संतुलन - एक बौद्ध विचार

मुझे लगता है कि दलित-हिन्दू(सवर्ण) द्वन्द, शिया सुन्नी झगड़ा, और रोमन catholic - protestant  जैसे द्वन्द का ईलाज़ "संतुलन" में है। हर एक के साथ कहीं कुछ न्याय और कुछ अन्याय हो रहा होता है। यानी हर व्यक्ति कहीं अन्याय झेलता है, तो कहीं न कहीं अन्याय करता भी है। हमें इस विस्तृत प्रक्रिया में छिपे संतुलन को समझना चाहिए। संतुलन अपने आप में भी एक न्याय है - distributive justice ।

जब भी हम(इंसान लोग) सिर्फ़ अपने ऊपर हुए अन्याय को सोचने लगते हैं, और अपने हाथों हुए अन्याय को देखना बन्द कर देते हैं, तब हम संतुलन को बिगाड़ देने के प्रयास करने लगते हैं। और फ़िर यहाँ से दौर निकल पड़ता है जो हमें जानवर बना कर छोड़ता है।

कल news beak करके यूट्यूब चैनल पर मार्कण्डेय काटजू के बारे में एक पोस्ट देख रहा था। बताया गया है कि मार्कण्डेय काटजू के अनुसार इस देश में असल जातिवाद तो ब्राह्नणों ने झेला है। !!!!! भेदभाव तो ब्राह्मणों के संग हुआ है, काटजू के अनुसार। दुराचार ब्राह्मणों के संग किया है दलितों ने । !!

सामाजिक समूह के संग अन्याय का ईलाज़ हमेशा "न्याय कर देना" नही है। बात को अतीत में ग़ुम हो जाने देना भी शायद ईलाज़ होता है। मैं बात को भूल जाने को नहीं कहता हूँ, मगर अतीत में चले जाने को जरूर कहता हूँ। वर्ना eye for an eye वाली गड़बड़ हो जायेगी, it will make whole world blind.

संतुलन के साथ चीज़ों को , घटनाओं को कैसे दर्शन करना सीखें?
इसका ज़वाब है - आत्म-दृष्टि पर संयम। हमारा perception, यानी हमारी चीज़ों को देखने-समझने वाली दृष्टि पर हमें नियंत्रण करना सीखना  चाहिए। यह भी एक "योग" ही होगा कि चीज़ों के perception संतुलन से करना आ जाये, निरंतरता से।  

(योग केवल mat बिछा कर करे जाने वाली शारीरिक मुद्राओं को नाम नही है। बौद्ध योग भी एक किस्म का योग है। अपनी खुद को psychology को दुरुस्त करने का संयम, एक परम योग है। अपने psychopathy से मुक्ति ले सकना, ये परम योग की सिद्धि है।)


तो बात perception की है, कि चीज़ों और घटनाओं को संतुलन से देखना कैसे सिखाये अपने आप को। इसके विषय में बात यह है कि perception एक किस्म की प्रवृति होती है - और यह अध्यात्म द्वारा इंसानो और समाज में प्रसारित होती रहती है।

यानी Perception का आरंभ spirituality से होता है। (यहां पर ही मैं अक्सर ब्राह्मणों की हिन्दू समाज पर प्रभावों की शिकायत करता हूँ। ब्रह्मवाद हिन्दू समाज के spiritual perception पर लगा हुआ एक psychopathic रोग है। यह विषय विस्तार में अन्य लेखों में चर्चा किया है मैंने।)

कहने का अर्थ है की लोगों के आध्यात्मिक गुरुओं को उन्हें संतुलन से दर्शन करना सीखना प्रेरित करना होता है। बार बार उन्हें उनके असंतुलित दर्शन करने पर टोकना होता है, और संतुलित दर्शन क्या होना चाहिए, ये बताना पड़ता है।  मगर brain washing से खुद को बचाते हुए ! यानी खुद भी एक किस्म का संतुलन चाहिये होता है, दूसरे को संतुलन सिखाते समय ! चक्र के भीतर में एक और चक्र।

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