तो क्या प्रजातन्त्र में अच्छाई और बुराई का फैसला सिर्फ चुनाव की जीत से तय होगा ?

For the long term preservation of the forces of good, the present system depends on the day-today electoral mandate.

ज्यादातर लोगों की logic के अनुसार समाज में बुरे प्रशासन या कर्म को रोकने का सही तरीका बस यही है कि समाज खुद ही अच्छे राजनेताओं को जीत दिला कर संसद में भेजें। कम से कम वर्तमान पीढ़ी का राजनैतिक वर्ग , और न्यायपालिका में ऊटपटांग निर्णय करते जज आपको यही विश्वास दिलाना चाहते है कि प्रशासनीक या संवैधानिक सुधार की बातें फिजूल है, क्योंकि अंततः बदलाव का केंद्र खुद समाज की चाहत होती है जो कि वह वोट के माध्यम से प्रकट करता हैं।

याद रहे कि यह लोग पूरी तरह गलत नही है। समाज की चाहत ही अंत मे केंद्र होती है अच्छे और बुरे के बीच के फासले को तय करने की।

इनकी गलती यह है कि यह सोचते हैं कि समाज बार बार,हर चुनाव से अच्छाई और बुराई के फासलों को तय करता है। सच यह है कि समाज सदियों में एक बार ही, किसी क्रांति के बाद ही इन फासले को तय करता है, जब वह क्रांति के बाद किसी सामाजिक , प्रशासनिक मूल्य का निर्धारण करता है, और उसको संरक्षित करने के लिये संविधान लिखता है। सवैधानिक प्रक्रिया दिन-प्रतिदिन के अच्छे बुरे के फसलों को तय करती है , उस आरंभिक संरक्षित मूल्य के मद्देनजर।

बस संवैधानिक प्रक्रिया सुदृण होनि चाहिए कि वह प्रतिदिन के अच्छी और बुरी ताकतों के बीच का मुकाबला बराबर के platform पर होने दे।

भारत मे यहाँ गलती हो चुकी है। हमारा संविधानिक ढांचा ही ऐसा चुस्त दुरुस्त नही बनाया गया था , जो कि अच्छाई और बुराई के संघर्ष में बुरी ताकतों के लिए कुछ ज़रूरत से ज्यादा लचर हो कर उनके पक्ष में आ गिरता है। इसीलिए इस संवैधानिक ढांचे के अंतर्गत अच्छाई की जीत अब असंभव हो चली है।

तो वर्तमान राजनैतिक वर्ग और न्यायपालिका में बैठे कुबुद्धी जजो का विश्वास इसलिए वर्तमान की संवैधानिक प्रक्रियाओं में कुछ ज्यादा बड़ गया है। उनको मालूम है कि लोग जितने ज्यादा संविधान में यकीन करेंगे, उतना आसान रहेगा बुरी ताकतों को संरक्षण मिलना ,क्योंकि संविधान खुद ही विफल है। जितना अधिक हम चुनाव पर निर्भर करेंगे अच्छाई और बुराई के मुकाबले के लिए, उतना आसान रहेगा वर्तमान पीढ़ी के राजनेताओं के लिए अपने को बचाये रखना।

हर समाज मे बस मुट्ठी भर ही अच्छे लोग मिलते हैं।।अब अगर प्रतिदिन की अच्छाई और बुराई के निर्णयों को हम सिर्फ election या वोट के भरोसे छोड़ देंगे तब तो फिर मुट्ठी भर चंद लोगों के भरोसे अच्छाई कभी भी नही जीत सकती किसी भी समाज मे । जाहिर है, संविधान को रचने में ही यह ख्याल रखना होगा कि नमक चुटकी भर अच्छाई को उसके कमज़ोर संख्या के बावजूद पर्याप्त समर्थन मिले कि जब भी वह चुटकी भर अच्छाई क्रियाशील हो तो विजय मिल जाये, उसको वोट की संख्या का मोहताज न बनना पड़े।

भारत के संविधान निर्माता यहां गलती कर चुके हैं। वह चुटकी भर की मात्रा वाले अच्छाई की ताकत को पर्याप्त समर्थन देने वाले संविधान का निर्माण नही कर सके।

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