प्रशासनिक लापरवाही : गोरखपुर अस्पताल हादसे से बनारस पुल हादसा और अब अमृतसर रेल हादसे तक का सफर

गोरखपुर अस्पताल हादसे से बनारस पल हादसे तक क्या कोई जिम्मेदारी तय हो सकी? यदि नहीं, तो फिर तो अमृतसर ट्रैन हादसा तो बस एक कड़ी है, और न जाने ऐसी कितनी और कड़ियाँ अभी तो घटना बाकी है।

क्या आपने कभी मंथन किया है कि क्या होता है उस समाज मे जिसमे लापरवाही के लिए किसी की जिम्मेदारी तय नही होती है।

अरररे, मगर एक मिनट -- जिम्मेदारी तो तय हुई है एक केस में - मुख्य न्यायधीश रंजन गोगोई असम गए किसी मंदिर में दर्शन के लिए, और वहां हुई उनकी सुरक्षा की चूक में तुरंत जिम्मेदारी तय होते हुए एक आईपीएस अधिकारी को निलंबन किया गया।

मगर फिर गोरखपुर हादसे में कैसे किसी डॉक्टर कफील को पकड़ा गया था, जिन्हें की बाद में कोर्ट से बरी किया गया ?
या फिर की बनारस पुल हादसे में सवाल तो उठे ,-- मगर कॉन्ट्रेक्टर पर, --और बाद में तो वह भी बरी रहा।

तो फिर कब और कैसे तय होता की मुख्य न्यायाधीश की सुरक्षा चूक में तो कोई आईपीएस अधिकारी की जवाबदेही थी, मगर गोरखपुर अस्पताल हादसे में समय पर ऑक्सिजन सिलिंडर मुहैया नही करवाने के लिये, या फिर बनारस पुल हादसे में जिला या राज्य प्रशासन में बैठा कोई भी लोक सेवा स्तर का अधिकरी की जवाबदेही नही बनती है?

सच यह है कि जवाबदेह तय किया जाना तो वास्तव में शब्दों का खेल होता है। प्रशासनिक शक्ति के मज़े लूटते लोक सेवा के अधिकारियों को यह बात अच्छे से पता हैं जनता में अपना खुद का चैतन्य कमजोर है , और इसलिये *मार्केटिंग* रणनीति से सवालों को उठवा कर ज़िमेदारी और जवाबदेही के केंद्र को मनवांछित तरीकों से बदला जा सकता है। अधिकारियों की दिक्कत बस यह है कि वह यह खेल किसी चैतन्य विहीन , शक्ति विहीन जनता के साथ कर सकते है, मुख्यन्यायाधीश के साथ नही। इसलिए उसकी सुरक्षा चूक में तुरंत वह लपेटे जाते हैं।

लोक सेवा अधिकारियों के बीच संदेश शायद साफ है-- चाहे लाखो , हज़ारो नागरिक मर जाएं, मगर इस देश में कानून और प्रशासनिक तंत्र का जंजाल ऐसा बुना है कि एक भी लोक सेवा अधिकरी की नौकरी पर आंच नही आएगी,
बस मगर किसी और अपने से ऊपर के पद के अधिकारी की सेवा में कोई चूक नही आनी चाहिए, वरना आपकी नौकरी पर गाज गिर जाएगी।

ज़िम्मेदारी और जवाबदेही तय करना , यदि जांचकर्ता अप्रशिक्षित हो और खुद भी भीषण व्यक्तिनिष्ठ भावों से ग्रस्त हो तब, आसानी से भटकाया जा सकता है। सवाल यूँ भी उठाया जा सकता है कि आखिर स्थानीय प्रशासन ने किन सुरक्षा बिनहों पर अनुमति दी थी अमृतसर में उस स्थान पर , जीवंत पटरियों के नज़दीक रामलीला होने की,
और सवाल यूँ भी उठाया जा सकता है कि आखिर ट्रैन ड्राइवर ने ब्रेक क्यों नही लगाया !

जांच में यही पर खेल किया जाता है। पहले वाले सवाल के लपेटे में स्थानीय प्रशासन के लोक सेवा अधिकारी आ जाते, इसलिए जाहिराना दूसरा वाला सवाल ही  *उचित* ' दिशा का सवाल बना कर जांच करि गयी। आखिर जांच भी तो उसी पुलिस के पास है जिनके उच्च अधिकारियों ने ही तो अनुमति दी रही होगी।

गोरखपुर अस्पताल हादसे मे भी तो खेल यूँ ही हुआ है । किसी भी अस्पताल को ऑक्सीजन सिलिंडर की सप्लाई तो निरंतर चाहिए रहती होगी। और इसको उपलब्धता की अनुमति के पेपर तो शीर्ष स्तर के अधिकारियों के हस्ताक्षरों के ही मोहताज़ होते होंगे। है न?
तो फिर क्यों नही जांच का सवाल किसी छोटी मछली "ट्रैन ड्राइवर" को बनाया जायेग - गोरखपुर मामले  में डॉकटर कफील-- जिससे कि *बडी मछलियों* के मुंह पर जवाबदेही और जिम्मेदारी का कांटा फंसे ही न !

यहि हुआ है बनारस पुल हादसे में भी।

जांच तो उन्हीं लोग के हाथों में है जो कि *बढ़ी मछली* है जवाबदेही और जिम्मेदारी के कांटे के। मगर यह लोग इतना तो अनुभवी है कि उनको पता है कि जांच के सवाल व्यक्तिनिष्ठ होते है, तो जांच को कैसे मनमर्ज़ी तरीकों से गुमराह करना होता है।

बस *बेचारे* यह उच्च अधिकारी तब ही फंसते है जब कोई इनका "बाप" शिकार बन जाता है।

Comments

Popular posts from this blog

the Dualism world

Semantics and the mental aptitude in the matters of law

It's not "anarchy" as they say, it is a new order of Hierarchy