बिगड़ती प्रजातान्त्रिक व्यवस्था का उपचार - शक्तियों का संतुलन

     भारत में प्रयक्ष या अप्रत्यक्ष रूप में हर जगह राजनीतिज्ञ ही नियंत्रण करते हैं| कभी यह तंत्र हमे धोखा देने के लिए 'नेता-विपक्ष' और 'नेता-सदन' नाम के दो अलग-अलग से प्रतीत होते व्यक्तियों का ज़िक्र कर देता है , कभी एक 'संसदीय-दल' का नामकरण कर लेता है -- मगर असल प्रकृति में रहेता एक ही है -- चुनावी प्रक्रिया से आया वह अयोग्य व्यक्ति जो की मात्र अंधभक्ति से प्राप्त लोकप्रियता से सब नागरिकों और संस्थाओं पर नियंत्रण करे हुआ है |
   संविधान के निर्माताओं ने यहाँ पर एक बहोत बड़ी भूल कर दी लगती है | आयरलैंड और अमरीका के संविधान से अनुकृत हमारे संविधान ने लोकतंत्र के ठीक वही पेंच गायब कर दिए है और एक भ्रमकारी, आभासीय प्रतिस्थानक लगा दिया है जिससे के प्रजातंत्र एक मुर्ख-तंत्र में परिवर्तित हो जाए |
    हम में से अधिकाँश व्यक्ति हमारे भारतीय प्रजातंत्र की कमियों को महसूस करते है --और इसका दोषी हमारी अंधभक्त, अल्प-शिक्षित जनसँख्या को मानते है | मगर एक अनभ्यस्त तर्क में समझे तो पता चलेगा की प्रजातंत्र का निर्माण ही अशिक्षा और गरीबी को मिटाने के लिए हुआ था ! यानी हम जिसे हमारे प्रजातंत्र की असफलता का कारक मान रहे है, इलाज तो उसी का करना था ! मर्ज को ही दवा की असफलता का कारक मान लेंगे तब फिर इलाज किस चीज़ का कर रहे थे !?? या तो दवा गलत ले रहे है या मर्ज बहोत प्रचंड है | भाई जब कहने वाले कहते है की भारतियों में सक्षमता तो बहोत है मगर कभी सफलता नहीं मिलिती है -- तब अर्थ साफ़ है -- कि दवा ही गलत ली जा रही है | मेरी समझ से हम भारतीय लोग नकली दवाइयों का शिकार हो रहे है -- अर्थात, यह प्रजातंत्र है ही नहीं , हालाँकि बेचने वाले इसे 'प्रजातंत्र' के कर ही हम नागरिकों में यह तंत्र बेच रहे हैं | यह 'राजनेता तंत्र' है -- जहाँ सब का सब राजनेता के हाथों में सरक चूका है |
       अमरीका में राष्ट्रपति की नियुक्ति सीधा चुनावों द्वारा होती है, और उधर ब्रिटेन में राजशाही बनाम संसद में शकित्यों का संतुलन है | अमरीका में फिर भी 'फ़ेडरल रिज़र्व' नामक संस्था उनके संसद , 'कांग्रेस" के विरुद्ध शक्ति-संतुलन का कार्य निभाती है | हमारे यहाँ भारत में कुछ भी स्वतंत्र नहीं बचा शक्ति-संतुलन के नाम पर | यदि सर्वोच्च न्यायलय, निर्वाचन आयोग , नियंत्रक लेखा निरक्षक और लोक सेवा आयोग को भारतीय                  संविधान ने 'स्वतंत्र' बनाने का प्रयास भी किया है तो भी ढांचा ऐसा रच गया है की राजनेता इन सभी पर भी एक दूर का अप्रत्यक्ष नियंत्रण कर ही लेते है | यह बार-बार होने वाली संवैधानिक त्रुटियाँ, घटनाएं इत्यादी इसी की और इशारा कर रही हैं की हमारा संवैधानिक ढाचा सही से रचा हुआ नहीं रह गया है | दैनिक घटनाओं को देखें तब पता चलेगा की प्रक्रियाओं में पर्याप्त प्रमाण है की यह राजनेताओं द्वारा नियंत्रित तंत्र बन चुका है |
नेता लोग मन-ही-मन यहाँ की जनता को असक्षम समझ कर मन मर्ज़ी करते है , सिद्धांतो के अनुसार कार्य व्यवस्था नहीं रखते हैं | और इधर हमारी जनता दिन-रात नेताओं पर क्रोध निकलती रहती है की उन्होंने देश को बर्बाद कर दिया है |

          इस पहेली के इलाज़ में हमे सर्वप्रथम एक पूरी तरह से राजनेताओं से स्वतंत्र संस्था बनाने पड़ेगी जहाँ से शक्तियों का संतुलन हो सके | विकल्प के रूप में या तो हमे राष्ट्रपति का निर्वाचन सीधा-चुनाव द्वारा करवाने की प्रक्रिया लेनी होगी, बजाये किसी संसदीय दल के द्वारा |
         शक्तियों का संतुलन बिगड़ जाना हमारे देश के समस्या का जड़ दिखाई पड़ रहा है | कहीं कोई एक है जो सब ही पर हावी हो रहा है| स्पष्ट है की वह वर्ग राजनेताओं का वर्ग है जो की सभी पर नियंत्रण का शिकंजा कसे हुआ है |
           नए स्वतंत्रता संग्राम का मक्साद यही होना चाहिए की एक स्वतंत्र संस्था की स्थापना हो --जो की राजनेताओं से मुक्ति दिलाये और शक्तियों को फिर से संतुलन में डाले की उनका आपस का मुकाबला बराबर का हो सके, किसी एक की हक में पहले से ही ज़मीन झुकी न हो |

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