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Showing posts from November, 2012

परिवार-वाद में गलत क्या है ? - Part 2

      परिवार-वाद में गलत क्या है ? इस प्रश्न की एक पुनः समीक्षा पर यह बोध भी प्राप्त होता है की परिवार-वाद योग्यता को अपने आधीन करने में लिप्त रहता है / परिवार में से आये "राज कुमार " अपनी योग्यताओं की सीमाओं की अपने अंतर-मन में भली भाति जानते है / इसलिए वह अपने आस-पास मौजूद योग्य व्यक्तियों का दमन करने की बजाये उन्हें अपना सहयोगी (या "गुलाम") बनाने की रणनीति रखते हैं / येह सहयोगी उन्हें सीमाओं के बहार उठा कर रखने में उपयोगी होते है /       वैसे आपसी-सहयोग किसी भी अच्छे नेतृत्व का आधार स्तंभ भी होता है / इसलिए यह भ्रम हो सकता है की 'परिवार-वादी सहयोग' और 'आदर्श-नेतृत्व सहयोग' में क्या भेद होगा , या क्या अंतर होगा ? यह कैसे कह सकते हैं की 'परिवार-वादी सहयोग' किसी की पराधीनता के समान है ?      इस भ्रम का निवारण यह है की 'परिवार-वादी सहयोगी' एक आदर्श योग्यता से प्राप्त उन नीतियों और न्यायों को पालन नहीं करते जो उनके परिवार को अगला शासक, (= नेतृत्व ) बनाने में बांधा दे सकते है / तो परिवार-वाद के संरक्षण में एक ऐसी व्यवस्था का निर्माण

आधुनिक राजनीति में रंगे सीयार

रंगा सियार की कहानी बहोत चर्चित कहानी रही है / एक जाने माने लेखक , श्री राजेंद्र यादव जी ने भी "गुलाम" शीर्षक से सीयार की कहानी बतलाई है जो गलती से एक मृत शेर की खाल औढ बैठता है / जंगल के पशु उसे ही अपना राजा शेर खान समझने लगते हैं / रंगा सियार किस डरपोक और कायरो वाली मानसिकता से दिमाग चलता है और शेर और शेर जैसी बहादुरी का ढोंग कर के बडे-बड़े जानवर , जैसे चीता, हाथी और भालू पर "भयभीत बहादुरी" से हुकम चला कर शाशन करता है , यह "ग़ुलाम" कहानी का सार है / शेर की खाल के भीतर बैठा सियार आखिर था तो ग़ुलाम ही , इसलिए अकेले में भी मृत शेर के तलवे चाट करता था , जिससे उसमे ताकत का प्रवाह महसूस होता था /     राज-पाठ और शासन की विद्या का उसे कोई ज्ञान नहीं था , मगर मृत शेर की खाल उसकी मदद करती है , जब सब पशु उसके हुकम को बिना प्रश्न किया, बिना न्याय की परख के ही पालन करते हैं , और समझ-दार पशु भी 'दाल में काला' के आभास के बावजूद अपना मष्तिष्क बंद कर लेते है की जब जंगल का काम-काज चल रहा है तो व्यर्थ हलचल का कोई लाभ नहीं /     यह कहानी हमने अपनी दसवी कक्षा में प

लुभावना हास्य खतरनाक हो सकता है !

   हास्य को हम सभी लोग क्यों इतना पसंद करते हैं ? फेसबुक पर, टीवी पर, सिनेमा में ..जहाँ देखो वहां , करीब-करीब हर पल हर कोई हंसने और हँसाने की कोशिश कर रहा होता है / और जब यह प्रश्न उठता है की इतनी हंसी इंसान को क्यों चाहिए होती है, तब एक 'शब्द-आडम्बर तर्क' (=Rhetorical) में हम यही उत्तर देते हैं कि, "आज कल के जीवन में तनाव इतना बड गया है कि उस तनाव को कम करने के लिए हास्य की आवश्यकता पड़ती है /"    हास्य मनुष्य को प्रकृति का अनोखा उपहार है / मानव विज्ञानी (=anthropologist ) हास्य को मनुष्य की बौद्धिकता का सूचक मानते हैं , की जब मनुष्य को मृत्यु की सत्यता की ज्ञान हुआ तब हास्य ही मनुष्य का प्रथम प्रतिक्रिया बनी /     मगर आज के युग में यह इतना हास्य स्वयं कुछ रोगी सा हो गया है/ जीवन को तनाव मुक्त करने के नाम नाम पर जो कुछ भी उपलब्ध हो रहा है , वह या तो किसी का उपहास करता है , या तर्क हीन हैं / किसी भी सूरत में यह हास्य वह हास्य नहीं है जो ज्ञान , विवेक अथवा बौद्धिकता से उदगल करता है /      आलम यह है की एक पूरा-पूरा कल कारखाना , एक उद्योग , हास्य के नाम पर मनोरंजन

