विकल्पों में "पूर्ण सहमती" (=consensus )वाले विचार को निर्णय में स्वीकार कर लिया जाता हैं / अन्यथा मत-दान द्वारा इन्ही विकल्पों से सर्वाधिक जनप्रिय वाले विचार को "आम सहमती " (= majority ) के निर्णय के साथ स्वीकार कर लिया जाता है / एक आदर्श व्यवस्था में अल्प-मती गुट (=minority ) को भी निर्णयों

प्रजातंत्र में मानवाधिकारों का उदारवादी स्वतन्त्रताओं से भ्रम

       प्रजातंत्र में मानवाधिकारों का पोषण और प्रोत्साहन किसी सदगुण विचारक की रचना नहीं है , बल्कि मानवाधिकारों की उत्पत्ति भी तर्क के खास संयोजन से होती है / गहराई में झांके तो पता चलेगा की जिन विचारों को हम अपने धार्मिक और कर्म-कांडी सदगुण से ग्रहण करते है , प्रजातंत्र में जब धर्म-निरपेक्षता विचार की अनिवार्यता आती है , तब धर्म-निरपेक्षता के भी तर्कों के ख़ास संयोजन से नागरिकों के दैनिक व्यवहार में इन सदगुणों की अनिवार्यता को समझा जा सकता है / यानी अगर आप नास्तिक भी हैं तो धर्मनिरपेक्ष प्रजातंत्र में आपको इन सदगुणों को किन्ही दूसरे तर्कों से गृहीत कर जीवन में पालन करना ही पड़ेगा / सदगुण जैसे की " बड़ों का आदर करो " को आम तौर पर एक रामायण से प्राप्त सदगुण मान कर जीवन में गृहीत करते है और क्यों-क्या नहीं पूछते / मान लीजिये की कोई नास्तिक है , तब क्या वह इस व्यवहार को अपनाने से विमुक्त होगा ? क्योंकि रामायण को तो मानेगा नहीं, और धर्म-निरपेक्ष प्रजातान्त्रिक व्यवस्था उसको विश्वासों और आस्थाओं की स्वतंत्रता देने के लिए बाध्य होगी की वह न भी माने तब भी वह सही है / ऐसे में अगर व

परिवार-वाद में गलत क्या है ?

परिवार-वाद (Dynasty) में  गलत क्या है ? क्या किसी राजा,  या फिर किसी  राजनेता  के पुत्र को महज इसलिए  मौक नहीं दिया जाना चाहिये क्योंकि वह  किसी राजा  या राजनेता की संतान है ?      साधारण मानवाधिकारो के तर्कों से यदि समीक्षा करें तब उत्तर मिलगा की परिवारवाद का समर्थन न करना मानवाधिकरो के उलंघन जैसा है / मगर इतिहास के अध्यायों से विषय पर सोंचें तब यह आशंका आएगी की व्यवहारिकता में परिवारवाद कितना बड़ा राजनैतिक और  संकट है /      परिवार को समाज की इकाई माना गया है / प्रत्येक परिवार को जान -माल की सुरक्षा और पारिवारिक एकान्तता प्रदान करवाना हर एक प्रजा-तांत्रिक व्यवस्था और हर 'संयुक्त-राष्ट्र' (the UN ) के सदस्य राज्य का कर्त्तव्य है  ऐसे / ऐसे में यह तर्क  भी पूर्तः स्वीकार्य है की हर व्यक्ति अपने जीवन का श्रम अपने परिवार के लिए ही तो करता है , और वह यही चाहेगा की उसके उपरान्त उसका स्थान उसके संतान लें /     मुद्दा है की क्या यह सदगुणी सत्य एक भ्रम तो  नहीं बन जाता है जब बात आती है की पिता का व्यवसाय समाज-सेवा थी , या कहें तो राजनीति थी / यह प्रश्न को समझ लेना जरूरी है की आप

