हज़ार साल की गुलामी से आज़ादी हुए भारत की संस्कृति क्या होनी चाहिए

संस्कृति एक इंसान के कर्मों से तय नही करि जाती है। संस्कृति तय होती है जब बहोत सारे इंसान, जिनके बीच कोई इस समान भाषा, धर्म, जन्म क्षेत्र रंगरूप की पहचान हो, वह कोई एक समान बात-व्यवहार और आचरण करते हों।

अभी हाल फिलहाल में आयी कुछ खबरें आज हम भारतीयों को अपनी संस्कृति की self criticism करने पर बाध्य कर रही है।
पहली खबर है की ऑस्ट्रेलिया के एक विलासपूर्ण प्रमोद पर्यटन जहाज़ पर यकायक 1300 भारतीयों ने आ कर जिस प्रकार का आनंद का आचरण किया ,वह बहुराष्ट्रीय वातावरण में बेहद दुखद रहा । इस कदर की जहाज़ के मालिकों ने अन्य राष्ट्रीयता के पर्यटकों को हुई असुविधा के चलते उनके पैसे वापस कर दिया।

दूसरी खबर खुद हमारे ही देश से रेलवे के अधिकारियों से आई है कि हमारे देशवासी जब ट्रेनों से यात्रा करते हैं तब वह प्रतिवर्ष कितनी संख्या में यात्रा में उपलब्ध कराए गए छोटे towel , कंबल, चादर इत्यादि को "चोरी" कर ले जाते हैं, या गलती से घर उठा ले जाते हैं।

तीसरी खबर है कि दुनिया मे सबसे अधिकः अवधि और "परिश्रम" से ऑफिसों में काम करने वाली राष्ट्रियता हम भारतीयों की है।

यह तीन खबरें  आज हम भारतीयों की सांस्कृतिक पहचान बन कर निकले हैं।।यह वह खबरें है जो हमारी पहचान बनाते है कि हम कितने अनसुलझे, निम्म सामाजिक आचरण वाले लोग है, जिनका नैतिक विकास अभी भी पर्याप्त नही हो सका है क्योंकि यह आज भी बड़े समाज मे अपनी स्वचेतना से वह आचरण नही कर सकते है जिससे सामाजिकता बनती है, जिसे सभ्यता या भद्रता कहा जाता है।

अधिकः परिश्रम करना भी कोई अच्छा आचरण नही होता है। इससे एक ईर्ष्या गत प्रतिस्पर्धा का माहौल बनता है, जो कि दूसरे साथी को उसकी इच्छा के विरुद्ध किसी दौड़ में शामिल होने के लिए बाध्य करता है। फिर वह अपनी स्वतंत्र चाहत से अपनी पसंद का कार्य करने के लिए तैयार नही हो पाता है।

अधिकः परिश्रम यदि उत्पादन को बढ़ा न सके तब तो वह निश्चय ही "गधा मेहनत" ही होती है, जो कि संभवतः किसी श्रमिक शोषण के लिए विकृति में किया गया वर्णन है।

भारत की इतिहासिक पहचान यह है कि यह देश पिछले एक हज़ार सालो से हर के बाहरी आक्रमणकारी के हाथों रौंदा गया है, दास प्रथा से पीड़ित हुआ है, और अभी हाल ही में यकायक, बिना किसी विशेष सामाजिक धार्मिक क्रांति के ही, तथाकथित "स्वतंत्र" हो गया है।

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