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Showing posts from 2020

प्रचारकों और सुधारकों के मध्य की निरंतर युगों से चलती आ रही राजनैतिक क्रीड़ा

भारत की साधुबाबा industry में बतकही करने वाले ज़्यादातर साधुबाबा लोग के अभिभाषण एक हिंदू धर्म के प्रचारक (promoter) के तौर पर होते हैं , न कि हिंदू धर्म के सुधारक (reformer) के तौर पर। अगर आप गौर करें तो सब के सब बाबा लोग सिर्फ़ और सिर्फ़ धर्म की तारीफ़ , प्रशंसा के पक्ष से ही अपनी बात को प्रस्तावित करते हैं , आलोचना (- निंदा ) कभी भी कोई भी नही करता है। यह प्रकृति एक प्रचारक (promoter) की होती। इन सब के व्याख्यान बारबार यही दिखाते है , सिद्ध करने की ओर प्रयत्नशील रहते हैं कि " हम सही थे , हमने जो किया वह सही ही था , हमने कुछ ग़लत नही किया " । मगर एक सुधारक की लय दूसरी होती है। सुधारक गलतियों को मानता है, सुधारक का व्याख्यान ग़लत को समझने में लगता है। दिक्कत यूँ होती है कि सुधारक को आजकल " apologists " करके भी खदेड़ दिया जाता है। उसके विचारों को जगह नही लेने दी जाती है जनचिंतन में। वैसे promoter और reformer के बीच का यह " राजनैतिक खेल " आज का नही है , बल्कि सदियों से चला आ रहा है। धार्मिक promoter s हमेशा से ज़्यादा तादात में रहे हैं धार्मिक reformers के। ...

भक्त गिरी की गंगोत्री है "यदि" के क्षितिज से उठाये गये प्रश्न

 संघ ने देश में इतनी बड़ी तादाद में भक्त कैसे पैदा किये है ? जबकि संघ का खुद का इतिहास काला है। वो अंग्रेजों से अपना आर्य जाति का भाई वाद रिश्ता जोड़ते थे।  वो भारत के ग्रामीण जीवन मे गर्व करने को प्रसारीत करते हुए इसी गर्व मई लेप् में छिपा कर जातिवादी भी प्रसारित करते थे। इतने अपरस्पर विचारों के  बावजूद इतनी बड़ी आबादी में लोगो का संघ की ओर झुकाव आखिर बना ही कैसे? आज यह लोग पूर्ण बहुमत न सही, मगर फिर भी, एक विशालकाय सम्मानजनक संख्या में हैं। ऐसा कैसे हुआ? संघ ने चतुराई से कार्य किया है। संघ ने जन चिंतन में जो कथा - narrative - बहोत जुगत लगा कर बेची है इतने वर्षों से , वह एक hypothetical - परिकल्पनिक कथा है - जिसका आरम्भ "यदि" के विशेषण से होता है --- "यदि" नेहरू की जगह पटेल देश के प्रधानमंत्री होते तब क्या होता? "यदि" गांधी की जगह सुभाष बोस देश की आज़ादी के सूत्रधार होते तो क्या होता? गंम्भीर सत्यवचन यह है कि परिकल्पनिक कथाओ में बसे सवालो और पहेलियों को सटीकता से उत्तर तो धरती का कोई भी इंसान नही दे सकता है। मगर फिर इन परिकल्पनिक सवालों को उठाने से आप आबादी म...

बच्चों का लालन पोषण में मातापिता की खामियां

16~17 साल की आयु के बच्चों को real world issues से वास्ता करना आरम्भ कर देना चाहिए। हम middle class परिवारों में बच्चों के लालन पोषण में बहोत खामियां है जिसकी वजहों से हमारे बच्चे वयस्क हो कर सफ़ल , आर्थिक उन्नत कर सकने वाला तथा कामगार व्यक्ति नही बन पा रहें हैं। दिक्कत यूँ है कि हमारे बच्चे किताब-कागज़ों के बीच में अपने चिंतनशील मस्तिष्क को खो रहे है, उनके ख़्वाब समाप्त हो जा रहे हैं, उनमें से उत्साह नष्ट हो जा रहा है। ऐसा क्यों हो रहा है🤔 ? क्योंकि बच्चों को वास्तविक दुनिया की समस्याओं से परिचय करने का अवसर और प्रोत्साहन नही मिल रहा है। यह सही है की अत्यधिक छात्र राजनीति एक किस्म कि मानसिक रोग होता है, मगर छात्र जीवन में वैश्विक संवाद से अलग थलग पड़े रहना - वह भी पढ़ाई करने, "एग्जाम की तैयारी कर रहा हूँ" के नाम पर -- यह भी सरासर अनुचित है, और फलदायक के विपरीत होता है। किताबों का ज्ञान आखिर में क्या होता है, और इसकी खुद की उत्पत्ति कहां से होती है?   हम जब भी अपने ही बच्चे को, अपनी ही संतान को "तुम सिर्फ पढ़ाई करो/ पढ़ाई पर ध्यान दो", करके उसको मित्रों से, मंडलियों से,...