उदारवादी तानाशाही में उदारवादिता का प्रजातान्त्रिक मूल के मानवाधिकारों से भ्रम

उदारवादी तानाशाही और प्रजातंत्र में भ्रम करने के स्रोत कुछ और भी हैं / जब लोग यह पूछते है की अगर वाकई एक भ्रष्टाचार -विमुख "जन संचालन प्रतिष्ठान" अगर अस्तित्व में आ जायेगा तो उनका जीना दुषवार हो जायेगा क्योंकि छोटी मोटी गलतियाँ तो सभी कोई आये दिन करता है , और ऐसे प्रतिष्ठान उनके इन छोटी-छोटी गलतियों पर भी सजा दे देगा , तब लोगो के मन में आसीन आज की "सरकारों" की उदारवादिता के प्रति  सम्मान  समझ में आता है / लगता है की लोगो को मानवाधिकारों की न तो समझ है न ही एक सच्चे प्रजातंत्र में उनके औचित्य की जानकारी / वह सरकारों की उदारवादिता के आधीन जीवन जी रहे होते है /       उदारवादी तानाशाही एक "सरकार" की भांती कार्य करती है , जो की लोगो को उनके अपराधो की सजा देने की ताकत रखती है , मगर उदारवादी बन कर ऐसा नहीं करती / लोग अपनी उदारवादी सरकार का साभार मानते हैं / परन्तु प्रजातंत्र में "जन संचान प्रतिष्ठान " होते है , जो की अपराधो को चिन्हित करते हैं, और उनके सजा तय करते हैं, मगर कोई व्यक्ति सजा की पात्रता पर है की नहीं यह न्यायलय तय करतें है / कुछ प्रजाता

a list of who-the-hell is low IQ, as per we the people.

'What is Intelligence' have seriously had only some inconclusive answers. Gadkari's gaffe has brought out how people think about intelligence. More than questioning about intelligence, IQ or their own disposition on their intelligence, people have chosen the idea around Intelligence to point what they considered was not intelligent in the entire gaffe. Here is a list of how and what people think is unintelligent:  1) Intelligence is problem-solving ability, and Dawood is no problem-solver for society. Vivekananda was. 2) Indian police and establishment is low IQ to have failed to catch dawood despite a big establishment. 3) Gadkari has been low IQ to have broached the issue at such wrong time of his. 4) Indian people are low IQ to be repeatedly re-electing between Congress and BJP. 5) gadkari is low IQ to be commenting on IQ of people without even knowing ABC of what is IQ and what is Intelligence. BJP is unfortunate to have such a person as their head. 6) media is

"स्ट्रा-मैन आर्ग्युमेंट" क्या होते है ?

" स्ट्रा-मैन आर्ग्युमेंट "  अंग्रेजी में उस श्रेणी के तर्कों का कहा जाता है जिसमे प्रतिस्पर्धी एक साजिश के तहत अपने विरोधी के तर्कों को सही उत्तर न दे सकने की परिथिति में एक अन-उपयोगी या किसी कमज़ोर तर्क को उसका "असली' तर्क बतला कर उनका सटीक उत्तर दे देता है/ जो लोग इस वाद-विवाद को सही और लगातार नहीं देख रहे होते है उनको लगता है की भई विरोधी के तर्क का एक सही-सही जवाब तो दिया ही है , अब विरोधी  इनको क्यों  परेशान कर रहा है / "स्ट्रा-मैन" का अर्थ होता है फाँस का बना मानव , जिसको अक्सर खेतों में लगाया जाता है  चिड़ियों की भगाने के लिए /  कुछ तीव्र बुद्धि लोग अगर उसकी इस चलंकी को पकड़ भी लेते है , "की आपने जवाब तो उस प्रश्न का दिया ही नहीं जो आपसे पुछा गया था ", तब भी वह प्रतिस्पर्धी एक मत-विभाजन करने में कामयाब तो हो ही जाता है / किसी भी राजनीतिग्य को मत-विभाजन से बेहतर और क्या चाहिए / मत-विभाजन से ही तो राजनीति आरम्भ होती है / तभी तो मत दिए जातें है, जब मत-दान होता है / 

