बिकाऊ मीडिया के तौर तरीके
बिकाऊ , वैश्या समान आचरण करने वाली समाचार सूचना की व्यापारिक कंपनियां, अर्थात मीडिया, के बिकाऊ खबरों के तौर तरीके समझना एक रुचिकार विषय हो सकता है। बिकाऊ खबरे दिखाना कोई आसान काम नहीं होता है। इसमें सबसे बड़ी चुनौती होती है की एक विशाल दर्शक समाज के समक्ष झूठ बोलते हुआ हुए पकड़े नहीं जाना चाहिए। विशाल दर्शक समूह में तमाम तरह के व्यक्ति और नागरिक होते है जिनके खुद की जानकारी क्षेत्र विशाल और विस्तृत होते हैं। ऐसे में मीडिया का झूठ पकड़े जाने से बच सकना करीब करीब असंभव है। हाँ, मगर मीडिया को फायदा इस बात का मिलता है की अधिकांशतः किसी भी विषय वस्तु पर सच और सही सिद्धांत को जाने वाला बौद्धिजीवि समूह अक्सर करके छोटा पड़ जाता है, जिस सांख्यिकीक तथ्य के भरोसे मीडिया यह खेल खेलता है की जनता को कुछ पल के लिए भ्रमित करा जा सकता है।
You can't fool some of the people any time, you cannot fool all the people all the time, but you CAN definitely fool MOST of the people, for a long time.
"अश्वस्थामा मरो, नरो वा कुंजरो"।
बिकाऊ मीडिया के लिए सबसे आसान और सुविधाजनक तरीका है की झूठ मत बोलो, बस सच को जग जाहिर होने से रोक लो। यानी भ्रम फैला दो।
कभी-कभी बिकाऊ मीडिया को ठेका मिलता है उन विषयों पर भी जनता को बुद्धू बनाने का जिन पर जन जाग्रति पहले से ही विक्सित है। तब यहाँ प्रश्नबोधक या संदेहवादी होने की विद्या प्रयोग करी जाती है। मिसाल के तौर पर आजकल दिल्ली में केजरीवाल सर्कार और उपराज्यपाल के मध्य की तकरार को देखिये। जब सबको पता है की अफसरों की तैनाती का अधिकार को सीधे, प्रत्यक्ष और प्राकृतिक तर्कों में चुनी हुई सरकार का अधिकार होना चाहिए, तब ऐसे में मीडिया सच दबाने के लिए प्रश्नवाचक या संदेहबोधक बन जाती है और ऐसे व्यवहार से विषय की सूचना प्रसारित करती है जैसे की "क्या वाकई में अफसरों की तैनाती का अधिकार मुख्यमंत्री का होना चाहिए" !!!! बिकाऊ मीडिया जनता में पहले से जागृत स्पष्टता को कमज़ोर करने के लिए उसमे संदेह के बीज बोने का प्रयास करता है--
-- मानो की प्रजातंत्र में अभी भी कोई विकल्प उपलब्ध है की मुख्यमंत्री जनता के लिए जवाबदेह तो हो, मगर अफसरों की तैनाती उसका अधिकार नहीं माना जाना चाहिए !!!
तो बिकाऊ मीडिया की सूचना प्रस्तुति में भ्रम फैलाने की इस पद्धति को हम नाम दे सकते है प्रश्नबोधक आचरण (Enquire-some delivery)।
सच का सौदा करने के दूसरे तौर तरीके में विषय वस्तु के महत्त्व से छेड़खानी करके जनता को भ्रमित करने की पद्धति लगाई जाती है। तब बिकाऊ मीडिया जन रुचि की घटना को कम क्षणों में प्रसारित करते है, और किसी अन्य अल्प-महत्व घटना पर अधिक समय व्यतीत करते है। ऐसे में बॉलीवुड और क्रिकेट की चटपटी घटनाएं काम में लायी जाती है।
Campaigning यानि मोर्चाबंदी करने वाले समाचार चैनल इस मोर्चाबंदी के माध्यम से जनता का विश्वास बटोरने का प्रयास करते है। बाद में उचित दाम मिलाने पर इसी विश्वास के साथ घात करके यह लोग मुद्रिक फायदा कमाते हैं। ख़ास तौर पर अंग्रेजी समाचार चेनलों में आपको यह तौर तरीका दिखने को मिलेगा। अक्सर कर के यह चैनल किसी सामाजिक, और किसी निजी नागरिक के साथ घटी अन्यायपूर्ण घटना पर कोई campaign करते दिखाई देंगे। क्योंकि यह अन्याय प्रत्यक्ष है इसलिए ऐसे विषयों में जल्द विजय प्राप्त हो जाती है। बस campaigning के दौरान इतना ख्याल रखा जाता है की किसी अच्छे ग्राहक से दुश्मनी न हो जाये। फिर क्या है, एक बार जनता का विश्वास मिल गया तब फिर यह अच्छे दाम मिलने पर किसी और वक़्त बड़ी बड़ी घटनाओं को भी साधारण सूचना दिखा कर जन आक्रोश को नियंत्रित करवा देते हैं। यह निर्भया प्रकरण को तो दिखाएंगे, मगर पंजाब में घटी वैसी ही दूसरी घटना में चुप्पी कर लेंगे। पंजाब की घटना में वहां के राजनैतिक घरानों को व्यक्तिगत तौर पर दोषी पकड़ा जा सकता था, जबकि दिल्ली के निर्भया प्रकरण से वहां के तत्कालीन मुख्यमंत्री और पार्टी को सिर्फ एक राजनैतिक हानि ही हुई है। कल को यही पार्टी फिर से इन्ही बिकाऊ चेनलों को अच्छे दाम दे कर वापस छवि सुधार कर लेगी और वापस सत्ता में आ जायेगी।
तो संक्षेप में, बिकाऊ मीडिया ने पंजाब में अपने अच्छे संभावित ग्राहक को व्यक्तिगत दोष से बचा लिया, जबकि दिल्ली में अपने संभावित ग्राहक को अपनी क्षमता का प्रदर्शन करके अपने दाम बढ़ा लिए हैं।
"सुपाड़ी पत्रकारिता" करके एक और तरीके से मीडिया अपना धंधा चलाने में अभयस्थ हो गयी है। इस तौर तरीके में मीडिया को उसका ग्राहक पैसा देता है अपने विरोधी की जन छवि को ख़राब कर देने का। आज कल दिल्ली की आम आदमी पार्टी और उत्तर प्रदेश में समाजवादी पार्टी को सुपारी पत्रकारिता का शिकार बनते आराम से देख सकते हैं। आगरा शहर में एक महिला ने एक नेता की मेरसडीज़ गाडी के ऊपर चढ़ कर तोड़ फोड़ कर के अपमान का बदला लिया तो मीडिया ने महिला शक्ति के नाम पर उस नेता और पार्टी को दिन भर प्रसारण करके बदनाम किया, वही पंजाब में महिला बस में अभद्रता का शिकार हो कर मर गयी तो भी मीडिया चुप्पी मार कर महिला शक्ति को भुला बैठा। वही , जब बिकाऊ मीडिया के किसी बड़े ग्राहक दिग्गज नेता को जनता से झाँपढ़ या हिंसा हो तब इस घटना के वीडियो प्रसारण को रोक दिया जाता है, जबकि किसी दूसरा नेता जो की असंभावित ग्राहक हो, उसके साथ ऐसी घटना घटे तो उसे दिन भर सुपारी पत्रकारिता का शिकार बना दिया जाता है।
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