यदि evm के दिक्क्त आपको व्यक्तिगत स्तर तक समझ में नहीं आ रही हो, तब कृपया evm को बर्दाश्त करना सीख लीजिये

 मैं जानना चाहता हूँ कि EVM तंत्र से आखिर दिक्कत किसी को क्या है? अगर दिक्कत यह है कि अब सिर्फ भाजपा का ही राज कायम रहेगा, सपा ज़ बसपा और राजद को मौका नही मिलने वाला है, तब फिर यह दिक्कत तो इन पार्टियो की हुई, न कि आप की। सवाल आपसे है -- कि आपको क्या दिक्कत है? न कि पार्टीयों से है। भाजपा की कौन सी नीत आपको सताती है? भाजपा आपसे आपका क्या छीन रही है? क्या अवसर है, जो कि भाजपा आपको नही देती है?  जब तक आप सवाल का जवाब इन मापदंड पर तय नही कर लेते है,तब तक आपको EVM को चुपचाप सहन कर लेना ही बेहतर होगा।

अखिलेश जी का समाजवाद

05/12/20 अखिलेश जी को सोच थोड़ा सा adjust करना होगा। शायद उनको पहले से ही एहसास हो। कि, गरीब होना कोई उपलब्धि नही होती है, बल्कि बेवकूफी की निशानी है। अगर कोई मज़दूरी कर रहा है, तो यह उसकी जीवन निर्णयों की बेवकूफी है। फिर ऐसे व्यक्ति या समूह के "हितों की रक्षा" के लिए राजनैतिक संघर्ष करना कोई अधिक समझदारी नही होती है। वास्तविक समस्या ये नही है कि गरीब को क्या मिला सरकार से, या कि सरकार गरीबों की परवाह नही करती है। वास्तविक समस्या है कि वो गरीब क्यों है, उसने जीवन निर्णयों में क्या कमियां दिखाई, और अब समाज और प्रशासन उनके "उत्थान" (=जीवन-निर्णयों में हुई गलतियों की पहचान करना, और सुधार के अवसर देना ) के लिए क्या कर सकता है।  गरीब को रोटी खिलाना उसकी सहायता करना नही होता है। क्योंकि ऐसे में वह और अधिक पर निर्भरता ग्रस्त हो जाता है। असली सहायता होती है उनको गरीबी से निकालना। ये मुश्किल काम होता है। मगर लक्ष्य मुश्किल कामो के ही साधे जाते है। सामाजिक और धार्मिक पर्यावरण में बदलाव लाने होंगे। शिक्षा नीति में बदलाव लाने होंगे। प्रशासन में बदलाव लाने होंगे, जिससे गरीबी को नष...

स्वतन्त्र अभिव्यक्ति और perceptions की अभिव्यक्ति

 कुणाल कामरा के ट्वीट सब के सब mere perceptions ही कहेै जा सकते हैं। स्वतन्त्र अभिव्यक्ति के अधिकार के तहत हर व्यक्ति को किसी भी घटना, व्यक्ति इत्यादि पर अपना मत रखने का अधिकार है। ये perceptions वही मत होते है। प्रशांत भूषण मामले में सोली सोराबजी के विचारों के अध्ययन से एक बात समझ मे आ जाती है - कि, प्रशांत भूषण की गलती बस यह थी कि किसी ताथयिक बात को गलत प्रस्तुतिकरण किया था। हालांकि वह भी ताथयिक गलती छोटी ही थी, और अर्धसत्य भी थी। तो बात यह बनती है कि किसी तथ्य को यदि जानबूझकर गलत या मरोड़ करके प्रस्तुत किया जाता है किसी भी छवि को बनाने, बिगड़ने के उद्देश्य से, तब और केवल तब ही मानहानि का मुकदमा ठहरता है, अन्यथा मुकदमा विलय कर जाता है कुणाल कामरा के tweets में तो कुछ भी ताथयिक है ही नही। केवल perceptions ही है ! उनकी खुद की मन की छवि कोर्ट के प्रति ! भले ही वह नकारात्मक ही क्यों न हो , मगर वह ताथयिक नही है, महज़ perception है।

