राजनीति से ऊपर उठाने की ज़रूरत सिर्फ नेता नही, जनता की भी है

👆👆✍

यह ऊपर लिखा मैसेज व्हाट्सएप्प पर कही से त्वरित हो रहा है।

अगर बात सच भी है, तो भी एक बात हर एक भारतीय को सोचनी चाहिए। *वह यह कि हम लोग कब तक ऐसी नाकामियों को कभी भाजपा का और कभी कांग्रेस पार्टी की नाकामी सिद्ध करने में अपना दम लगते रहेंगे?*

ऐसी नाकामियां किसी राजनैतिक पार्टी की नही, देश की होनी चाहिए जब देश में महंगाई ताबड़तोड़ बढ़ती जाए और एक दिन बैंकिंग प्रणाली का भी भट्टा बैठ जाये तो। अगर यह सब गुज़र जाए तो हमे राजनैतिक पार्टी की व्यवस्था से ऊपर उठ कर अपने तंत्र का मुआयना करने पर ध्यान देना होगा क्योंकि तंत्र तो दोनों ही पार्टियों को एक समान मिला था। तो फिर कैसे तंत्र खुद में विफल हो गया कि ऐसी चालबाजी करने में भाजपा अकेली, या कांग्रेस पार्टी अकेली, या की दोनों ही पार्टियां आपसी किसी मिलिभगति मे सफल हो गयी? आखिर खामियाजा तो भारत के नागरिक की जेब से जाएगा? आर्थिक स्वतंत्रता ही तो राजनैतिक स्वतंत्रता और जीवन मुक्ति का प्रथम गणतव्य स्थल होता है। जब इतनी बड़ी आर्थिक त्रासदी घटती है तब ही हम सब लोग आर्थिक ग़ुलाम बनते है , और तब हम और ज्यादा भाजपा-दोषी-कांग्रेस-दोषी के खेल में फँसते है। हमारी मुक्ति के द्वार और अधिकः बंद हो जाते हैं।

क्या आपको पता है कि कमलनाथ जो कि कांग्रेस पार्टी की ओर से मध्यप्रदेश के मुख्यमंत्री मनोनीत हुए हैं, वह सन 2011 में देश के सबसे अमीर कैबिनेट मंत्री घोषित हुए थे , और उनकी संपत्ति $59million की आंकी गयी थी?
यह सब तब है जब कमलनाथ सिर्फ राजनीति करते हैं, कोई पेशा, उद्योग या व्यापार नही !

_-_-_-_-_-_-_-_-_-_-_-_-_-_-_-_-_-_-_-_-_-_-

आदर्श और सैद्धांतिक दॄष्टि से समझे तो फिर संविधान जो भी राजनैतिक ढांचा बनाता है, वह चिरंतर रहता है। राजनैतिक पार्टियों को उसके भीतर रहते हुए जनकल्याण के काम करने चाहिए।

तो ढांचे की खुद की जिम्मेदारी होती है कि वही सुनिश्चित करता रहे कि पार्टियाँ जो कि सरकार में रहें, काम वह जनकल्याण का ही करें।
अगर गौर से देखें तो इसी मूल उद्देश्य से ही तमाम और सिद्धांत निकलते हैं जो आधार देते हैं संसद नाम की संस्था को बसाने के, उसमे दो सदनों को बैठाने के, उनके कार्यकाल की अवधि और प्रक्रिया देने में, न्यायापालीका को जुडिशल review की शक्ति देने के, किसी बिल को विधान बनने तक के सफर का मार्ग निर्धारण करने का।

अब अगर इतना होने के बावजूद अगर जनकल्याण के काम हो नही पा रहे हैं, जन प्रतिनिधि दिनबदिन ताबड़तोड़ अमीर हो रहे हों, और बैंकिंग प्रणाली, पुलिस प्रशासन प्रणाली, सब के सब यूँ ही विफलता के सूचक चमकाते रहे,

तो क्या अभी भी समझदारी यह है कि हम इसे कांग्रेस पार्टी या भाजपा पार्टी का संवैधानिक तंत्र को चकमा देना समझ लें?

आखिर सोचने की बात है कि कहीं हम कांग्रेस-भाजपा-कांग्रेस के कुचक्र में तो नही फंस चुके हैं, और अन्तत अपने ऊपर टैक्स के बढ़ते बोझ, प्रणालियों का ठप्प होना, प्रशासन का आदमखोर होते रहने बस बेवकूफी में देख रहे हैं, कभी भाजपा तो कभी कांग्रेस की विफलता मान कर।

सोचिए। छिछली दल गत राजनीति से ऊपर उठ कर, संवैधानिक तंत्र की खुद की काबलियत के कोंण से।

Comments

Popular posts from this blog

The Orals

Why say "No" to the demand for a Uniform Civil Code in India

About the psychological, cutural and the technological impacts of the music songs