खेल के विषय में भारतवासियों के रुख का एक संक्षिप्त इतिहास

खेलों के प्रति भारत वासियों के आचरण का सांस्कृतिक इतिहास बड़ा विचित्र रहा है।

भारत में भी कई सारे खेलों का आरम्भ हुआ है, मगर इनमें से शायद ही कोई अंतराष्ट्रीय स्पर्धा में शामिल किया गया है। चौसर से आधुनिक लूडो को प्रेरणा मिली जो छोटे बच्चों में प्रिय है, मगर ये अंतर्राष्ट्रीय स्पर्धा में नही होता है। शतरंज काफी समय तक भारतवासियों में प्रिय रहा है, हालांकि ये खेल फ़ारसी मूल का है।
एक खेल जो कि अंतर्राष्ट्रीय स्पर्धाओं में कुछ वर्षो तक पहुंचा, वो था कबड्डी। मगर अधिक प्रिय नही हो सकने पर वो आजकल शामिल नहीं होता है।

बरहाल, बात है समाज के रुख की ।
भारत में खेलो को अधिक सम्मान से नही देखा गया है। चौसर के खेल से स्त्री के अपमान का किस्सा जुड़ा है (द्रौपदी चीरहरण, और राजपाठ को खो बैठने की कहानी) , और इसलिये ये खेल लोगों में हीन भावना से देखा गया। शतरंज से लत लग जाने का सामाजिक दोष जुड़ा हुआ है। 
हालांकि खेल का चलन भारतीय समाज में था, मगर ये सब असम्मानित कर्म के तौर पर देखे गये हैं। कहीं कहीं कुछ खेल केवल राजा महाराजों की शोभा माने गये, और प्रजा में आम आदमी खुद ही एक दूसरे का तिरस्कार तथा हतोत्साहित कर देते थे खेल खेलने पर - "क्या खुद को कही का राजा महाराज समझते हो क्या ?"

तो वर्तमान काल के बदलाव के पूर्व में भारतवासियों का असल आचरण खेलो के प्रति हीन रुख वाला हुआ करता था। खेल खेलने वाले बच्चे को सम्मान के संग नही देखा जाता था। खेलने वाले व्यक्ति के लिए आर्थिक भविष्य ज़्यादा कुछ नहीं हुआ करता था।  खिलाड़ियों का अक्सर कंगाली के हालातों में जीवन गुज़ार देना आम बात हुआ करती थी। कई सारी अतीत की घटनाएं हैं जिसमे खिलाड़ियों ने अपने मेडल बेच कर जीवन गुज़ारा हुआ है।

आजकल इस रुख में बदलाव कैसे आया है, ये भी एक विचित्र और दिलचस्प कहानी से सोचने समझने के लिए।
ये बदलाव वास्तव में फिर "हीन भावना" के मार्ग से ही आया है, जब आजकल टीवी जैसे यंत्र घर घर पहुंच चुके हैं, और फिर उस पर भी , सीधा प्रसारण कर सकने वाली तकनीक विकसित हो गयी है। 
टीवी के आने से धीरे धीरे खेलों को भारत के लोगों में राष्ट्रवाद से जोड़ा जाने लगा है। भारतीयों में राष्ट्रवाद भी असल में "हीन भावना" वाले मार्ग से ही आया है। 
लोग जब एक दूसरे का अपमान करने लगे कि भाई "भारत में तो भारत की फिक्र करने वाला कोई है ही नहीं ", तब लोग भीतर ही भीतर आत्म-निरक्षण और आत्म-सुधार करने लगे। इससे लोगों में राष्ट्रवाद प्रसारित होना आरम्भ हुआ। 
टीवी के आगमन के साथ खेलों में मेडल जीतने पर राष्ट्रवाद प्रदर्शित करने का चलन निकलने से खेलों को सम्मान मिलना आरम्भ हुआ है। उसमे भी , हालांकि कई सारे खिलाड़ियों ने यही टीवी के माध्यम से अपना दुखी जीवन व्यक्त किया और समाज का अपमान किया, (या कहे तो , समाज से समाज की शिकायत करि) कि कैसे उनको उचित सम्मान - आर्थिक प्रोत्साहन- नही दिया समाज और सरकार ने, खेल के क्षेत्र में उचित उपलब्धि होने पर भी। तब जा कर लोगों ने, तथा सरकार ने आत्म-निरीक्षण किया और आत्मसुधार किया।

भारत के लोग केवल थू थू किये जाने से ही आत्म-निरीक्षण करते है। और तब जा कर कुछ ग़लत सांस्कृतिक आचरण में अपने आप को बदलाव करते हैं। इस प्रक्रिया को ही "हीन भावना" मार्ग पुकार सकते है।

और शायद फिर अपमान किये जाने से उतपन्न  प्रतिरुख में लोग यकायक अत्यधिक "गर्व करण" करने लग जाते है उसी विषय के प्रति। ये "अत्यधिक गर्व" अतीत की हीन भावना की प्रतिक्रिया में से  निकला हुआ होता है, और इस एहसास के चलते वास्तव में अशोभनीय हो जाता है, जब विशाल आबादी में यकायक दिखाई प्रकट हो जाता है, जबकि तमाम अन्य मुद्दों पर विलुप्त रहता है। ऐसा होने से ये पता लग जाता है कि यकायक राष्ट्रवादी गर्व वास्तव में एक प्रतिक्रिया है, अतीत काल की किसी हीन भावना का।

आजकल ऐसा ही "अशोभनीय गर्व" olympic खेलों के दौरान खिलाड़ियों के मेडल जीत जाने के उपरान्त लोगों की सोशल मीडिया की पोस्ट में दिखाई पड़ रहा है। - अत्यधिक गर्व मयि राष्ट्रवाद।

ये गर्व मयि reaction है, और इसका जन्मभूमि वास्तव में अतीत में व्याप्त अत्यधिक हीन भावना रही है - severe inferiority complex।

अतीत काल में तो खिलाड़ियों के हालात इतने खराब हुआ करते थे , सामाजिक सम्मान इतना निम्म की उनके रोने धोने और तमाम शिकायत, समाज से ही समाज की थूथू करि गयी,  तब जब कर ये किया गया कि खिलड़ियों को कुछ नौकरियों में थोड़ा से quota (आरक्षण) दिया जाने लगा था। इसी श्रृंख्ला में सचिन तेंदुलकर ने भी नौकरी करि है, और हरभजन सिंह ने भी पंजाब पुलिस में नौकरी करि है। आरम्भ में ये quota सिपाही, जवान जैसे पदों तक सीमति था। बाद में कुछ बड़े खिलाड़ियों के आने पर पद तक की पहुँच को भी बढ़ाया गया। आज dcp तक के पद और पुलिस में सेवा देना आसान हो चुका है।

ये सब वास्तव में इतनी सहजता से नही प्राप्त हुआ है। इसमे बहोत कुर्बानियां गयी है, और "हीन भावना" मार्ग से होते हुए प्रतिक्रियात्मक "गर्व मयि करण" तक की सामाजिक बदलाव की यात्रा हुई है। 

Comments

Popular posts from this blog

विधि (Laws ) और प्रथाओं (Customs ) के बीच का सम्बन्ध

गरीब की गरीबी , सेंसेक्स और मुद्रा बाज़ार

राष्ट्रिय स्वयं सेवक संघ और उनकी घातक मानसिकता