भाषा परिवर्तन की मिथ्या में खोता हुआ विवेक

भाषा के महत्व को क्या कभी भी कम आँका जा सकता है / भाषा का मनुष्य के विकास में जो महत्त्व है उसकी जितना भी चर्चा करें वह कम होगी / मगर दुखड़ा तब होता है की हम सारा का सारा श्रेय भाषा को देने की भूल कर बैठते है / भाषा के अलावा मनुष्य के विवेक की चर्चा होना भी उतनी ही जरूरी है / तर्क में अक्सर भारतीय यहाँ पर भ्रमित हो जातें है / ठीक है एक वस्तु, भाषा , बहोत महत्वपूर्ण  है  , मगर ऐसा नहीं की भाषा अकेला ही सारा कार्यभार संभाली हुयी  है   / तर्क संवाद , और स्कूली वाद-विवाद प्रतियोग्तायों में अक्सर यह तर्क -भ्रम देखने को मिलता है / ख़ास तौर पर जब अंग्रेज़ी में यह तर्क-संवाद प्रतियोगिता आयोजित करी जाती है / इंग्लिश भाषा की अध्यापक( अथवा अध्यापिका ) प्रतियोगियों को सिर्फ उनकी अंग्रेज़ी बोलने की काबलियत पर ही अंक दे कर पक्ष और विपक्ष के बीच में न्याय कर देते हैं / वाद-विवाद प्रतियोगितायों में न्याय करने के मुख बिन्दुओं में प्रत्योगियों की तर्क को समझाने की बुद्धि, उसको सुलझाने की और उनमे छिपे चुनातियों को चिन्हित करने, उनके निवारण करने की काबलियत को देखना चाहिए /  इंग्लिश में संवाद करने की इच

शिस्टाचार कभी भी तर्क विहीन नहीं हो सकते

      सदगुण , शिष्टाचार तो कभी-कभी ऐसे सुनाई देते हैं की मानो यह सिर्फ विश्वास और आस्था से उदित है, इसलिए सांस्कृतिक कर्त्तव्य है, और इनमे तर्क दूड़ना अपराध होगा / शिष्टाचार का अनुस्मरण तो आजकल कुछ ऐसे ही करवाया जा रहा है / "आज कल इस देश में राजनीति की भाषा ऐसी बदल है , इतनी गन्दी हो गयी है की लोग एक दूसरे पर कीचड उछाल रहे हैं " ! / "कुछ लोग बिना प्रमाण के कुछ प्रतिष्ठित लोगों पर बे-बुनियाद आरोप लगा रहे हैं "/ "सार्वजनिक जीवन में अपने विरोशी के प्रति ऐसे शब्दों का प्रयोग उचित नहीं हैं "/     अन्धकार में करी जाने वाली भारतीय राजनीति में कुछ शिष्टाचार की आस्थाओं का भी खूब प्रयोग हुआ है / जैसे की , अपने राजनैतिक विरोधी के चरित्र पर हमला करना एक अच्छा "शिस्टाचार" नहीं है (यानी की शिस्ट-आचरण नहीं है ) / क्यों नहीं है, किन सीमाओं के भीतर में नहीं है , इस पर तर्क करना ही अपने आप में बेवकूफी समझ ली गयी है / क्यों न हो, भारतीय सभ्यता में "सभ्यता" इतनी अधिक है की समालोचनात्मक चिंतन का आभाव बहुत गहरा और गंभीर है / यहाँ विश्वास अधिक महत्व पूर्ण

भारतीय राजनीति और भारतीय संस्कृति में समालोचनात्मक चिंतन का आभाव

भारतीय राजनीति पूरी तरह समालोचनात्मक चिंतन के अभाव पर ही टिकी हुई है/ भारतीय राजनीति ग्रामीणयत से निकली है और आगे नहीं बढ़ी है / लोग अकसर यह विवाद करते हैं की ग्रामो और शहरों में क्या अंतर होता है / और फिर एक साधरण उत्तर में यह जवाब मान लेते है की अंतर है की शहर के लोग पढ़े-लिखे होते हैं और गाँव के नहीं/ और फिर गाँव वाले लोग, या जो गाँव का पक्ष ले रहे होते है वह बताने लग जाते हैं की उनके गांवों से कितने कितने पढ़े-लिखे लोग कहाँ-कहाँ शीर्ष पदों पर विराजमान है /     अंतर एक भीतरी भेद में इसी समालोचनात्मक चिंतन का है / जानकारी का आभाव, जानकारी को क्रमित करने के तरीको के ज्ञान का अभाव, -- ग्रामीणयत कई तरीके से भारत को पिछड़ा देश बनाई हुई है / भाषा ज्ञान के दृष्टि से भी देखें तो पता चलेगा की ग्रामीणयत की दिक्कत आती है वाक्य में 'तथ्य' , 'आरोप', 'विश्वास' और 'संदेह' को चिन्हित करने में /    और फिर वाद-विवाद के दौरान ग्रामीण मानसिकता भ्रमित होने लगाती है / भारतीय राजनीति में भी जब आरोप-प्रत्यारोप का दौर शुरू होता है तब भारतीय जनता ऐसे ही भ्रमित होती है / उ