box बुद्धि, इंसान की बौड़मता

  इंसान बौड़म क्यों होता है? इंसान की बुद्धि जन्म से ही box में बंद हो कर सोचने के लिए निर्मित होती है। यह box उसका जीवन रक्षक अस्त्र होता है और संग में यही उसके बौड़म होने का कारण भी होता है। Box को खोल देने से इंसान को स्व-मूर्खता से मुक्ति मिलने लगती है। मगर box को खोला कैसे जाता है? आज मित्रों के संग बैठे बैठे बात निकल पड़ी कि अच्छे, गुणवत्तापूर्ण दीर्घायु जीवन का क्या कारण है- राज क्या होता है? बात आरम्भ हुई थी अर्जेंटीना के फुटबाल सितारे डिएगो माराडोना के निधन से, जो कि कल के दिन मात्र 60 वर्ष की आयु में हृदय गति रुकने की वजह से चले गये। तो प्रथम बात यह निकली कि एक खेल प्रतियोगी होने के वास्ते जहां उनकी चुस्ती-फुर्ती बाकी इंसानों से कुछ बेहतर अपेक्षित करि जानी चाहिए थी, उसके बावजूद उनके संग ऐसा हो गया। यहां से किसी मित्र ने बात की दिशा यों दे दी कि शहरी जीवन थोड़ा कमज़ोर हो ही गया है, जहां अब अल्पायु आम बात हो चली है। मुझे अपना आभास यूँ था कि अगर हम दीर्घायु गुणवत्तापूर्ण जीवन की बात जनमानस के निवास क्षेत्र - शहरी अथवा ग्रामीण - के आधार पर ही करनी है तब शायद ग्रामीण जीवन ख़राब होत...

Advance automation work environments and the causes of failures of the conventional Indian managerial style

 Imagine working on a product-tanker ship , with slender crew on board , just 17 or so, and of multinational denomination. In your understanding, what type of leadership and the management style will serve best to operate such a ship? And now imagine if you have to do training and teaching all the time with those 17 crew instead of the regular Planned Maintenance Schedule jobs. How easy or difficult would it be to you? _____________________________________________________________ The leadership and the management style of an Indian is usually derived, in my thinking , from the models of a tea-estate plantation manager . Tea plantation was the first industrialized activity ever done by the mankind. It is to be remembered that  our country, India , is the biggest producer of Tea in the world. The European traders came to India as mariners, via sea route, for her riches of the spices. Tea, a small shrub, is also one such spices which caught the interest of the European traders...

राजनीति अस्त्र और कूटनीति अस्त्र अलग होते हैं

  राजनीति अस्त्र अलग होता है, और कूटनीति अस्त्र अलग। ये दोनो ही अलग किस्म के  अस्त्र होते हैं। मगर शासन शक्ति तक पहुंचने के लिए दोनों अस्त्रों का प्रयोग करने में महारथ चाहिए होती है।    राजनीति अस्त्र का प्रयोग होता है जनता को लुभाने के लिए । कूटनीति का प्रयोग होता है विरोधियो को हराने के लिए।  चुनाव प्रक्रिया आजकल कूटनीति अस्त्र का मैदान बन चुकी है। evm के प्रति लोगो की आशंका  कूटनीति का पायदा है। फिर,  वोट की गिनती की प्रक्रिया, vvpat की गणना, चुनाव अधिकारीयों के राजनैतिक झुकाव, ये सब कूटनीति अस्त्र का अंश बन चुके हैं। मीडिया से wave बनाना,court से अपने पक्ष के फैसले दिलवाना, यह भी अंश है कूटनीति अस्त्र के। भूखी,गरीब, अल्प पढ़ी लिखी समर्थक भीड़ इन सब कूटनीति अस्त्र को कटाक्ष करने के लिए तैयार नहीं होती है। वो सिर्फ नारेबाजी करके, और या फ़िर मोटरसाइकिल पर पार्टी के झंडे लगा करके काफिले बना कर रैली करने के ही काम आ सकती है।  जबकि भाजपा के समर्थकों में बुद्धि से ताकतवर sales और marketing रणनीति में महारथी भीड़ है। कभी LED टीवी बेच कर, और कभी मोटरस...

