नौकरशाही अधीनस्थ समझौते में रहती है राजनेताओं के संग
यूपी पुलिस इत्मीनान से बोलती है कि वह गौहत्यारों को पकड़ने की प्राथमिकता रखती है।
अब बात को समझने के लिए न ही कोई "UPSC की तैयारी" वाला हदों का ज्ञान चाहिए, न ही कोई राकेट साइंस लगेगी की राजनेताओं और नौकरशाह के बाच में शक्ति-संतुलन किस ओर झुका हुआ है, और क्यों और कैसे ऐसा हुआ है।
यह पहली बार नही है पुलिस या किसी नौकरशाह की खुद 'कर्तव्य परायणता" की इज़्ज़त खराब हुई है राजनेता के आगे। इससे पहले उन्नाव कांड में एक साल लग गए FIR ही दर्ज करने में। कठुआ में यही "कर्तव्य परायणता "की इज़्ज़त लगी थी पुलिस की। सुनन्दा केस में सब छुट्टी पर भागने के चक्कर मे लगे रहे। dk ravi कर्नाटका IAS कांड में यही दिखा। सोहराबुद्दीन कांड और गुजरात के हालात तो पूछिये ही नही।
जब पुलिस या कहें तो पूरी नौकरशाही का मुखिया- भारत का राष्ट्रपति- खुद ही एक पांच वर्षीय नौकरी वाला कोई पुराना, मार्गदर्शक मंडल वाला राजनेता हो, और उसके पद का चुनाव भी संसदीय लोगो को हाथों में बागडोर हो-- तो नतीजे यही मिलना तयशुदा है।
अब यह गड़बड़ खुद संविधान में ही बोई हुई है।
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