निजीकरण बनाम निगमीकरण विषय पर मेरी अर्थशास्त्र समझ

निज़ीकरण मुद्दे पर मेरे और आपके विचार पूरी तरह जुदा  हैं !! मैं घनघोर निज़ीकरण  के पक्ष में सोच रखने वाला व्यक्ति हूँ ! शायद इसीलिए क्योंइकि मेरी अर्थशास्त्र की बुनियादी जानकरी में service  और professional  के मध्य एक अंतर् माना गया है, और जो की समाज की आवश्यकताओं को पूर्ण कर सकने की क्षमता के बाच दोनों ही वर्ग के अंतर को गहरा करता है । समाज की ज़रूरते प्रोफेशनल वर्ग पूर्ण करते हैं, सर्विसेज नहीं ।  और इसलिए संसाधनों पर स्वामित्व और नियंत्रण professionals का ही होना चाहिए, services  का नहीं । अतीत से लेकर आ तक, सभी तकनीकी कार्य, अविष्कार, अन्वेषण --professionals वर्ग से ही हुए हैं , services  से नहीं हुए है ।
तो यह मुद्दा सिर्फ नैतिकता का ही नहीं, बल्कि ज़मीनी जरूरत भी है की यदि समाज को तरक्की करनी है तो professional वर्ग को उसका अधिकार -- स्वामित्व का अवसर मिलना चाहिए । 

मैं यह समझता हूँ की क्योंकि आधुनिक भारत का जन्म उल्टे  तरीकों से हुआ हैं , जहाँ अँगरेज़ professional  वर्ग ने अपनी सेवा के लिए बाबू - clerks  बिठाये थे , आज़ादी की "दुर्घटना" के बाद वही upsc  के माध्यम से देश की नौकरशाही बन कर स्वामी बन गए , इसलिए सब कुछ उल्टा पुल्टा हो गया , और आज सत्तर सालों  में कई पीढ़ियां यही उलटी विधि को देखती हुयी इसी को "सही " समझने लगी है, इसलिए वह "निजीकरण" की विरोधी बानी हुई है ।  अन्यथा प्रजातंत्र का अभिप्राय तो अर्थशास्त्र विषय की दृष्टि से निजीकरण ही है, "निगमीकरण" तो साम्यवादी सोच है-- जिसमे  की उत्पादन  सरकारी बाबू के अधीन  कर के उन्हें "तनख्वा" दी जाती है, वह "इनाम" नहीं जमा कर सकते हैं अपने "स्व-प्रोत्साहित" (self motivated ) कार्य के लिए ।  प्रजातंत्र और "निगमीकरण " तो इतना ही बेमेल(immiscible)  है जितना की तेल और पानी !!

मेरी सोच के मुताबिक यदि किसी व्यक्ति को स्वतंत्रता चाहिए, अपने अधिकारों को हनन होने से बचाना है, तब फिर उसे अपने अधिकार अपनी ही पास रखने होंगे, सरकरी बाबू की मनमर्ज़ी और सेवा पर न्योछावर *नहीं* करने होंगे । तो फिर उसके समाज और प्रशासन को प्रजातंत्र व्यवस्था की और क़दम  बढ़ाने  चाहिए। और यदि प्रजातंत्र चाहिए , तब फिर निजीकरण करके अपने काम , सामाजिक आवश्यकताएं खुद अपने जिम्मे लेकर चलाना  सीखना ही होगा ।

भारत में चूंकि english  professional  class  (जो की ईस्ट इंडिया कंपनी के लोग थे) उन्होंने सब तंत्र अपनी सुविधा और निजी हित  में बसाये थे, इसलिए professional  वर्ग प्रफुलती हो ही नहीं सका ! उल्टा, जो कुछ professional  वर्ग भारतीय सभ्यता में उपजा था, वह जातिवाद के भेंट  चढ़ कर "शूद्र" बन कर नष्ट होता चला गया है ।

services  और professional  की यह अर्थशास्त्र की कहानी अचरज भरी है, और लम्बी है ...

बरहाल , मैं  यह कतई  नहीं चाहूंगा , और न ही सुझवाव दूंगा की अब कोई भी स्वतंत्रवादी और प्रजातंत्र व्यवस्था का हिमायती व्यक्ति  "निजीकरण" का विरोध करे।

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