Exit Polls चुनावी प्रचार का हिस्सा ही होते हैं

 ऐसा कैसे की बिहार चुनावों में exit poll के नतीजे राजद को बहुमत होने का इशारा कर रहे थे, भाजपा गठबंधन को अल्पमत,  मगर जब असली नतीजे आये तब उल्टा ही हो गया। जबकि ज्यादातर राज्य चुनावो में exit poll उल्टे ही रहे हैं, भाजपा गठबंधन को ही बहुमत मिलने की भविष्यवाणी करते रहे हैं। दरअसल, इस बार exit poll भी चुनाव प्रचार का ही हिस्सा है, जो कि वोट पड़ जाने के बाद किया जाता है। exit poll का प्रयोग बिहार चुनावों में लोगो को डराने के लिए हुए है कि यदि राजद आ गई तब भाजपा समर्थको के संग क्या सलूक हो गा ! चुनाव अधिकारियों में भाजपा के समर्थक अधिकारी लोग हेरफेर करके भाजपा को जिताने में लग गए। बाकी हर बार दूसरे राज्यों में exit poll का प्रयोग होता है भाजपा के हक़ में wave बनाने के लिए कि यदि बहुमत कम पड़े तब आसानी से पार्टनर मिल जाये। राजद के पास समर्थक वैसे भी गरीब, भूखी जनता थी, जबकि भाजपा ने तो शासन शक्ति के भीतर अपने समर्थक बैठा रखें हैं।

The problem with the courseware on Managerial Leadership

  The single biggest problem that I see in the courseware on leadership and managerial style , particularly the caselets type, like "Capt Dayal- old man with valve gloves" and "Chief Engineer Swamy , man with iron fist" , is that these caselet studies entrap the minds of the learners instead of helping it to open out. How ? The courseware captivates away the thinking of the learners to see the leadership roles from the two frames alone -that of 'velvet gloves' attitudes and that of 'iron fist'.  Many uninitiated learners will get induced through the courseware , to think that t he Motivation, which is an important role in the leadership, is done by way of acting soft and Humane, which then is the way to get the job done . Here lies the trouble. The courseware tends to send a message that behaving human considerate should bear a selfish motive -  that of getting the job done . A shallow thinking learner may fail to see that the human-considerate behav...

Teaching of Civics and History to the students in India - a defect in our education system

 In the Education System, we are spending more energy in teaching the history around the development of the Constitution, which unfortunately doesn't bear any lessons or perspective to reveal to the learners the foundation of those legal principles which are enshrined within the Constitution. Thus, we are not spending a single dime of efforts to ensure the robust implementation of the Constitution by our generations. Instead we are spending energy to teach those topics and events of our History which can , at best, be used to Itch the old wounds and make them worse. I am firmly of the opinions that secondary school level teaching must bring certain changes in the curriculum of  History and Civics, and start teaching about the foundation /history behind the Legal Principles by which the high ideals of the Constitution can be implemented by the students by practising the values in their day today lives. The workplace harassment, the unfairness is a very casual event within the I...

Fake News और Fact Check में भी जालसाज़ी की strategy

 *Fake News और Fact Check में भी जालसाज़ी की strategy !*  आजकल IT Cell वालों की एक startegy यह भी है कि खुद ही झूठ फैला कर फिर उसका fact check करके "भंडाफोड़" कर लो, जिससे कि खुद सत्यवान साबित हो जाओ !! अर्रे, कभी कभी तो एक स्ट्रेटेजी के तहत ऐसा भी करते हैं कि झूठ फैलाते हैं और फिर ख़ुद ही उसे fact check में पकड़वा  करके fact check में ही नया झूठ फैला देते हैं ! यानी fact chcek में ही झूठ फैला दिया, जिससे लोग और ज्यादा विश्वास के साथ झूठ पर विश्वास कर बैठें !! 😁😁 गज़ब चालाक लोग है

