राजा का असल धर्म दान दक्षिणा करना, या देशद्रोहियों को पहचान कर दंड देना नही होता है

ये सरकार व्यापारियों को सरकार है। व्यापारी लोग स्वभाव से ही न्याय के विचार से रिक्त होते हैं। वे अपने माल का दाम बढ़ाने के लिए सामाजिक औहदो की ऊंच नीचे का उपभोग करते हैं, उसका विरोध नही करते है। एक पर्स जो आम आदमी को सस्ते दामों में मिल सकता है, उसका दाम हजारों गुना महंगा हो जाता है मात्र ब्रांड बदल देने है। और ब्रांड का मकसद क्या होता है– खरीदार को अपनी सामाजिक हैसियत साबित करनी होती है समाज में। सोंचे तो ये विचार समानता के न्याय सूत्र के ठीक विपरीत है। 

तो फिर ऐसे ही व्यापारी राजा भी देश निर्माण को न्याय के सूत्र से बांधना नहीं जानता है। न्याय के अभाव के बदले में वो दान-दक्षिणा, परोपकार कर्म करके जनता को लुभा कर शासन करता है। 

सो, व्यापारी कभी भी देश को दीर्घायु शासन नही दे सकता, क्योंकि वो राष्ट्रीय एकता को प्राप्त नहीं कर सकता है। व्यापारी राजा के शासन के दौरान न्याय की कमी से उत्पन्न असंतुष्टों की कतार खड़ी होती रहती है, जो कि एक हद के बाद विस्फोट करके देश को भंग कर देती है, राष्ट्र को तोड़ देती है, जनता को आपस में लड़ाई करने पर आमादा कर देती है। 

व्यापारी और उसके समाज को राष्ट्रीय एकता के निर्माण में न्याय के सूत्र का महत्व नहीं पता होता है। वो समझता है कि प्रजा को जो कुछ चाहिए अपने राजा से, जो सेवाएं चाहिए होती है राज्य से, वो सब एक अच्छे राजा को दान-दक्षिणा के माध्यम से उपलब्ध करवानी चाहिए। व्यापारी के अनुसार यही राजधर्म होता है। ऐसी ही ऐसी तर्ज पर कि ब्राह्मण के अनुसार राजधर्म होता है मंदिर में नितदिन पूजा पाठ करना, आरती करना, रखरखाव और साफसफाई करना। क्योंकी ब्राह्मण के अनुसार ब्राह्मण धर्म भी तो यही कुछ होता है। 

जबकि, एक राजा का असली धर्म होता है न्याय करना।क्यों? राज्य की स्थिरता और दीर्घायु तंत्र की स्थापना के लिए  ताकि जनता में असंतुष्टि न व्याप्त हो। जनता में यह विश्वास कायम रहे विधि विधान सर्वोपरि होता है, स्वयं राजा से भी। तभी जनता अपनी एकता बनाए रखने के लिए प्रेरित होती है। विधि विधान और न्याय की सर्वोपरिता को प्रमाणित करने के लिए राजा को अपने सगे संबंधियों, संतान और बंधुओं पर भी न्याय का वही दंड चलाना पड़ जाता है, जो वो दूसरों पर चलाता है। ये होता है असली राजधर्म। राजा की गद्दी पर असली कठिन कार्य यह होता है। ऐसे ही कठिन विधान को स्थापित करने के लिए राजा रामचंद्र ने वो न्याय किया था जब उनको माता सीता का त्याग करना पड़ा था। त्याग करने का उद्देश्य मात्र ये विधान स्थापित करना था कि उनके राज्य में प्रजा में अनैतिक, कामग्रस्त निर्लज्ज अशिष्ट आचरण को स्वीकार नहीं किया जाएगा। 

अन्याय होते रहने देने वाला राजा दान–दक्षिणा करके प्रजा की हमदर्दी तो खरीद लेगा मगर केवल वो सब खुद की सुरक्षा के लिए होगी। जबकि ऐसा राजा लोगो को आपस में एक दूसरे पर आपसी विश्वास बनाने को प्रेरित नही कर सकेगा। उसके चले जाने के बाद, तुरंत, लोग एक दूसरे से शंका से ग्रस्त हो चुके, आपस में लड़ पड़ेंगे, देश के प्रति अपनी निष्ठा को भुला कर। जो कुछ भी वे अन्याय झेले होंगे न्याय से सुन्न राजा के शासन में, उनकी जो भी असंतुष्टि रही होगी, वे एक दूसरे से हिसाब चुकता करने को आमादा रहेंगे।


तो फिर सोचिए, एक राजा का असल धर्म क्या होता है? दान दक्षिणा करना? देशभक्त और देशद्रोहियों की पहचान करना? देशद्रोहियों को दंड देना? 

या फिर, न्याय करना? न्याय की सर्वोपरिता स्थापित करना?

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