श्रीमान न्यायालय जी, एकान्तता का अधिकार तो राज्य की असीम शक्ति को ही सीमित करने के लिए होता है !
(fb post dated 25 Aug 2017)
एकान्तता यानी privacy के विषय में एक महत्वपूर्ण बात यह है कि किसी भी नागरिक की एकान्तता को भेद सकने के संसाधन और क्षमता सिर्फ और सिर्फ राज्य कर पास ही होते हैं; नागरिक अपने पड़ोसी नागरिक की एकान्तता को भेद सकने की क्षमता नही रखता है।
कहने का अभिप्राय यह है कि एकान्तता का अधिकार को मौलिकता का स्थान देने का उद्देश्य ही यह है कि वास्तव में यह अधिकार राज्य बनाम नागरिक की ही आपसी खिंचा तनी का विषय है, और इस अधिकार का महत्व है राज्य और नागरिक के बीच मे शक्ति संतुलन को प्राप्त करने का।
गलतियां तो प्रतिपल हर कोई कर रहा होता है, राज्य या न्यायालय भी कोई दैविक आतरात्मा से निर्मित संस्थान नही है जो कि कभी कोई गलती करे ही ना। ऐसे में राज्य को असीम शक्तियों को नियंत्रित करने के लिए एकांकता का अधिकार का मौलिक बनाये जाना एक महत्वपूर्ण उद्देश्य पूर्ण करता है। और हम नागरिक वर्ग शायद इसी लिए ऐसा समझ सकते हैं कि एकान्तता का अधिकार भी उस श्रेणी में आता है जो कि किसी तथाकथित प्रजातंत्र को उसकी वह प्रकृति प्रदान करवाता हैं जिससे वह प्रजातंत्र कहलाने लायक बन सके। अन्यथा, लोगो को स्मरण रहना चाहिए कि उत्तरी कोरिया भी तो खुद को अपने संविधानिक ढांचे के तहत एक प्रजातंत्र ही कहलवाता है।
एकान्तता यानी privacy के विषय में एक महत्वपूर्ण बात यह है कि किसी भी नागरिक की एकान्तता को भेद सकने के संसाधन और क्षमता सिर्फ और सिर्फ राज्य कर पास ही होते हैं; नागरिक अपने पड़ोसी नागरिक की एकान्तता को भेद सकने की क्षमता नही रखता है।
कहने का अभिप्राय यह है कि एकान्तता का अधिकार को मौलिकता का स्थान देने का उद्देश्य ही यह है कि वास्तव में यह अधिकार राज्य बनाम नागरिक की ही आपसी खिंचा तनी का विषय है, और इस अधिकार का महत्व है राज्य और नागरिक के बीच मे शक्ति संतुलन को प्राप्त करने का।
गलतियां तो प्रतिपल हर कोई कर रहा होता है, राज्य या न्यायालय भी कोई दैविक आतरात्मा से निर्मित संस्थान नही है जो कि कभी कोई गलती करे ही ना। ऐसे में राज्य को असीम शक्तियों को नियंत्रित करने के लिए एकांकता का अधिकार का मौलिक बनाये जाना एक महत्वपूर्ण उद्देश्य पूर्ण करता है। और हम नागरिक वर्ग शायद इसी लिए ऐसा समझ सकते हैं कि एकान्तता का अधिकार भी उस श्रेणी में आता है जो कि किसी तथाकथित प्रजातंत्र को उसकी वह प्रकृति प्रदान करवाता हैं जिससे वह प्रजातंत्र कहलाने लायक बन सके। अन्यथा, लोगो को स्मरण रहना चाहिए कि उत्तरी कोरिया भी तो खुद को अपने संविधानिक ढांचे के तहत एक प्रजातंत्र ही कहलवाता है।
तो यह समझा जा सकता है कि किसी भी तानाशाही राज्य के प्रयास हमेशा यही
रहते होंगे कैसे भी, किसी भी बहाने एकान्तता की मौलिक अधिकारों की दीवार को
भेदा जा सके ताकि राज्य की शक्तियों का प्रयोग करके वास्तविक विपक्ष को
नष्ट किया जा सके और नकली , बहरूपिया विपक्ष के निमार्ण को प्रोत्साहित
करें जो कि असल मे शासस्त पार्टी कर गलत उद्देश्यों को पूर्ण करने में
सहयोग ही दे।