"विचार-संग्राहक संस्थान "(think-tank bodies ) का प्रजातंत्र में उपयोग

           प्रजातंत्र में निर्णयों को सत्य और धर्म के अलावा जन प्रिय होने की कसौटी पर परखा जाता है / यहाँ पर एक चुनौती यह रहती है की कोई निर्णय धर्मं और सत्यता की कसौटी पर खरा है यह कैसे पता चलेगा ? इस समस्या का समाधान आता है "विचार-संग्राहक संस्थानों "(think-tank bodies ) के उद्दगम से / हर विषय से सम्बंधित कोई विश्वविद्यालय या कोई स्वतंत्र संस्थान ( स्वतंत्र= अपनी आर्थिक स्वतंत्रता और पदों की नियुक्ति का नियम स्वयं से लागू करने वाला ) जनता में व्याप्त तमाम विचारों को संगृहीत करता हैं , उन पर अन्वेषण करता है , तर्क और न्याय विकसित करता है और समाचार पत्रों , टीवी डिबेट्स इत्यादि के माध्यम से उनको परखता और प्रचारित करता है /        तब इस तरह के संस्थानों दिए गए कुछ विकल्पों में "पूर्ण सहमती" (=consensus )वाले विचार को निर्णय में स्वीकार कर लिया जाता हैं / अन्यथा मत-दान द्वारा इन्ही विकल्पों से सर्वाधिक जनप्रिय वाले विचार को "आम सहमती " (= majority ) के निर्णय के साथ स्वीकार कर लिया जाता है / एक आदर्श व्यवस्था में अल्प-मती गुट (=minority ) को भी निर्णयों

प्रजातंत्र में मानवाधिकारों का उदारवादी स्वतन्त्रताओं से भ्रम

       प्रजातंत्र में मानवाधिकारों का पोषण और प्रोत्साहन किसी सदगुण विचारक की रचना नहीं है , बल्कि मानवाधिकारों की उत्पत्ति भी तर्क के खास संयोजन से होती है / गहराई में झांके तो पता चलेगा की जिन विचारों को हम अपने धार्मिक और कर्म-कांडी सदगुण से ग्रहण करते है , प्रजातंत्र में जब धर्म-निरपेक्षता विचार की अनिवार्यता आती है , तब धर्म-निरपेक्षता के भी तर्कों के ख़ास संयोजन से नागरिकों के दैनिक व्यवहार में इन सदगुणों की अनिवार्यता को समझा जा सकता है / यानी अगर आप नास्तिक भी हैं तो धर्मनिरपेक्ष प्रजातंत्र में आपको इन सदगुणों को किन्ही दूसरे तर्कों से गृहीत कर जीवन में पालन करना ही पड़ेगा / सदगुण जैसे की " बड़ों का आदर करो " को आम तौर पर एक रामायण से प्राप्त सदगुण मान कर जीवन में गृहीत करते है और क्यों-क्या नहीं पूछते / मान लीजिये की कोई नास्तिक है , तब क्या वह इस व्यवहार को अपनाने से विमुक्त होगा ? क्योंकि रामायण को तो मानेगा नहीं, और धर्म-निरपेक्ष प्रजातान्त्रिक व्यवस्था उसको विश्वासों और आस्थाओं की स्वतंत्रता देने के लिए बाध्य होगी की वह न भी माने तब भी वह सही है / ऐसे में अगर व

परिवार-वाद में गलत क्या है ?

परिवार-वाद (Dynasty) में  गलत क्या है ? क्या किसी राजा,  या फिर किसी  राजनेता  के पुत्र को महज इसलिए  मौक नहीं दिया जाना चाहिये क्योंकि वह  किसी राजा  या राजनेता की संतान है ?      साधारण मानवाधिकारो के तर्कों से यदि समीक्षा करें तब उत्तर मिलगा की परिवारवाद का समर्थन न करना मानवाधिकरो के उलंघन जैसा है / मगर इतिहास के अध्यायों से विषय पर सोंचें तब यह आशंका आएगी की व्यवहारिकता में परिवारवाद कितना बड़ा राजनैतिक और  संकट है /      परिवार को समाज की इकाई माना गया है / प्रत्येक परिवार को जान -माल की सुरक्षा और पारिवारिक एकान्तता प्रदान करवाना हर एक प्रजा-तांत्रिक व्यवस्था और हर 'संयुक्त-राष्ट्र' (the UN ) के सदस्य राज्य का कर्त्तव्य है  ऐसे / ऐसे में यह तर्क  भी पूर्तः स्वीकार्य है की हर व्यक्ति अपने जीवन का श्रम अपने परिवार के लिए ही तो करता है , और वह यही चाहेगा की उसके उपरान्त उसका स्थान उसके संतान लें /     मुद्दा है की क्या यह सदगुणी सत्य एक भ्रम तो  नहीं बन जाता है जब बात आती है की पिता का व्यवसाय समाज-सेवा थी , या कहें तो राजनीति थी / यह प्रश्न को समझ लेना जरूरी है की आप