भारत में 'कानून' और 'धर्म' में संबंध नही है

  कानून और धर्म में संबंध नही है। जो की विचित्र बात है। कानून का संबंध roman canons से है, धर्म (dharmic faith) से नही है। ये वो बड़ी बात है जो की आधे से ज़्यादा भारतीयों की बुद्धि में घुस नही रही है ! कानून शब्द का आगमन तुर्की भाषा में से होता है, और यह समाज में सही और ग़लत की मर्यादाओं को प्रतिबिम्बित करता है। मगर कौन से समाज ? रोमन प्रथाओं वाला समाज। भारत में जाहिर है कि कानून अपनी मूल रचना में नही मिल सकता था उसके स्थान पर भारत में धार्मिक मर्यादाये थी। जो कुछ भी रोमन विचारधाराओं से प्रभावित समाज में सही और ग़लत हुआ करते थे, उनमे से ग़लत को घटने से रोकने के लिए समाज में canons आये। वही तुर्की भाषा में कानून कहलाये । एक अन्य मिलता जुलता शब्द cannon का अर्थ होता है तोप से। कृपया confuse मत होइएगा। रोमन समाज बाद में ईसाई धर्म के अन्तर्गत चले गये। इसलिये हम केह सकते हैं कि ज्यादातर कानून ईसाई धर्म के स्थापित मानक वाले सही और ग़लत में से निकलते हैं। कहने का मतलब है कि उनका संबंध भारत की धार्मिक मर्यादाओं से नही है। शायद अब हम समझ सके कि भारत में कानून का पालन कमज़ोर क्यों होता ह...

Post Truth राजनैतिक संस्कृति और समाज में व्यापक मनोविकृति

 Post Truth वाली राजनैतिक संस्कृति अपने संग में व्यापक मनोविकृति भी ले कर आयी है।  लोग और अधिक अमानवीय, क्रूर, शुष्क, कठोर और आक्रांत व्यवहार करने लगे है एक दूसरे से। ऐसा क्यों? क्या संबंध होता है राजनैतिक व्यवस्था का समाज की व्यापक मनोअवस्था से? क्या अत्यधिक छल वाली राजनीति अपने संग व्यापक मनोविकृति ले कर आती है? Post truth की मौजूदा राजनैतिक संस्कृति ने सत्य और न्याय के परखच्चे उड़ा कर रख दिये हैं। कभी भी, कुछ भी सत्य अथवा असत्य साबित किया जा सकता है, चाहे वह कितनों ही भीषण विपरीत बोधक क्यों न हो।   ऐसा हो जाने से लोगों की व्यापक मानसिकता पर क्या असर आता है? लोगों को आशंका और भय सताने लगता है! लोगों को यह "जागृति" आती है कि सत्य से ज़्यादा आवश्यक होती है नेता के प्रति निष्ठा । सत्य अब विस्थापित हो जाता है निष्ठा और चापलूसी से। लोगों का समझ आने लगता है कि यदि वह चापलूसी नही करना चाहते हैं तब उनको जीवन जीने का एकमात्र तरीका है कि "अपने को बचा कर चलो। वरना पता नही कब कहां तुन्हें फँसा दिया जाये और तुम कितने ही सही क्यों न हो, प्रशासन यदि तुमसे खुस नही है (क्योंकि तुमने ...

खेती संबंधित विधेयक और समाजवादी मानसिकता

 खेती संबंधित विधेयक में मोदी सरकार के विचार इतने ख़राब नही है, हालांकि प्रत्यक्ष तौर पर इस विधेयक के मूल विचार किसी भी समाजवादी मानसिकता के समाज मे आसानी से उतरने वाले नही है। समाजवादी मानसिकता मौजूदा युग मे विकास के पथ की सबसे बड़ी अवरोधक है। समाजवादी लोग वो होते हैं जो व्यापार, उद्योग और विज्ञान को अपने आचरण में उतारने में पिछड़े होते हैं। वह अपने बच्चों को विज्ञान पढ़ाना पसंद तो करते हैं, मगर यदि वही विज्ञान जीवन मे उतारना पड़ जाए, तब वह विरोध करने लगते हैं। खेती और मौजूदा समाज का विषय देखिये ।बढ़ती हुई आबादी का पोषण कैसे किया जाएगा, ताज़ा, cancer रोग तत्वों से मुक्त organic अन्न कैसे उपज किया जाएगा बड़ी मात्रा में ताकि बड़ी आबादी का पोषण किया जा सके, पशुओ से meat आहार , दुग्ध कैसे प्राप्त होगा ताकि बाजार को मिलावटी दूध और मिठाइयों से मुक्ति मिल सके, यह सब के सब प्रश्न समाजवादी "पिछड़ी" बुद्धि के परे चले गए हैं।  तो समाजवादी सोच में खेती को उद्योग बनाने की अक्ल थोड़ा सा मुश्किल हो गयी है। कैसे और क्यों निजी कंपनियों या की सहकारी समितियों को आमंत्रण देना आज की आवश्यकता हो गयी है, भवि...