आत्म -पूजन मनोविकार से कुटिल बुद्धि चिंतन की कड़ी

        क्या यह संभव है की पुराने सामंतवाद के युग का आत्म-पूजन मनोविकार हमारे आधुनिक प्रजातंत्र में कुटिल बुद्धि का कारक बना हुआ है ? कुटिल बुद्धि से मेरा अर्थ है जुगाड़ बुद्धि (crooked thinking), वह जो विचारों के अर्थ को उसके ठीक विपरीत कर के समझतें हैं / पुराने युग में सामंतवादी , ज़मीदार, अक्सर आत्म-पूजन मनोविकृत लोग हुआ करते थे/ इसलिए क्यों की उनके पास जनता पर शासन करने के ताकत असीम थी/ भई कोई सरकार , कोर्ट, कचेहरी तो थी नहीं/ राजा-रजवाडो का ज़मान था/ अगर राजा को शिकायत करें भी तब भी राजा से ज़मींदार की नजदीकियां उनकी ताकत का पैमाना बन कर दिखाती थी /        रामायण का पूरी कहानी रावण के अन्दर बैठे अहंकार से उत्पन्न हुए त्रुटियों को झलकाती है / आश्चर्य है की यही अहंकार को उसके सही मानसिक-रोग के लक्षणों में हम लोग आज भी नहीं पहचान सकें और आज के युग में भी भारतीय संस्कृति में लोगो की एक दूसरे से सर्वाधिक जो शिकायत रखतें है वह है 'ईगो' की /           "ईगो प्रॉब्लम" इंसान में व्याप्त 'अहम्' का ही बढा हुआ स्वरुप है/ अहम् ही इंसान को अन्य पशुयों से अलग करता है

सम्मान क्या है , और किसी राजनेता का सम्मान क्यों होना चाहिए

            बहोत दिनों से विचार कर रहा था की किसी राजनेता का सम्मान क्यों होना चाहिए ?    पहले तो, की यह भी एक बहुत जटिल सूझ का विचार है कि सम्मान है क्या और किसी का सम्मान करने में क्या घुमावदार उलझी बातें है ।    सम्मान को ज्यादातर कुछ शब्दों और कुछ ख़ास संस्कारो के द्वारा दर्शाते है, जैसे बात-चीत में 'आप' का प्रयोग और चरण स्पर्श इत्यादि से । एक उलझी हुई बात यह है की ऐसा नहीं की सभी भाषाओँ में "आप" या उसके सम-तुल्य शब्द है किसी के प्रति सम्मान दर्शाने के लिए । उधारण में अंग्रेज़ी को लीजिये , जिसमे सिर्फ "यू" शब्द ही है, हर एक के लिए, चाहे बड़ा, चाहे छोटा। और सम्मान के लिए खोई ख़ास अलग शब्द नहीं है, या यूँ कहे की सभी के लिए एक समान का सम्मान है।  कुछ ऐसे ही हाल इधर भारत में भी कुछ भाष्यों में मिलता है, जैसे मुंबई की मुंबईया-हिंदी में,या हरयाणवी-हिंदी में । इसके विपरीत हिंदी (और उर्दू) में अगर "आप" सम्मान के लिए है, तो फिर "तू" या 'तुम" किस मनोभाव के लिए यह आप खुद ही सोचने के लिए आज़ाद हैं ।             यानी अगर किसी वार्तालाप मे