उदारवादी तानाशाही में उदारवादिता का प्रजातान्त्रिक मूल के मानवाधिकारों से भ्रम

उदारवादी तानाशाही और प्रजातंत्र में भ्रम करने के स्रोत कुछ और भी हैं / जब लोग यह पूछते है की अगर वाकई एक भ्रष्टाचार -विमुख "जन संचालन प्रतिष्ठान" अगर अस्तित्व में आ जायेगा तो उनका जीना दुषवार हो जायेगा क्योंकि छोटी मोटी गलतियाँ तो सभी कोई आये दिन करता है , और ऐसे प्रतिष्ठान उनके इन छोटी-छोटी गलतियों पर भी सजा दे देगा , तब लोगो के मन में आसीन आज की "सरकारों" की उदारवादिता के प्रति  सम्मान  समझ में आता है / लगता है की लोगो को मानवाधिकारों की न तो समझ है न ही एक सच्चे प्रजातंत्र में उनके औचित्य की जानकारी / वह सरकारों की उदारवादिता के आधीन जीवन जी रहे होते है /       उदारवादी तानाशाही एक "सरकार" की भांती कार्य करती है , जो की लोगो को उनके अपराधो की सजा देने की ताकत रखती है , मगर उदारवादी बन कर ऐसा नहीं करती / लोग अपनी उदारवादी सरकार का साभार मानते हैं / परन्तु प्रजातंत्र में "जन संचान प्रतिष्ठान " होते है , जो की अपराधो को चिन्हित करते हैं, और उनके सजा तय करते हैं, मगर कोई व्यक्ति सजा की पात्रता पर है की नहीं यह न्यायलय तय करतें है / कुछ प्रजाता

a list of who-the-hell is low IQ, as per we the people.

'What is Intelligence' have seriously had only some inconclusive answers. Gadkari's gaffe has brought out how people think about intelligence. More than questioning about intelligence, IQ or their own disposition on their intelligence, people have chosen the idea around Intelligence to point what they considered was not intelligent in the entire gaffe. Here is a list of how and what people think is unintelligent:  1) Intelligence is problem-solving ability, and Dawood is no problem-solver for society. Vivekananda was. 2) Indian police and establishment is low IQ to have failed to catch dawood despite a big establishment. 3) Gadkari has been low IQ to have broached the issue at such wrong time of his. 4) Indian people are low IQ to be repeatedly re-electing between Congress and BJP. 5) gadkari is low IQ to be commenting on IQ of people without even knowing ABC of what is IQ and what is Intelligence. BJP is unfortunate to have such a person as their head. 6) media is

"स्ट्रा-मैन आर्ग्युमेंट" क्या होते है ?

" स्ट्रा-मैन आर्ग्युमेंट "  अंग्रेजी में उस श्रेणी के तर्कों का कहा जाता है जिसमे प्रतिस्पर्धी एक साजिश के तहत अपने विरोधी के तर्कों को सही उत्तर न दे सकने की परिथिति में एक अन-उपयोगी या किसी कमज़ोर तर्क को उसका "असली' तर्क बतला कर उनका सटीक उत्तर दे देता है/ जो लोग इस वाद-विवाद को सही और लगातार नहीं देख रहे होते है उनको लगता है की भई विरोधी के तर्क का एक सही-सही जवाब तो दिया ही है , अब विरोधी  इनको क्यों  परेशान कर रहा है / "स्ट्रा-मैन" का अर्थ होता है फाँस का बना मानव , जिसको अक्सर खेतों में लगाया जाता है  चिड़ियों की भगाने के लिए /  कुछ तीव्र बुद्धि लोग अगर उसकी इस चलंकी को पकड़ भी लेते है , "की आपने जवाब तो उस प्रश्न का दिया ही नहीं जो आपसे पुछा गया था ", तब भी वह प्रतिस्पर्धी एक मत-विभाजन करने में कामयाब तो हो ही जाता है / किसी भी राजनीतिग्य को मत-विभाजन से बेहतर और क्या चाहिए / मत-विभाजन से ही तो राजनीति आरम्भ होती है / तभी तो मत दिए जातें है, जब मत-दान होता है / 