फ़िल्म actor , राजनैतिक पार्टी विवाद और तंत्र में political neutrality की कमी

 critically speaking, यह जितना भी ड्रामा चल रहा है भाजपा से समर्थित कंगना रनौउत और शिवसेना के मध्य में, इसका सिर्फ और सिर्फ एक ही मूल कारक है -- कि , तंत्र में political  neutrality  नहीं है !  भारत के संविधान में एक अभिशाप दिया हुआ है अपनी तमाम खूबियों के बीच में।  वह यही है -- कि , तंत्र में शक्ति का पर्याप्त विभाजन करके संतुलन नहीं किया गया ! इसके परिणाम गंभीर निकले  ७० सालों की तथाकथित "स्वतंत्रता" के बाद, कि  वास्तव में प्रत्येक नागरिक की आत्मा आज भी बंधक है तंत्र की !! --गुलाम bmc  जो की शिवसेना+भाजपा द्वारा नियंत्रित है, उसकी कार्यवाही की टाइमिंग वाकई में संदेहास्पद है।  यदि हम नागरिकों ने यह संदेह नहीं उठाया तो फिर  इसके प्रजातंत्र व्यवस्था पर गंभीर नतीजा होगा --!!  क्यों ? क्योंकि, प्रत्येक नागरिक कहीं न  कहीं कुछ न कुछ छोटी मोटी गलतियां तो ज़रूर करता है।  होगा क्या, कि  तंत्र आपकी गलतियों की पर्ची बना जेब में रखा रहा करेगा, और -- क्योंकि तंत्र में political  neutrality  पहले से ही नहीं है -- तो वह अ...

भारत का संविधान और Work Place fairness की कमी

 भारत का संविधान और Work Place fairness की कमी  मेरा अपना मानना है कि  इस देश में प्रजातंत्र अपने वास्तविक रूप में अस्तित्व ही नहीं करता है ।  जो है, वो छद्म प्रजातंत्र हैं।  जैसे , छद्म secularism  भी है।  कांग्रेस पार्टी ने ७० सालों के शासन के दौरान सभी राजनैतिक आस्थाओं का छद्म रूप इस देश की संस्कृति में प्रवेश करा कर संविधान को भीतर से खोखला कर दिया है। संविधान के शब्द हैं, मगर उनमे आत्मा नहीं बची है।   मगर कांग्रेस सीधे जिम्मेदार नहीं है।  ब्राह्मणवाद जिम्मेदार है।  कांग्रेस जनक है ब्राह्मणवाद की।  ब्राह्मण वर्ग की नीति और सोच अक्सर राष्ट्रवाद का चोंगा पहन कर कार्य करती है, ठीक वैसे जैसे मंदिरों में राम नाम की चोली पहन कर और जनेऊ का धागा बांध कर के नगरवधू के मज़े लेते थे, शूद्रों का दमन , शोषण किया करते थे।  "अनुशासन" प्रथा ब्राह्मणी सोच की कमी और अवगुण है। वह लोगों को अपनी सोच और मानस्कित के "अनुशासन" से समाज को चलाना  चाहते थे, और आज भी हैं। अंग्रेज़ों ने 1857 के ग़दर के बाद वैसी सैनिक ग़दर की पुनरावृति से बचने के क...

अभद्र बोल वाले भोजपुरी गीत -- क्या भाषा जनित भेदभाव का मुद्दा है , या की यह नज़ाकत और नफासत की कमियां है ?

