संविधान के ढांचे में ही गड़बड़ होने से नौकरशाही बन जाती है अल्लाद्दीन का चिराग
एक बार यदि हम इस सच को समझ लें की गड़बड़ी के बीज संविधान में ही बोये हुए हैं, और वह क्या हैं,
तब इस सच के ग्रहण से अलग ही logic और विचारधारा प्रफुल्लित होने लगेगी, जिसके अलग ramifications होंगे। उदाहरण के लिए, आप केजरीवाल जी से लोकपाल की मांग को किनारे रखने की बात सहर्ष करने लगेंगे।।आप को समझ आ जायेगा कि अगर सिसोदिया जी को यूँ ही स्कूलों का निर्माण और जैन जी को मोहल्ला क्लीनिक खुलते देखना है तो एकमात्र तरीका यही हैं की इन लोगों को सत्ता में बनाये रखने के लिए वोट दो। आप यह भी समझ जाएंगे की मात्र निर्माण हो जाने से सिसोदिया जी के स्कूल और सत्येंद्र जैन जी के क्लीनिक देश निर्माण में योगदान देंगे यह आवश्यक नही है। क्योंकि जब भी सत्ता पलटेगी, वापस इनको ध्वस्त भी आसानी से किया जा सकता है।
यह सब भारत के संविधान के चौखटे में हो रहा है। यहाँ निर्माण से ज्यादा आसान है ध्वस्त कर देना। यहां नौकरशाही एक लावारिस पड़े अल्लादिन्न का चिराग की तरह है, जिसकी मर्ज़ी ही अंतिम सच है जो कि कुछ भी काम को हो जाने का तिलिस्मी भ्रम प्रदान करता रहता है आदमियों की आँखों में। सच यह है कि चिराग के जिन्न की मर्ज़ी है वह कोई काम कर दे, और अपने अगले मालिक की मांग आने पर वापस उसी काम को undo कर दे !
संविधान एक विशाल चौखटे की तरह है जिसके भीतर ही सब घटने वाला है। आप जब यह समझ जाएंगे की असल में कुछ नुकीली कीलें तो चौखटे में ही धंसी हुई है, तो शायद आप अन्ना जी को भी यही सलाह देंगे की अब 2019 में दुबारा कोई आंदोलन नही करे "लोकपाल, सौर-मंडल पाल" के लिए क्योंकि इस संविधानिक चौखटे में ऐसा कुछ कभी भी काम करने वाला ही नहीं है। अगर करना ही है तो अन्ना जी सबसे प्रथम तो संविधान में ही बदलाव के लिए जनता को जागृत करें। मगर ऐसी कुछ भी मांग के आंदोलन से अन्ना जी का मज़ाक ही बन जायेगा। अम्बेडकर समर्थकों के लिए ऐसे आंदोलन कभी भी हलाक के नीचे नही उतरने वाले हैं।
संविधान में ही गड़बड़ है, इसके एहसास आ जाने से आप को शायद यह भी समझ आ जायेगा की भारत में कुछ भी भली कामना करने के लिए एकमात्र तरीका है की आप खुद सत्ता में जैसे भी,-जोड़तोड़ करके- पहुंचे और फिर उसे लागू कर दें। लेकिन यह भी हमेशा याद रखना पड़ेगा की वह भली इच्छा की जन-नीति बस तभी तक जीवित रहेगी जब तक आप सत्ता में हैं। अगला आयेगा तो वह अपने जैसे नीति चलायेगा। स्थायी बस वही रहने वाला है जो की नौकरशाही के व्यक्तिगत लाभ को नष्ट न करे, उनको विचलित और परेशान न करे। वरना बाकी सब को नौकरशाही जानती है की वह आसानी से "संभाल लेगी' क्योंकि सब कुछ तो क्षणभिंगुर है भारतीय सविधान के ढांचे की कलाकारी के चलते।
सविधान के ढांचे में ही कील और छिद्र जड़े हुए है, यह समझने से आप शायद यह भी समझ जाएंगे की निष्पक्षता भारतीय संविधान के ढांचे की logic के अनुसार एक मूर्खता है। यहां इस ढांचे में जीने की कला यही है की किसी न किसी पार्टी से जुड़े रहे। वरना फिर सभी पार्टियों से जमाये रखने से ही निष्पक्षता का एहसास मिल सकता है। राजनैतिक निष्क्रियता में रहते हुए निष्पक्षता आसान नही है। क्योंकि अनजाने में आप संविधान विरोध को समर्थन दे बैठने की गलती कर सकते हैं।
तो फिर आप यह सच स्वीकार करना सीख जाएंगे की आपको भाजपा या कांग्रेस में से किसी एक को चुनना ही है। तीसरे विकल्प आपको संविधान विरोध की ओर ले जा सकता है, जो की खुद यहां की जनता ही आपको समर्थन नही देगी।
तीसरे विकल्प का अस्थायी उत्थान संभव तो है मगर इन प्रथम दो विकल्पों की कृपा से ही हो सकेगा अगर इन्होंने उसे पनपने का मौका दिया , तो। वह भी एक निश्चित हदों तक ही उठ सकता है, ज्यादा आगे नही।
संविधान का ढांचा की कलाकारी है ही ऐसी की यहां आप बस "आशा के दीप" जला कर ही चल सकते हैं, अगर आपने "जागृति का प्रकाश" फैलाने की कोशिश करि तो आपको यह संविधानिक ढांचा ही ध्वस्त कर देगा। कहने का मतलब है की हर केजरीवाल के विरुद्ध एक नजीब जंग और अनिल बैजल बैठा है उसे छकाने के लिए। और जो मस्ती में है वह है रोबेर्ट वाड्रा से लेकर अमित शाह , चिदंबरम और बाकी सब। यह सब होने के पीछे की कलाकारी संविधान में है की शक्ति संतुलन का जंजाल कैसे बिछाया गया है।
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