संविधान सुधार की चाहत के विषय में स्पष्टीकरण
संविधान को बदलने के विचार कई सारे नेता बोल रहे हैं, और इस बिंदु पर भी राजनीति गरम होने लगी है। ऐसे में आवश्यक हो चला है की कुछ स्पष्टीकरण हो जाये की क्या-क्या बिंदु स्वीकृत हैं, और क्या-क्या नहीं।
सर्वप्रथम तो यह जानना ज़रूरी है कि भारत के संविधान का बहोत बड़ा गुण है ही यह की इसे समय की ज़रूरतों के अनुसार बदलाव किया जा सकता है। Amendability.
तो इसमे तो कोई विरोध नही किया जाना चाहिए की बदलाव की चाहत एक जायज़ मांग है खुद संविधान की मंशा के नज़र से भी।
अब कुछ इतिहासिक ज्ञान। कि, संविधान के स्वरूप से पूर्ण रूप से संतुष्ट तो खुद बाबा साहेब भी नही थे। उनको भी आभास था की संविधान से कई सारे असंतुष्ट वर्गों की जायज़ मांगो को पूर्ण नही कर सके थे। उन्होंने भी आशा जताई थी की भविष्य में शायद उनके संविधान की amendability के गुण के सहारे कभी कोई ऐसा ढांचा तलाश कर लिया जायेगा जिसमे सभो वर्गों की जायज़ मांगो को शायद संतुष्ट किया जा सके।
तो यहां बदलाव में जो स्वीकृत किया जा सकता है वह यह की देश की जनता ने आपसी संकल्प के कुछ मूल्यों को इन सत्तर सालों में इस तरह अपना लिया है की अब शायद उन्हें बदलने को तैयार नही होने वाला है। वह मूल्य जैसे की प्रजातंत्र, पंथ निरपेक्षता, गणराज्य, न्याय के बिंदु, समानता , भाईचारे के बिंदु। कुल मिला कर preamble में बोले गये वचन से डगमगाने का विकल्प अब भविष्य में किसी भी संविधानिक सुधार में अस्वीकृत ही रहेगा क्योंकि देश की जनता ने उसे तो गांठ बांध कर रख लिया है।
तो यदि किसी की संविधान सुधार के नाम पर ऐसी कोई मंशा है कि पंथ निरपेक्षता हटा कर हिन्दू राज्य बनाये, या राष्ट्रवाद के नाम पर मिलिट्री राज, देशप्रेम और अनुशासन के नाम पर पुलिस राज करे, या वंशवाद के माध्यम से गणराज्य पद्धति को नष्ट करे , तो फिर अब वह स्वीकृत नही होने वाला है।
हां, यह ज़रूर स्वीकार है कि भारतीय प्रजातंत्र में गणराज्य पद्धति में कुछ सुधार किया जाये। वर्तमान हालात में नौकरशाही की टैक्स खोरी और भ्रष्टाचार की लत लगी हुई है । दुनिया के कई अन्य प्रजातांत्रिक देशों के ढांचे को जानने समझने वाले मानते है की भारत में नौकरशाही के इस रोग का कारण गणराज्य पद्धति में छिपी गलतियों/कमियों की वजहों से है। हमने गणराज्य पद्धति का इंजिन असल में ब्रिटेन की राजशाही पद्धति से उठाया है और उसमे "जुगाड़" करके राष्ट्रपति fit करके गणराज्य बनाने की कोशिश कर दी है। इसमें शक्ति संतुलन की गलती हो गयी है, जहां पर की बड़े बदलाव की ज़रूरत है इस देश को। तो उस हद्द तक तो सविधान सुधार को स्वीकार किया जाना चाहिए। चौकसी यह बरतनी पड़ेगी की सुधार की आड़ में फिर से कुछ बंदर-बांट ऐसा बदलाव न जाये जो preamble संकल्प के मुख्य मूल्यों को बदलने की कोशिश करे।
ख्याल यह भी रखना होगा की amendability के नाम पर असंख्य बार मूर्खता में उलझने वाला खेल न आरम्भ कर दिया जाये , कि हर बार कोई उल्टा-पुल्टा amendment करके यह बोल दिया जाये की एक बार इसे भी आज़मा करके देख लें, अगर गलत हुआ तो फिर दुबारा amendment कर लेंगे। और इस कुतर्क के प्रकार से इच्छित सुधारों को वास्तव में गोलमटोल हमेशा के लिए टलवा दिया जाये।
दरअसल Amendability के गुण में एक कुतर्क छीपा यह रहता है की बुरी ताकतें किसी भी सैद्धान्तिक, ऐच्छीत सुधार को असंख्य बार करके सदैव के लिए टलवा सकती है। तो Amendability के गुण के व्याख्यान में इस बिंदु को नज़रअंदाज़ नही होने दिया जा सकता है।
सर्वप्रथम तो यह जानना ज़रूरी है कि भारत के संविधान का बहोत बड़ा गुण है ही यह की इसे समय की ज़रूरतों के अनुसार बदलाव किया जा सकता है। Amendability.