समालोचनात्मक चिंतन का आभाव --भारतीय शिक्षा पद्वात्ति की मुख्य गड़बड़

समालोचनात्मक चिंतन (= सम + आलोचना + त्मक , अर्थात, सभी पक्षों या पहलुओं की समान(=बराबर) रूप में आलोचना करते हुए उनको परखना , उनके सत्य होने के प्रमाण दूड़ना) (अंग्रेजी में, क्रिटिकल थिंकिंग, critical Thinking) एक प्रकार का बुद्धि योग है /        भारतीय शिक्षा पद्वात्ति में जिस पहलू पर गौर नहीं किया गया है, वह क्रिटिकल थिंकिंग है / ऐसा पश्चिम के समाजशास्त्रियों का भारतीय शिक्षा पद्वात्ति के बारे में विचार है / भारतीय शिक्षा में मूलतः स्मरण शक्ति पर ही ध्यान दिया जाता है / वैसे भारतियों को भी इस बारे में एहसास है की उनकी शिक्षा पद्वात्ति में कुछ गड़बड़ ज़रूर है , मगर यही "समालोचनात्मक चिंतन" की कमी से अक्सर हम लोग इस गड़बड़ी की जानकारी को भी अपनी स्मरण शक्ति द्वारा ग्रहण करते है और एक दूसरे को यह बतलाते फिरते है की यह कमी "प्रैक्टिकल नॉलेज " ( प्रयोगात्मक जानकारी ) की कमी की है /              'प्रैक्टिकल नॉलेज' एक मुख्य गड़बड़ नहीं है , और क्यों और कैसे नहीं है यह भी समझने के लिए कुछ समालोचनात्मक चिंतन होने की आवश्यकता है , जो की आगे इस निबंध में विचार करें

ज़मीर-बिन वकील और निति-निर्माण करने वाले राजनेता

एक बेहद भ्रमकारी और बहस वाले तर्क का प्रयोग करते हुए राजनीति में बैठे शैक्षिक योग्यता और पेशे से वकीलों ने प्रजातांत्रिक व्यवस्था को प्रजातांत्रिक तरीके से मात दे दी है/ अब 'लाभ के पद' पर ही विवेचन करिए / यह सिद्धांत इस लिए बनाया गया होगा की राजनीतज्ञों को शासन से मिली निति-निर्माण की शक्ति का प्रयोग  स्वः  हित में न हो / अब यानी राजनीतिज्ञों को राजनीति में आने से पूर्व अपने सभी व्यवसायिक संबंधो को कम से कम दस्तावेजों पर तोह विच्छेद कर हे देने चाहिए / मगर राजनीति कर रहे वकीलों की चपलता देखिये / आज ज़्यादातर राजनितज्ञ व्यवसायी है , और यही नहीं, वह उन कमेटियों में भी शामिल है जो उन विषयों पर निति-निर्माण करती है जो विषय उनके व्यवसाय से सीधा सम्बन्ध रखते हैं / और प्रश्न करे जाने पर राजनीतिज्ञ -वकील अपना आम आदमी का मौलिक अधिकार का वास्ता दे कर कहते है की "भई, मैं एक जन-प्रचलित सम्मानित राजनीतिज्ञ हूँ, एक व्यवसायी हूँ, और मेरे व्यवसाय के द्वारा कितने लोगों की नौकरी मिल रही है, कितनी के घर का चूलाह जल रहा है/ इसमें गलत क्या है / मेरा व्यवसाय ही तो मेरे समाज-सेवा का माध्यम है /&q

Why are we so lazy ?

Laziness. we often accuse some of out rivals, their entire community of being Lazy. Like I'd like to say, "Indians are the laziest of all people i know of". So, what is laziness? What is the psychology of laziness? What is the evolutionary origin of Laziness?   Wikipedia speaks of laziness as "Laziness (also called indolence) is a disinclination to activity or exertion despite having the ability to do so. It is often used as a pejorative". Almost all the religions describe as a great sin. In Economics, Laziness is described as the purpose of all our hard work ! if laziness is taking a leisure and break from work, then one of the agenda of every hard working man is to take a great rest from work someday and laze around. ((((((((   quote from the website http://ronnyeo.wordpress.com/2008/08/06/evolutionary-psychology-laziness/   )))))))))) Our brain induce pleasure in order to motivate us to eat, socialize, copulate,  getting things which are hard-to-get, and

Fallacies...the "maya"

Once a Fallacy situation is created, in the current scenario between the anti-graft campaigners and the "anti-destabilize protectors", the method to resolving out the fallacy would circle around the other *un essential information* about each other. The unesential informations become the most significant vital details: who wear what clothes, who dress like what, who said what and when, and so on.  Human life an unending trap of "maya", the "bhram" and the unlearned , unclear minds can never come out of it. Knowledge is not just information compilation, but sometimes the cause of our bondage if we do not know how to manage and collate the information. That again brings me to topic of difference between Intellectualism and Intelligence. The search of justice, the Dharma, is an never ending task for human beings, and Intelligence, the act of information gathering, is merely and essentially the first step, but not the last and only step. To make sense from t

भारतीय प्रजातंत्र ...क्या यह उदारवादी तानाशाही का भ्रमकारी स्वरुप है ?

