राजसी सेवा से सरकारी नौकरी तक में उलटी गंगा का निर्माण : प्रजातंत्र से मूर्खतंत्र का सफर

प्रजातन्त्र का आरंभ हुआ था जनता द्वारा राजा और उसके मुलाज़िमों के जुल्म से मुक्ति से संघर्षों के दौरान।
मगर भारत मे सब कुछ उल्टी गंगा हुआ पड़ा है। यहाँ प्रजातन्त्र का असली भोग तो राजा के मुलाज़िम , यानी नौकरशाही, ही कर रही है। देश मे सबसे बेहतरीन नौकरी - नागरिक कर्तव्यकारी टैक्स के पैसों से निकलती तन्ख्वाह, नौकरी में परम संरक्षण, स्वतः वार्षिक वृद्धि, वगैरह।

खुद से सोचिए, क्या इस देश मे किसी भी प्राइवेट सेक्टर की नौकरी में ऐसे मज़े हैं ?

नहीं, न?

प्राइवेट सेक्टर की नौकरी जोखिमों से भरि हुई है। बॉस की चालपूसी, हां में हां मिलाना, शोषण और उत्पीड़न वाले आदेशों को मानना, अधिकारों वाले कानूनों का तो गलती से आफिस में ज़िक्र भी नहीं करना,
यह होती है प्राइवेट सेक्टर कि नौकरी।

तो यह उल्टी गंगा हुई कैसे?

 संविधान निर्माताओं में शायद समाज के आर्थिकी चक्र के ज्ञान और चेतना कमज़ोर थी। वह राजसी सेवा (सरकारी नौकरी) और पेशा ( व्यवसाय ) के बीच अंतर का ज्ञान नही रखते थे।उनका पूरा का पूरा ध्यान सामाजिक न्याय पर लगाये हुए थे , क्योंकि राजसी सेवा में निवास करती शासन शक्ति की ओर ही उनका ध्यान था। उनका बस एक-दृष्टि ध्यान यही था कि राजसी नौकरी में उनका भी अंश सुनिश्चित कर लिया जाए आरक्षण नीति के माध्यम से। उनके अनुसार ऐसा करने से सामाजिक न्याय प्राप्त हो सकता था।

परिणाम स्वरूप वह राजसी सेवा के बढ़ते हुए कद को अनदेखा करते ही रहे हैं, और व्यवसायों को श्रमिक कानून के हवाले छोड़ दिया। साथ मे लेखन कार्यवाही से राजसी सेवा को जनचेतना में समाज की सेवा या देश की सेवा का व्याख्यान तो दे दिया, मगर कानूनी किताबों में राजसी सेवा को दिया गया कानूनी (राजसी) संरक्षण बरकरार रख छोड़ा।

बस। उल्टी गंगा बहना शुरू हो गयी देश मे। वर्तमान प्रजातन्त्र में आम आदमी शोषण और उत्पीड़न की नौकरी करता है, और असली भोग और मज़े सरकारी नौकर करते हैं, टैक्स के पैसे पर 😲🤔।

इंटरनेट पर कभी citehr नामक वेवसाइट देखिये, जो कि श्रमिकी और मानव संसाधन विषयों पर सबसे प्रचलित वेवसाइट में है।
यहां हर एक श्रमिक विषय पर दो विरोधाभासी तर्क बहोत उच्च कोटि अंग्रेज़ी भाषा मे लिखे हुए पढ़ने को मिल जाएंगे। मतलब यदि आप गलती से भी किसी एक तर्क को पढ़ कर प्रभावित हो कर जोश में कुछ भी कहेंगे, तो कुछ ही मिनटों में धूल चाट जाएंगे क्योंकि अगले कुछ मिनट में उस तर्क का उल्टा तर्क भी उतनी ही शक्तिशाली तरीके से प्रस्तावित हुआ मिल जाएगा।
😜😃

यह भारत के प्रजातन्त्र की जमीनी दास्ताँ है। यहां common standards नही है कानून में । कानून के उच्चारण को coma और apostrophe या full stop के माध्यम से आसानी से हर कोई अपने अपने ढंग से करता है। कानून निर्माता यानी विधायिका की मंशा का किसी को पता ही नही है, क्योंकि कानून तो वास्तव में आयात करके बनाया गया है,संसद में महज़ टेबल पीट देने से। संसदीय बहस या सामाजिक/धार्मिक मूल्यों के व्याख्यान नही किये गए हैं। इसलिए कानून के उच्चारण के असल बिंदुओं पर तो कानून अकसर ख़ुद ही गुमशुदा है , कुछ भी निदान नही देता हुआ। तो सभी दिग्गज मनाव संसाधन प्रबंधक अपनी-अपनी राय से कानून को उच्चरित करके अपने अपने संस्था में लागू करते रहते हैं।
यह हालात हैं आम आदनी के प्रजातन्त्र के। जो कि बाकायदा संविधान की छत्रछाया में ही हो रहा है।
इधर नौकरशाही इतनी विलास में है, राजसी संरक्षण के संग कि यदि लापरवाही से नागरिकों की जान भी चली जाए तो भी एक भी नौकरशाह की नौकरी पर फर्क भी नही पड़ता।
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अधिकांश मानव संसाधन प्रबंधकों के ज्ञान के अनुसार छुट्टी यानी अवकाश किसी कर्मचारी का कानूनी अधिकार नही है। यानी अगर मालिक या बॉस ने छुट्टी नही दी, तो फिर छुट्टी पर नही जाया जा सकता है।
🤔
देश मे ऐसे दिग्गज मानव संसाधन शास्त्रियों की शुमार है आधुनिक प्रजातन्त्र के अंदर। या शायद यह मानव संसाधन के शैक्षिक पाठ्यक्रमों के स्तर है।
मगर वही कुछ ऐसे भी दिग्गज मानव संसाधन शास्त्री है जो कि बताएंगे कि अवकाश भी कर्मचारी के भुगतान का ही अंश है, और इसलिए उसकी तनख्वाह की ही तरह उसका अधिकार है। मालिक की अनुमति तो महज एक easement है अधिकार को भोग करने के मार्ग में।

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