तो इसमे तो कोई विरोध नही किया जाना चाहिए की बदलाव की चाहत एक जायज़ मांग है खुद संविधान की मंशा के नज़र से भी।
अब कुछ इतिहासिक ज्ञान। कि, संविधान के स्वरूप से पूर्ण रूप से संतुष्ट तो खुद बाबा साहेब भी नही थे। उनको भी आभास था की संविधान से कई सारे असंतुष्ट वर्गों की जायज़ मांगो को पूर्ण नही कर सके थे। उन्होंने भी आशा जताई थी की भविष्य में शायद उनके संविधान की amendability के गुण के सहारे कभी कोई ऐसा ढांचा तलाश कर लिया जायेगा जिसमे सभो वर्गों की जायज़ मांगो को शायद संतुष्ट किया जा सके।
तो यहां बदलाव में जो स्वीकृत किया जा सकता है वह यह की देश की जनता ने आपसी संकल्प के कुछ मूल्यों को इन सत्तर सालों में इस तरह अपना लिया है की अब शायद उन्हें बदलने को तैयार नही होने वाला है। वह मूल्य जैसे की प्रजातंत्र, पंथ निरपेक्षता, गणराज्य, न्याय के बिंदु, समानता , भाईचारे के बिंदु। कुल मिला कर preamble में बोले गये वचन से डगमगाने का विकल्प अब भविष्य में किसी भी संविधानिक सुधार में अस्वीकृत ही रहेगा क्योंकि देश की जनता ने उसे तो गांठ बांध कर रख लिया है।
तो यदि किसी की संविधान सुधार के नाम पर ऐसी कोई मंशा है कि पंथ निरपेक्षता हटा कर हिन्दू राज्य बनाये, या राष्ट्रवाद के नाम पर मिलिट्री राज, देशप्रेम और अनुशासन के नाम पर पुलिस राज करे, या वंशवाद के माध्यम से गणराज्य पद्धति को नष्ट करे , तो फिर अब वह स्वीकृत नही होने वाला है।
हां, यह ज़रूर स्वीकार है कि भारतीय प्रजातंत्र में गणराज्य पद्धति में कुछ सुधार किया जाये। वर्तमान हालात में नौकरशाही की टैक्स खोरी और भ्रष्टाचार की लत लगी हुई है । दुनिया के कई अन्य प्रजातांत्रिक देशों के ढांचे को जानने समझने वाले मानते है की भारत में नौकरशाही के इस रोग का कारण गणराज्य पद्धति में छिपी गलतियों/कमियों की वजहों से है। हमने गणराज्य पद्धति का इंजिन असल में ब्रिटेन की राजशाही पद्धति से उठाया है और उसमे "जुगाड़" करके राष्ट्रपति fit करके गणराज्य बनाने की कोशिश कर दी है। इसमें शक्ति संतुलन की गलती हो गयी है, जहां पर की बड़े बदलाव की ज़रूरत है इस देश को। तो उस हद्द तक तो सविधान सुधार को स्वीकार किया जाना चाहिए। चौकसी यह बरतनी पड़ेगी की सुधार की आड़ में फिर से कुछ बंदर-बांट ऐसा बदलाव न जाये जो preamble संकल्प के मुख्य मूल्यों को बदलने की कोशिश करे।
ख्याल यह भी रखना होगा की amendability के नाम पर असंख्य बार मूर्खता में उलझने वाला खेल न आरम्भ कर दिया जाये , कि हर बार कोई उल्टा-पुल्टा amendment करके यह बोल दिया जाये की एक बार इसे भी आज़मा करके देख लें, अगर गलत हुआ तो फिर दुबारा amendment कर लेंगे। और इस कुतर्क के प्रकार से इच्छित सुधारों को वास्तव में गोलमटोल हमेशा के लिए टलवा दिया जाये।
दरअसल Amendability के गुण में एक कुतर्क छीपा यह रहता है की बुरी ताकतें किसी भी सैद्धान्तिक, ऐच्छीत सुधार को असंख्य बार करके सदैव के लिए टलवा सकती है। तो Amendability के गुण के व्याख्यान में इस बिंदु को नज़रअंदाज़ नही होने दिया जा सकता है।
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