उदारवादी तानाशाही (benevolent dictatorship ) राजनीति शास्त्र में चिन्हित एक किस्म की शासन व्यवस्था है / इसकी एक खासित्यत यह है की यह प्रजातंत्र से मिलती-जुलती होने की वजह से प्रजातंत्र से भ्रमित हो सकती है / एक और शाशन प्रणाली , प्रबुद्ध निरंकुश राजशाही (enlightened absolutism ) , की भी यह खासियत है की वह प्रजातंत्र से भ्रमित करी जा सकती है /             तानाशाही में ज्यादातर तो तानाशाह एक बहोत की क्रूर , निर्दयी , सिर्फ अपनी मर्ज़ी से चलने वाला शासक होता है / मगर उदारवादी तानाशाही में शासक जनता पर जुल्म ढाने में व्यसनित नहीं होता बल्कि उनको उनके गरीब हाल पर जीवन-यापन के लिए छोड़ देता है / यदा कदा उनकी ज़िन्दगी में कुछ ख़ुशी के अवसर भी प्रदान करवाता है, और कुछ एक व्यवस्था से उनको जीवन में आगे बड़ने की उम्मीद भी दिलवाता है / इससे जनता में ना-उमीदगी नहीं फैलती और वह कभी भी शासक के विरुद्ध विद्रोह के लिए एकमत हो कर खड़े नहीं होते / शासक की तानाशाही अपनी रहा यूँ ही चलती रहती है, और जनता अलग अपनी राह पर , अपना जीवन सुधारने के संघर्ष में आजीवन व्यस्त रहती है / प्रजातंत्र से उदारवादी तानाशा

Digvijay's idea of democracy

What's wrong with Digvijay Singh? A significant count of questions he poses to Kejriwal aim to ask the regulatory breeches kejriwal did during his service tenure in the IRS. but isn't this same as asking a child playing truant from his school ,"hey did you take permission of your school principal before you bunked classes ". Digvijay is seriously confused about the objectives he wants to set forth. in an alternative case, being from a princely set up, he confuses a Benevolent Dictatorship with the idea of Democracy. He would not disagree that the route to civilian protest in a democracy would entail those acts which Kejriwal did, but he wants to take objections to violation of some internal rules.  In another set of his questions, digvijay wants to give to his reader a suggestion of the accusation that a foreign hand (an NGO from USA) is involved with IAC, instead of directly accusing the foreign hand. It is like an spoil sport joke, 'hey I know what you upto. Sp

प्रमाण के नियम

इस उदाहरण को पढ़िए और नीचे दिए गए प्रश्नों का उत्तर दीजिये : राम   ने    श्याम  को बताया की उससे हरी ने बोला था कि कमल कहता है कि राजेश को लगता है कि एक भूत कमल के घर में घुस गया है /  १) ऊपर लिखे वाक्य में कौन-कौन से चरित्र को भूत में विश्वास है ?  २) कौन से चरित्र किसी अन्य चरित्र पर कोई आरोप लगा रहा है ?  ३ ) वह आरोप क्या है ?  ४) वाक्य में मुख्य श्रोता कौन है जिसे 'प्रमाण के नियमो' का प्रयोग कर के यह निर्णय लेना होगा कि कौन आरोप लगा रहा है, कौन आरोपी है, और आरोप क्या लगा है ? ५) कमल जो कह रहा है, वह उसका तथ्य है या विश्वास ? ६ ) शंका किसे है और क्या है ?  समीक्षा : १ ) राम एक प्रथम, अथवा सीधे, सम्बन्ध का वक्ता है, जो कि श्याम के लिए प्रमाण है कि श्याम को जो भी जानकारी है, वह राम के द्वारा दी गयी है/ २) श्याम कि नज़रों से राम जो भी कुछ कहता है हरी के बारे में, वह श्याम को आरोप के रूप में ही लेना चाहिए क्योंकि श्याम नें खुद कहीं भी हरी से सीधे सीधे पूछताछ नहीं करी है /  ३) श्याम कि नज़रो से राम कि कहीं गयी हर एक बात आरोप है , कि हरी ने क्या बोला, किस के बारे में