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 सुशांत सिंह राजपूत विषय में से एक और सामाजिक तथा क्षेत्रीय संस्कृति विषय सामने निकल कर बाहर आया है। The Print समाचार पत्रिका के लिये कार्य करने वाली पत्रकार सुश्री ज्योति यादव जी ने संदिग्ध रिया चक्रवर्ती के लिये प्रयोग किये गये आपत्तिजनक शब्दों का मुआयना किया और अपनी तफ़्तीश का कोण यह रखा है कि आखिर क्यों सुशांत तथा उनके परिजनों में मधुर संबंध नहीं थे । रिया चक्रवर्ती के लिए प्रयोग किये गये आपत्तिजनक शब्द अधिकतर सुशांत के fans और भोजपुरी-भाषी समर्थक पक्ष से आये हैं, जिनमे रिया पर काला जादू , बंगालन जादूगरनी इत्यादि जातिसूचक शब्दों का प्रयोग किया गया है । पत्रकार सुश्री ज्योति यादव जी (मूलनिवास हरियाणा) का लेख प्रत्यक्ष तौर पर रिया के बचाव में तो नही हैं, हालांकि यह सुशांत के परिजनों के सम्बंधो को कुछ सामाजिक और क्षेत्रीय चलन के आधार पर मुआयना करता है, कि कहीं सुशांत , उनके पिता और अन्य परिजनों में मधुर सम्बद्ध नही होने का कारण "वही पुराना" मानसिकता का कारण तो नही है जो कि उत्तर भारतीय परिवारों -- विशेषतौर पर बिहारी परिवारों में - देखने को मिलता है - एक आदर्श पुत्र श्रवण कुमा...

The amount of interest that the Common people put in the Justice Karnan matter and Prashant Bhushan lawsuit matters -- the difference in the amount is NOT an outcome of the society's prejudicial leanings

The amount of interest that the Common people put in the Justice Karnan matter and Prashant Bhushan lawsuit matters -- the difference in the amount is NOT an outcome of the society's prejudicial leanings  Dilip Mandal ji is apparently not able to judge with a high resonating conviction, whether Justice Karnan matter was a case of personal incompetence , or of prejudice and discrimination ! What part of the Justice Karnan episode is bearing the Discrimination angle, Dear Mandal ji must make-up his mind on that and refrain from spreading Caste-based prejudice without sufficient logical backing on prejudice aspects of the case matter from those angles where there is none ! In summary, the Dilip Mandal ji 's tale is becoming like a short story , where a stupid man in a Fools' country is crying out how people are being racially prejudiced towards him by not buying and eating the poison from his shop, whereas few "high caste others" are selling that same poison whic...

Justice कर्णन और प्रशांत भूषण मामले में क्या भिन्नता है ?

  सच मायने में दिलीप जी का लेख , जब वह प्रशांत भूषण और जस्टिस कर्णन मामले में समानता देख लेते हैं , भिन्नता नहीं, तब दलित और पिछड़ों की बेवकूफ़ी का खुलासा होता है ! जब तक दलित और पिछड़ा इतने rational न हो जाएं की court को प्रक्रियों और उनके तर्कों को न समझ ले, तब तक दलित और पिछड़े यह तथाकथित "भेदभाव" झेलते रहेंगे ! जो की वास्तव में तो दलित-पिछड़ों की बौद्धिक अयोग्यता होगी ! Justice कर्णन ने पहले तो एक गुप्त पत्र लिखा था , खु द सर्वोच्च न्यायालय की जजों को ही भेज दिया था ! जबकि प्रशांत भूषण के ट्वीट का मामला था । यानी भूषण ने सीधे आमआदमी (जनता) के समक्ष बात रखी थी, न की private पत्र में !! भूषण जनहित मामले के लिये जगप्रख्यात व्यक्ति हैं । दलित पिछड़ा वर्ग में देशहित, जनहित, इत्यादि के लिए ऐसे लड़ने वाला कोई शायद विरले ही मिलेंगे ! Justice कर्णन पहली बार जनता में नज़र ही आये जब उनको सज़ा सुनाई गयी । कर्णन जी ने सुनवाई के लिए सर्वोच्च न्यायालय के आमंत्रण तक को नकार दिया था , और सज़ा तो उनके इसके उपरान्त दी गयी। यानी कर्णन जी अडिग खुद ही नही थे, न ही लड़ने को तैयार थे ! court को प्रक्रियात...