भाषा परिवर्तन की मिथ्या में खोता हुआ विवेक

भाषा के महत्व को क्या कभी भी कम आँका जा सकता है / भाषा का मनुष्य के विकास में जो महत्त्व है उसकी जितना भी चर्चा करें वह कम होगी / मगर दुखड़ा तब होता है की हम सारा का सारा श्रेय भाषा को देने की भूल कर बैठते है / भाषा के अलावा मनुष्य के विवेक की चर्चा होना भी उतनी ही जरूरी है / तर्क में अक्सर भारतीय यहाँ पर भ्रमित हो जातें है / ठीक है एक वस्तु, भाषा , बहोत महत्वपूर्ण  है  , मगर ऐसा नहीं की भाषा अकेला ही सारा कार्यभार संभाली हुयी  है   / तर्क संवाद , और स्कूली वाद-विवाद प्रतियोग्तायों में अक्सर यह तर्क -भ्रम देखने को मिलता है / ख़ास तौर पर जब अंग्रेज़ी में यह तर्क-संवाद प्रतियोगिता आयोजित करी जाती है / इंग्लिश भाषा की अध्यापक( अथवा अध्यापिका ) प्रतियोगियों को सिर्फ उनकी अंग्रेज़ी बोलने की काबलियत पर ही अंक दे कर पक्ष और विपक्ष के बीच में न्याय कर देते हैं / वाद-विवाद प्रतियोगितायों में न्याय करने के मुख बिन्दुओं में प्रत्योगियों की तर्क को समझाने की बुद्धि, उसको सुलझाने की और उनमे छिपे चुनातियों को चिन्हित करने, उनके निवारण करने की काबलियत को देखना चाहिए /  इंग्लिश में संवाद करने की इच

शिस्टाचार कभी भी तर्क विहीन नहीं हो सकते

      सदगुण , शिष्टाचार तो कभी-कभी ऐसे सुनाई देते हैं की मानो यह सिर्फ विश्वास और आस्था से उदित है, इसलिए सांस्कृतिक कर्त्तव्य है, और इनमे तर्क दूड़ना अपराध होगा / शिष्टाचार का अनुस्मरण तो आजकल कुछ ऐसे ही करवाया जा रहा है / "आज कल इस देश में राजनीति की भाषा ऐसी बदल है , इतनी गन्दी हो गयी है की लोग एक दूसरे पर कीचड उछाल रहे हैं " ! / "कुछ लोग बिना प्रमाण के कुछ प्रतिष्ठित लोगों पर बे-बुनियाद आरोप लगा रहे हैं "/ "सार्वजनिक जीवन में अपने विरोशी के प्रति ऐसे शब्दों का प्रयोग उचित नहीं हैं "/     अन्धकार में करी जाने वाली भारतीय राजनीति में कुछ शिष्टाचार की आस्थाओं का भी खूब प्रयोग हुआ है / जैसे की , अपने राजनैतिक विरोधी के चरित्र पर हमला करना एक अच्छा "शिस्टाचार" नहीं है (यानी की शिस्ट-आचरण नहीं है ) / क्यों नहीं है, किन सीमाओं के भीतर में नहीं है , इस पर तर्क करना ही अपने आप में बेवकूफी समझ ली गयी है / क्यों न हो, भारतीय सभ्यता में "सभ्यता" इतनी अधिक है की समालोचनात्मक चिंतन का आभाव बहुत गहरा और गंभीर है / यहाँ विश्वास अधिक महत्व पूर्ण

भारतीय राजनीति और भारतीय संस्कृति में समालोचनात्मक चिंतन का आभाव

भारतीय राजनीति पूरी तरह समालोचनात्मक चिंतन के अभाव पर ही टिकी हुई है/ भारतीय राजनीति ग्रामीणयत से निकली है और आगे नहीं बढ़ी है / लोग अकसर यह विवाद करते हैं की ग्रामो और शहरों में क्या अंतर होता है / और फिर एक साधरण उत्तर में यह जवाब मान लेते है की अंतर है की शहर के लोग पढ़े-लिखे होते हैं और गाँव के नहीं/ और फिर गाँव वाले लोग, या जो गाँव का पक्ष ले रहे होते है वह बताने लग जाते हैं की उनके गांवों से कितने कितने पढ़े-लिखे लोग कहाँ-कहाँ शीर्ष पदों पर विराजमान है /     अंतर एक भीतरी भेद में इसी समालोचनात्मक चिंतन का है / जानकारी का आभाव, जानकारी को क्रमित करने के तरीको के ज्ञान का अभाव, -- ग्रामीणयत कई तरीके से भारत को पिछड़ा देश बनाई हुई है / भाषा ज्ञान के दृष्टि से भी देखें तो पता चलेगा की ग्रामीणयत की दिक्कत आती है वाक्य में 'तथ्य' , 'आरोप', 'विश्वास' और 'संदेह' को चिन्हित करने में /    और फिर वाद-विवाद के दौरान ग्रामीण मानसिकता भ्रमित होने लगाती है / भारतीय राजनीति में भी जब आरोप-प्रत्यारोप का दौर शुरू होता है तब भारतीय जनता ऐसे ही भ्रमित होती है / उ