उपभोक्तावाद और अगाध गरीबी

अगाध गरीबी हमारे उपभोक्तावाद सामाजिक-आर्थिक नीतियों की देन है। वरना भगवान ने जिन नियमों पर जीवन और प्रकृति को बनाया है, उसने प्रत्येक प्रकार के जीवन को उसके भोजन का प्रबंध हमेशा किया है।
   एक लघु हास्य हैं जो को वर्तमानकाल के व्यापारिक आचरण पर थोडा प्रकाश डालता है। एक चीन का नागरिक एक भारतीय व्यापारी के साथ बैठा था। तभी वहां एक छोटा कीड़ा आया। वह चीन के नागरिक का भोजन बन गया। फिर वह चीनि वहां से चला गया और दूसरा आ गया। तब एक और कीड़ा आया। भारतीय व्यापारी ने तुरंत उस प्राकृतिक उपलब्ध भोजन पर मुद्रा मूल्य ऐसे लगा कर चीन नागरिक की बेच दिया की मानो वह कीड़ा उसी व्यापारी की संपत्ति हो।
   कुछ ऐसा ही उपभोक्तावाद और आर्थिक शोषण नीतियां है आधुनिक प्रशासन में। जो जीवन यापन की आवश्यकताएं हैं वह प्रकृति ने सहज उपलब्ध करवाई है। मगर किसी खास के मुद्रिय लाभ के लिये या तो उसपर किसी व्यापारी ने अतिक्रमण कर लिया है जैसे की यह उसकी व्यक्तिगत संपत्ति है, या फिर उसे प्रकृति में ही प्रदूषित अथवा नष्ट हो जाने दिया है जिससे की उस वस्तु की सहज उपलब्धता कम हो जाये और फिर लोग उसके शुद्ध प्रकार को मुद्रा देकर खरीदने को मज़बूर हो जाएँ।
   समरण करें पूर्व वित्तमंत्री पी चिदंबरम के एक faux pas कथन को जब वह बोल पड़े थे की अब भारत में गरीबी नहीं रह गयी है, लोग यहाँ Mineral water पैसे से खरीद कर पीते है। बड़ा दुख़द और दार्शनिक निम्म कथन था यह। यह हमारी पूर्ण गलत आर्थिक नीतियों की मनोविज्ञान और मानसिकता को भी प्रत्यक्ष करता है की किस प्रकार के अर्थशास्त्र को वर्तमान प्रशासन समाज पर कायम किये हुए है।
   सहज उपलब्ध शुद्ध पेय जल जो की नदियां या भूमिगत स्रोतों से उपलब्ध है, हमने उसको या तो प्रदूषित हो जाने दिया है अथवा अत्यधिक खनन कर के समाप्त कर दिया है, और उसके बाद अब शुद्ध जल को अप्राकृतिक निर्माण के उद्योग और कारखानों को जन्म दे दिया है। उससे हम शुद्ध जल मुद्रा देकर प्राप्त करते है। तो ऐसे हमने अगाध गरीबी और भुखमरी को जन्म दे दिया है।
    भोजन के मामले में भी यही हाल किया है। प्राकृतिक सहज उपलब्ध जंगलों को नष्ट हो जाने दिया है, यह तथाकथित "विकास" और infrastructure के नाम पर, उद्योग, सड़क, और घर निर्माण के लिए। और साथ ही खेती के लिए प्राकृतिक उपलब्ध भूमि को भी अपनी उद्योगिक आवश्यकताओं के लिए अतिक्रमण कर लिया है। उसके बाद अगाध गरीबी को इंसान का आलस्य , "कामचोरी" इत्यादि बता कर अपने शोषण की प्रवृति को जगजाहिर होने से छिपा लिया है।
    आज काला धन हमारी आर्थिक नीतियों का मुख्य प्रेरक बन गया है। अधिकांश काला धन बैंक के माध्यम से संचालित होता है और मुख्यतः भवन निर्माण उद्योग में लिप्त है। यही लोग आज की प्रजातान्त्रिक प्रशासन के लाभकर्ता हैं। यह विज्ञापन और प्रचार के माध्यम में धन व्यय करके पहले तो प्रशासन पर नियंत्रण करते है, और फिर अपने लाभार्थ आर्थिक सामाजिक नीतियों को नियांत्रिक करते है। महानगरों में भवन करोंडो में बिक रहे हैं, अपनी वास्तविक निर्माण मूल्य से कई कई सौ गुना अधिक दाम में और वही उस काले धन के निवेश पर व्याज को उत्पन्न करते है जो की काला घन स्वामियों का शुद्ध लाभ होता है। अब इस उद्योग को कायम रखने के लिए आवश्यक भूमि उपयोग नीतियों को इसी प्रकार संचालित करवाते है की यह उद्योग कायम रहे। यानि जंगल, खेत, पर्वत, सागर -- सभी जगह पर मानवीय अतिक्रमण।
   ऐसी नीति तो अगाध गरीबी को जन्म स्वाभाविक तौर पर देगी ही। अब धन और मुद्रा के चक्र ने सभी सामाजिक आवश्यकताओं को अपने व्यूह में ले लिया है। जैसे, अच्छे समाज के निर्माण के लिए अच्छे, जागरूक, आत्म-बोद्ध नागरिक बनाने पड़ते है। जिसके लिए अच्छी, गुणवत्ता पूर्ण शिक्षा की आवश्यकता होती है। अच्छी शिक्षा अब 'अच्छे' स्कूलों से मिलती है- यानी जहाँ फीस "अच्छी" देनी पड़ती है। यहाँ "अच्छा" का भावार्थ स्पष्ट हो जाता है। कीमत, यानि मुद्रा मूल्य।
   रोग उपचार के लिए अच्छी औषधि और अच्छे चिकित्सक चाहिये। फिर से "अच्छा"।
 
  धर्म और व्यापारियों, उद्योगपतियों, पूंजीपतियों के समीकरण ने वर्तमान प्रजातंत्र को असफल समाज वाले पूँजीवाद में तब्दील कर दिया है। अब धार्मिक भावना खुद भी एक व्यापारिक वस्तु में बदल दी गयी है। एक तरफ जहाँ ये शासन शक्ति तक पहुचने का मार्ग प्रशस्त कर रही है, वही दूसरी तरफ इसमें से भी उद्योग निकल आये है जो की उत्पादों को विक्रय करके करोडो का कारोबार कर रहे है। आस्था के शीर्ष नमन का एक और सलग्न व्यापर और जन्म ले चूका है।
    उपभोक्तावाद वर्तमान काल की सामाजिक आर्थिक नीति का मुख्य दुर्गुण है। यह व्यापारिक उद्देश्यों और लाभ को पूरित करता है और इसलिए कायम है। यह प्रकृति को नष्ट कर रहा है, यह समाज से मानवता और मानवीय गुणों को नष्ट कर रहा है, यह मानव जीवन में हिंसा को प्रेरित कर रहा है। मगर इस प्रजातंत्र राजनैतिक व्यवस्था में यह बार बार प्रशासनिक नीतियों का संचालित कर सकने में सफल हो रहा है। हम, हमारी प्रशासनिक नीतिया, हमारा समाज प्रत्येक समस्या का समाधान एक नए उपभोक्तावादी आचरण में तलाश कर रहा है। यही दुखद और विडम्बना है। जो समस्या की मूल जड़ है, उसी को उपचार बनाने की कोशिश कर रहे हैं।

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