जीवन मे अन्वेषण का महत्व, रहस्यों को सुलझाने के प्रयासों के जीवनदायी लाभ
बहरूपिया अक्सर करके पकड़े जाने पर तिकड़म यह लगाते हैं कि वह असल पर ही नक़ली होने का आरोप गढ़ देते हैं।
यह दुनिया मिथिकों से भरी हुई है। सभी कुछ किसी षड्यंत्र की वजहों से नही है। बल्कि इसलिए भी है कि सत्य हर एक के लिए अलग अलग विधमान होता रहता है। तो हर इंसान सत्य का अवलोकन अपने अनुसार करता है, और उसे दुनिया मे प्रसारित करता रहता है। नतीजे में यह दुनिया तमाम किस्म की कथाओं (narratives) से भर गई है।
इस बीच में कुछ वाकई के आपराधिक मनोअवस्था वाले लोग भी हैं। जो कि दुनिया मे सत्य की इस मुश्किल परिस्थिति का फ़ायदा उठा कर जनता को बेवकूफ बनाते है , सिर्फ मुद्रा लाभ के लिए। तो यह लोग और दिलचप्सी रखते हैं कि सत्य थोड़ा और रहस्यमयी, और ओझल बना रहे।
लेकिन अंत मे सत्य की तलाश वही कर सकता है जो तमाम किस्म की बौद्धिक कबलियतों को अपने अंदर विकसित कर सके। और फिर जो सत्य को प्राप्त करता है, सत्य के जितने नज़दीक जा पाता है, वही जीवन की त्रासदियों से मुक्ति प्राप्त करता है, वही ईश्वर को तलाश कर पाता है, वह सुखी और समृद्ध बनता है, मोक्ष को भी पाता है।
सत्य की तलाश के लिए बौद्धिक कौशल भी चाहिए ही होता है। इसके बिना तो आप जीवन मे उचित निर्णय ,सही समय पर , सही दिशा में ले ही नही सकते है।
तो सत्य की तलाश कर सकने वाला बौद्धिक कौशल कैसे विकसित किया जाता है ?
रहस्यों को सुलझाने से। अबूझ, अंधकार, अज्ञात, अंतरिक्ष मे शोध करने से। अपने इर्दगिर्द घूम रही तमाम षड्यंत्रकारी theories के ऊपर सत्य के प्रकाश को डालने से।
जी है। जो कौशल रहस्यों को सुलझाने में विकसित होता है, वह बुद्धि में यह काबलियत भी देता है कि सत्य को तलाश कर सके।
बचपन मे जो पहेली सुलझाने के खेल हुआ करते थे, रहस्य को सुलझाना उसी खेल का वयस्क रूप है।
रहस्यों को सुलझाना किसी स्कूली किताब को हल करने से बहोत अलग होता है। क्योंकि स्कूली किताब में तो आपको यह जानना बहोत आसान होता कि आपका निकाला हुआ समाधान सही है या नही। आप झट से किताब के पीछे के अंश में उत्तर तालिका से यह मेल करके पता लगा लेते है।
मगर रहस्यों को सुलझाने में कोई उत्तर तालिका नही होती है। तो फिर आपको अपने ही दिए समाधान के सत्य होने के प्रमाण भी खुद ही विकसित करने पड़ते हैं। और उन प्रमाणों के संतुष्ट होने की पद्धति भी आपको खुद से ही विकसित करनी पड़ती है।
यह सब ही शोध कहलाता है। आप कोई हाइपोथिसिस बनाते है। उस hypothesis की जांच के लिए कुछ प्रयोग (experiments) विकसित करते है। उन experiments से निष्कर्ष निकालते हैं। निष्कर्षों के मेल अपने hypothesis से करवाते हैं। कुछ हद तक मेल होते हैं, कुछ कमियां अभी भी रह जाती हैं। यह निर्णय भी आपको अपनी संतुष्टि से ही करना होता है कि आप खुद को कितना सफ़ल मानते हैं अपने experiments से। फिर आप ही उस hypothesis से कोई theory बना देते हैं । और यदि पूर्ण संतुष्टि महसूस होती है, तब आप एक law (नियम) की ही खोज करके नींव डाल देते है। फिर आप अपनी इस समुचित खोज को दुनिया के समक्ष प्रस्तुत करते है, अपने एक दावे (claims) के रूप में । दुनिया को आमंत्रित करते हैं कि वह भी आ कर जांच करे, आपको आपकी कमियां बताए, आलोचना करे, समीक्षा करे, और अपने खुद के मत के अनुसार स्वीकृत या अस्वीकृत करे।
यह सारी प्रक्रियाओं से गुजरने के बाद ही इंसान को महसूस होता है कि अब वह सत्य को शायद कुछ हद तक चिन्हित कर सके। तभी उंसमे दुनिया की आखों में आंख डाल कर बात करने का आत्मविश्वास आता है।
और यदि उसकी theory वाकई में सत्य के नज़दीक पहुंचती है, तब उसका सबसे बड़ा प्रमाण तो उसके खुद से जीवनमुक्ति में से मिलता है। वह त्रासदियों से मुक्त होने लगता है।
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