कूटनीति और 'कारण' बनाम 'भावना'

 (borrowed from the Internet)

कूटनीति यानी जनता से वोट बटोर कर शासन शक्ति को अपने स्वार्थ के लिए हड़पने वाली राजनीति 

इसमें अक्सर करके निर्णय के पीछे कारण नहीं होते हैं, बल्कि भावनाएं होती हैं। 

समझें तो, कूटनीतिज्ञ अपने निर्णय कभी तो किसी कारण पर आधारित करते हैं, और कभी भावनाओं पर। 

 और इन दोनो में से किसी एक आधार को चुन लेने की प्रेरणा केवल जनता के बड़े अंश को प्रभावित करके उनके वोट बटोर लेना होता है। कारण (यानी तर्क आधारित बात) हमेशा कूटनीतिज्ञों के निर्णय का आधार नही होती है क्योंकि वे जानते हैं कि वे लोग इतने बुद्धिवान नही होते है कि हमेशा कारणों से जनता के बड़े अंश पर प्रभाव जमा सकें।

 भावनाएं ज्यादा efficient होती हैं बड़ी आबादी पर प्रभाव जमाने के लिए। बढ़ी आबादी की जनता कारण पर सहमत नही करी जा सकती है। मगर भावना पर आसानी से बड़ी आबादी को किसी दिशा में मोड़ा(=बहकाया) जा सकता है।  

 तो राजनीति को समझने के लिए किसी भी कालखंड में संबद्ध समाज में बहती हुई भावना की टोह लीजिए। कूटनीति की परतें अपने आप खुलती चली जायेंगी और आपको समझ आने लग जायेगी। 

 यदि भावनाओं में कोई दुर्भावन आ जाए जिसके प्रयोग से कोई कूटनीतिज्ञ आबादी पर प्रभाव जमा रहा हो, तब अक्सर वो दुर्भावना को छिपाने के लिए इस पर कोई 'कारण' की चादर डाल कर उसे तापने की कोशिश करता है। और फिर आम व्यक्ति चकमा खा जाते हैं नकली 'कारणों' की भुलभुलैया में। 'कारण' जब नकली आधार होते है निर्णयों के, तब कूटनीतिज्ञ blackwhite thinking का मुजाहिरा करने लगते हैं, u turn मारते दिखाई पड़ते हैं, थूक-कर–चाट करने लगते है, निर्लज्जता से। पाखंड ऐसी कूटनीति का चरित्र बन जाता है। 

 तो भावनाओं के आधार से निर्णय लेने से वोट आसानी से मिलते हैं। मगर एक व्यापक देशहित की दृष्टि से  इसकी कुछ कमी भी होती है। ये कि भावनाओं पर तैरता जनादेश देश की व्यवस्था , न्याय को बर्बाद करने लगता है। समाज ऊंच–नीच, अपना–पराया करने पर उतर आता है। अनिश्चितता बढ़ जाती है। लोगों का भविष्य भाग्य की सूली पर झूलने लगते हैं , उसके हाथो में नहीं रह जाता है

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