'प्रमाण के नियम' का सामान्य ज्ञान

जीवन में 'प्रमाण के नियम' (laws  of evidencing ) को समझना बहोत जरूरी होता है / आये दिन के  निर्णयों में तथ्यों और आकड़ो की संतुलित समीक्षा के लिए यह जानना जरूरी है की क्या तथ्य है, क्या विश्वास  है, क्या आरोप है, क्या विश्वास करने का तथ्य है , इत्यादि/  विश्वास और 'विश्वास करता है का तथ्य ' दो अलग अलग बातें हैं/ प्रमाण की नियमो के बिना इंसान शंका,  अनिश्चितता , भ्रम, अनंतता के विचारों में उलझ जाता है / वैसे तथ्यों की तथ्यों से भ्रमित करने की गणित भी इंसान ने आज़ाद कर ली है , जिसे हम सांख्यकी (स्टेटिस्टिक्स , statistics )  कह कर बुलाते हैं / तो भ्रमित करने के संसाधन बढ़ते जा रहे हैं, और दुविधा सुलझाने का ज्ञान दुर्लभ हो रहा है / प्रमाण के नियम को सर्वप्रथम तीसरी शताब्दी एं एक भारतीय ऋषि , अक्षपाद गौतम , द्वारा रचा गया था/ पश्चिम में भी करीब करीब इसी स्तर के प्रमाण के नियम का विकास हुआ / यह नियम प्राकृतिक समझ के आधार पर बनाये गयें है , और इनमे आपके भक्ति मान विश्वासों और आस्था को स्थान नहीं दिया गया है/ यानि आप किसी भी संप्रदाय से हो , यदि प्रकृति की कार्यवावस्था की समझ र

राजनीति की भ्रमकारी भाषा

हमारे यहाँ शान्ति की भाषा में भी एक किस्म का भ्रस्टाचार छिपा हुआ है / जब भी किसी विवाद के निष्कर्ष में यह कहा जाता है की "हमे सब को साथ ले कर चलना है , सभी धर्मो, सभी समुदायों, सभी क्षेत्रों को ", हम अपनी संस्कृति में धर्मं और इमानदारी से भी समझौता करना प्रवाहित करवा रहे होते हैं / राष्ट्रीय एकता, शांति, क़ानून-व्यवस्था की आड़ में विपक्ष अगर सत्तारुड पार्टी के  गलत कर्मो को उजागर करना छोड़ देगी तो प्रजातंत्र कैसा चलेगा? कैसे सत्य की तलाश होगी और एक सच्ची एक-मतत्ता से आने वाली शान्ति व्यवस्था प्राप्त होगी /  पिचले दशकों में पेशे या शिक्षा से वकील राजनीतज्ञों ने देश में अपनी "न्याय" की समझ से इंसान की "निर्णय" की समझ को बहुत अघात किया है / सभी मनुष्यों में बाल्यकाल से ही एक सही , उचित मनोभाव में पालन होने पर एक आत्मा का निवास स्वयं ही होता है / निर्णय के योग्यता उस आत्मा (सेंस ऑफ़ जस्टिस, conscience ) से खुद ही आती है / जिनमे इसका आभाव होता है वह वैज्ञानिक दृष्टि एक "शोशियोपेथ " या फिर "साईंकोपेथ" कहलातें हैं / आगे, अति विक्सित न्याय भी

आत्म-पूजन मनोविकार क्या है ?

