नौ निजी क्षेत्र से लिए संयुक्त सचिव और दलित पिछड़ा चिंतकों का IAS सेवा का बचाव
असल में आरक्षण नीति का एक प्रकोप हमारे समाज पर यह पड़ा है कि पिछड़ा और दलित वर्ग के लोग आरक्षण का लाभ उठाने के चक्कर में IAS की तैयारी में लग गये हैं और यह आर्थिक सामाजिक चक्र की जरूरतों के अनुसार एक बीमारी है, प्रगति का मार्ग नहीं।
और फिर जो लोग IAS की 'कठिन परीक्षा" को भेद नही सके हैं वह आजीवन उससे मंत्रमुग्ध पड़े 'बीमारी' का प्रसार करते रहते हैं, उस सेवा का बचाव करते हुए। बचाव को इस तर्क पर भी करते हैं क्योंकि आरक्षण का "भोग" सबसे अधिक इसी कार्य में से निकलता है, किसी कैशल कार्य की बजाये। आरक्षण नीति का बचाव करते-करते शायद राह भटक कर IAS सेवा का भी बचाव करते है, आर्थिक विकास में उनकी भूमिका का विश्लेषण किये बगैर।
किसी वास्तविक विकसित प्रजातंत्र के उत्थान को तलाशने पर आप पाएंगे कि यह मार्ग उसके कौशल कर्मी यानी professionals की देन है सेवादारों की नहीं। professionals वह होते हैं जिनके काम/"सेवा" की ज़रूरत आम आदमी को अपनी इच्छा से आये दिन पड़ती है और उसके लिए वह अपनी ज़ेब से धन खर्च करता है स्वेच्छा से। यह market force से कमाया धन ही professional की पहचान होती है। जबकि "सेवा" यानी सरकारी सेवादार, जैसे की IAS , इस मानक पर खरे नही उतरते हैं क्योंकि आपको-मुझे उसकी सेवा की दैनिक जीवन में ऐसी कोई आवश्कयता नही है, हालांकि यह स्वीकार है की समाज के संचालन में उसकी ज़रूरत होती है। तभी वह compulsory टैक्स के द्वारा पाले-पोसे जाते हैं।
अब भारत जैसे IAS-वादी व्यवस्था में दिक्कत तीन हैं - सामाजिक ज़रूरतों के कौशल की कमी हो रही है (काबिल डॉक्टर, वकील, अच्छी बहुसंख्या में) , भ्रष्टाचार बेइंतहां बढ़ गया है, और महंगाई और टैक्स कमरतोड़ हो चुके है। बल्कि पेट्रोल-डीज़ल पर तो गुप्त और अघोषित टैक्स लगे हुए है, जिनको झूठ-मूठ के कारण के बहाने जायज़ होने का चोंगा डाला गया है।
अभी जेट airline के बंद होने की ताज़ा खबर आपने पढ़ी होगी। यह airline भी विजय माल्या की kingfisher के रास्ते चली गयी और इसके बंद होने से कितने ही लोग बेरोज़गार हो गये हैं। सवाल है कि आखिर नरेश गोयल या विजय माल्या ने इतनी बड़ी कंपनी निर्मित कैसे करि थी -- किस कौशल के आधार पर। यानी, इस दोनों में से किसी को भी न तो वायुयान निमार्ण का background था, न ही उसे उड़ाने का- तो फिर बनाया कैसे? भारत में सबसे प्रथम airline tata airline थी, जिसे की खुद JRD Tata ने बसाया था। याद रहे की JRD Tata देश के प्रथम licensed pilot भी खुद ही थे। पारसी घरानों के उद्योगों के बारे में एक बिंदु यह जाहिर है की यह खुद भी कौशल कामगार लोगो का समुदाये है। पारसी लोग पुराने बॉम्बे में अपने जहाज़ निर्माण के कैशल, motor कार के मरम्मत- रखरखाव, और हाथ घड़ी के मरम्मत-रखरखाव के लिए विश्वविख्यात लोग हैं। JRD का विमान उड़ाने का कैशल भी उनके समुदाये की इसी प्रवृत्ति की देन था।
असल में अच्छे व्यवस्था वाले देशों में उद्योगों के बसाने में कौशल कामगार होते है जो की खुद भी उस कौशल से अक्सर जुड़े हुए होते है, अविष्कारक या शोधकर्ता होते है। मगर भारत में ऐसा नही है।
नरेश गोयल का असली कौशल ही यह था कि वह इन्ही IAS लोगों की बनायी भूलभुलैया और अवरोध को लांघ करके यह airline बसा ले गये। ! यानी IAS लोगों का बनाया अवरोध लांघना ही अपने आप में एक कौशल काम बन गया है। तो क्या आप अभी भी उम्मीद करते हैं भी भारत के समाज का आर्थिक उत्थान होये गा?
Edison से लेकर nikola tesla, बिल गेट्स, steve jobs, paul allen तक किसी की भी जीवनी पढ़ लीजिये।।यह सब के सब खुद भी कौशल कार्य में प्रशिक्षित लोग है, महज़ जुड़े हुए नही। और कोई भी सरकारी सेवादार नही है। तो देश का विकास professionals करते है, सरकारी सेवादार नहीं। भारत में सरकारी सेवादार यहां के socialists ढांचे के चलते पहले nationalisation करती है, उनपर ias को सवार करवाती है, और जब वह उद्योग बीमार पड़ते है तो उसको या तो बंद करती है यह वापस निजीकरण। मज़े की बात की यही iAS वापस निजीकरण के दौरान भी भ्रष्टचार की मलाई खा जाते है, जबकि उस उद्योग को बीमार भी इन्ही लोगों की अगुवाई ने किया हुआ होता है।
इस बीच यह लोग कौशल कामगारों professionals के उद्योगिक प्रयत्नों के मार्ग में इतना अवरोध खड़ा करके रखते है कि वह विकसित ही नही पाता है। बल्कि IAS लोगों के बनायी भूलभुलैया को भेद सकना अपने आप में ही एक कौशल बन जाता है जिसे की नरेश गोयल या विजय मल्ल्या जैसे clerk कौशल वाले लोग ही भेद पाते है वायुयान निर्माण या उड़ान संबंधित क्षेत्र के पेशेवर लोग नही। तो बस यही लोग निजी क्षेत्र के उद्योग स्वामी बन जाते है जहां यह पेशेवर लोगों, यानी professionals को, महज़ एक कर्मचारी -यानी labour - बना देते है !! यह कौशल कामगार एक आम labour बना हुआ अपने श्रम से कामये धन , जो की उसके उद्योग में जमा होता है, वहां तंख्वाह बढ़ानें की लड़ाई लड़ कर के ही रह जाता है। और इधर वह धन टैक्स बन कर सरकारी खाते में पहुंचता है और यह clerk-कौशल के IAS उसे घुमा-फिरा करके किसी राजनेता की मिलीभगत में मूर्ति निर्माण , पार्क निर्माण में लगा देते है, या अपनी बढ़ी संख्या तंख्वाह बना देते हैं।
हैं न यह त्रासदी की दास्तां। एक आर्थिकी कुचक्र की कहानी।
मगर social justice lobbyists की रुचि यह नही है की समाज को क्या चाहिये, समाज की ज़रूरतें क्या हैं। उसको तो बस समाज से अपना अंश ही चाहिए। चाहे समाज में ज़हर बांटा जा रहा हो, उनको अपना हिस्सा चाहिए बस। यह परवाह नही की क्या वह समाज में बिकना ही चाहिए।
Comments
Post a Comment