http://www.ncbi.nlm.nih.gov/pubmedhealth/PMH0001930/ आत्म-पूजन मनोविकार (Narcissistic Personality disorder )  क्या है ? आत्म-पूजन मनोविकार एक मासिक स्थिति है जब किसी व्यक्ति को अपने बारे में एक भ्रान्ति हो जाती की वह बहोत ही प्रभावशाली व्यक्ति है , या की जब कोई व्यक्ति स्वयं के सौदर्य , शारीरिक क्षमता , इत्यादि पर साधारण लागों की अपेक्षा अधिक व्यसनित होने लगता है /  आत्म-पूजन मनोविकार के क्या कारक होते हैं ? इसके कारक अभी अच्छे से ज्ञात नहीं हो सके हैं / मगर ऐसा मन जाता है की एक संवेदनशील व्यक्तिव , बचपन का पालन , आस पास का सामाजिक माहोल इस तरह के विकार को पैदा करने में योगदान देते हैं /    आत्म-पूजन मनोविकार  के क्या लक्षण होते हैं ? १) अपने विरुद्ध बोले गए व्यक्तव्य , आलोचना पर क्रोध, शर्मिदगी , या बेइज्ज़ती   से प्रतिक्रिया करना /  २) अपने मकसद में दूसरे व्यक्ति का प्रयोग करना , किसी अन्य का उसकी जानकारी के बिना लाभ उठाना/  ३) साधारण से कहीं अधिक स्वयं को महत्वपूर्ण व्यक्ति समझना /  ४) अपनी उपलब्धियों , योग्यताओं, कुशलताओं , प्रतिभायों का उचित माप दंड न रखना और

अज्ञातकृत अभिव्यक्ति का अधिकार

http://itlaw.wikia.com/wiki/Anonymous_speech Right to Anonymous free speech : अज्ञातकृत हो कर अपने विचारों की व्यक्त करना भी प्रजातंत्र में एक प्रकार का संवेधानिक अधिकार है / पुराने समय में जब राजा-महाराजा के काल हुआ करता था , राजा को पसंद ना आने वाले विचार पर व्यक्ति को मृत्यु दंड दे दिया जाता था/ ऐसे में आज को प्रजन्तान्त्रिक युग की नीव डालने में कितने ही लागों ने अज्ञातकृत होने का खतरा लेते हुए भी अपने विचारों को व्यक्त किया, एक आम राय तैयार करवाई और तब कहीं किसी क्रांति में तख्तापलट कर प्रजातंत्र स्थापित किया / इन बातों में यह समझना जरूरी है की आज के स्थापित प्रजातंत्र में सरकारें मतदान के द्वारा चुनी जाती है , मगर प्रजातंत्र खुद किसी मतदान से नहीं स्थापित होते हैं, उसके लिए क्रांति करनी पड़ती है / ऐसी ही समझ के साथ स्थापित प्रजन्तंत्र में अज्ञातकृत हो कर विचारो को व्यक्त करना भी एक अधिकार माना गया है / मगर स्थापित प्रजातंत्र में इसकी कुछ सीमा भी तये करी गयी है / सीमा बस इतनी है की अज्ञातकृत हो कर कहे जा रहे विचार या आरोप पर कार्यवाही के लिए अज्ञातकृत व्यक्ति की पहचान को उजागर क

भारतीय संकृति में आत्म-पूजन मनोविकार का प्रवाह

(inspired from this blog :  http://www.inebriateddiscourse.com/2009/06/cosmic-narcissism-new-psychological.html#comment-form_3158647758726353159 ) एक ख़ास मनोवैज्ञानिक समस्या जो भारत नाम की त्रासदी के कई कमियों को समझने में बहुत उपयोगी है वह है आत्म-पूजन मनोविकार / साधारण भारतीय भाषा में इसे " अहंकार ", "घमंड", इत्यादि कह कर पुकारा जाता है / मगर इसके ख़ास लक्षणों को समझा नहीं गया है / मनोवैज्ञानिक दिक्कतों की भारत में ज्यादी स्वीकृति और मान्यता नहीं है / मनोविज्ञान से सम्बंधित पुस्तकें और मेग्जीनें ज्यादा प्रकाशित  नहीं होती है / हालाँकि 'अमेरिकेन सायेकोलोजिस्ट असोसीएशान (APA )' की तर्ज़ पर भारत में भी 'भारतीय सायेकीएटट्रिस्ट सोसाईटी' नाम की संस्था है / भारत में आत्म-पूजन मनोविकार की चर्चा प्राचीन कल में भी मिलती है / रामायण में रावण को अहंकार से ग्रस्त एक बहोत ही उच्च कोटि का विद्वान् ब्रह्मिन के रूप में पहचाना जाता है / भारतीय जात प्रथा में जहाँ ब्रह्मण को सर्वोच्च सामाजिक स्थान प्राप्त है , वही दलित और शूद्र नामे के वर्ग को मानव स्थान से भी नीचे