तानाशाह राज्य ऐसा करने में अधिक आसानी प्राप्त कर सकता है यदि उसके पास नागरिकों की एकान्तता को भेद सकने की वैधता प्राप्त हो जाये। क्योंकि अब तो मात्र राज्य के पास ही यह क्षमता रह जायेगी की वह यह तय करे कि एकांकता में गलत नागरिक को उसकी गलतियों के लिए सज़ा दिलवा दे और किसको बच कर निकल जाने दे।
एकान्तता के अधिकारों के आधीन ही वह क्षमता वास करती है जिससे विपक्ष राज्य की असीम शक्तियों का मुकाबला करके बदलाव को प्राप्त करने के लिए प्रयास कर सकता है। किसी भी वास्तविक प्रजातंत्र में विपक्ष का आर्थिक आर्थिक शसक्त होना इस दिशा से महत्वपूर्ण भी है। एकांकता के अधिकार उस श्रेणी के अधिकार है जो कि प्रजातंत्र को उसी प्रकृति को प्राप्त करने में मार्ग उपलब्ध करवाता है। इसलिए इसका मौलिक और अभेद होना महत्वपूर्ण था।
मगर सर्वोच्च न्यायलय ने इस अधिकार के प्रति जो कुछ निर्णय दिया है उसने भारतीय प्रजातंत्र की उसकी प्रजातांत्रिक प्रकृति ही भीतर से नष्ट कर देने के मार्ग को खोल दिया है। तानाशाही राज्य के हमेशा ही यह प्रयास रहते रहे है कि किसी भी बहाने -चाहे वह राष्ट्रीय सुरक्षा हो, चाहे जनहित मूलभूत जीवन सामग्री आवंटन हो, या फिर अपराध नियंत्रण का बहाना हो -- वह अपने मनमर्ज़ी से अपने तरह के विपक्ष का निर्माण प्रोत्साहित करें जो कि असल मे तानाशाह को कष्ट न दे, बल्कि जनता को प्रजातंत्र के खोखले ढांचे पर नियंत्रित करने का माध्यम बन जाये।
सर्वोच्च न्यायालय के निर्णय से राज्य के पास मनमर्ज़ी भेदभाव करने का अस्त्र आधिकारिक रूप से आ गया है जिससे वह खुद तय करे कि उसके समक्ष किस तरह का विपक्ष खड़ा हो। राज्य अपनी शक्ति से मनपसंद लोगों की गलतियों को अनदेखा कर सकेगा और नापसंदों को दंडित करेगा उनकी एकांकता में भेद करके उनकी गलतियों को दिखा कर।
तानाशाह राज्य ऐसा करने में अधिक आसानी प्राप्त कर सकता है यदि उसके पास नागरिकों की एकान्तता को भेद सकने की वैधता प्राप्त हो जाये। क्योंकि अब तो मात्र राज्य के पास ही यह क्षमता रह जायेगी की वह यह तय करे कि एकांकता में गलत नागरिक को उसकी गलतियों के लिए सज़ा दिलवा दे और किसको बच कर निकल जाने दे।
एकान्तता के अधिकारों के आधीन ही वह क्षमता वास करती है जिससे विपक्ष राज्य की असीम शक्तियों का मुकाबला करके बदलाव को प्राप्त करने के लिए प्रयास कर सकता है। किसी भी वास्तविक प्रजातंत्र में विपक्ष का आर्थिक आर्थिक शसक्त होना इस दिशा से महत्वपूर्ण भी है। एकांकता के अधिकार उस श्रेणी के अधिकार है जो कि प्रजातंत्र को उसी प्रकृति को प्राप्त करने में मार्ग उपलब्ध करवाता है। इसलिए इसका मौलिक और अभेद होना महत्वपूर्ण था।
मगर सर्वोच्च न्यायलय ने इस अधिकार के प्रति जो कुछ निर्णय दिया है उसने भारतीय प्रजातंत्र की उसकी प्रजातांत्रिक प्रकृति ही भीतर से नष्ट कर देने के मार्ग को खोल दिया है। तानाशाही राज्य के हमेशा ही यह प्रयास रहते रहे है कि किसी भी बहाने -चाहे वह राष्ट्रीय सुरक्षा हो, चाहे जनहित मूलभूत जीवन सामग्री आवंटन हो, या फिर अपराध नियंत्रण का बहाना हो -- वह अपने मनमर्ज़ी से अपने तरह के विपक्ष का निर्माण प्रोत्साहित करें जो कि असल मे तानाशाह को कष्ट न दे, बल्कि जनता को प्रजातंत्र के खोखले ढांचे पर नियंत्रित करने का माध्यम बन जाये।
सर्वोच्च न्यायालय के निर्णय से राज्य के पास मनमर्ज़ी भेदभाव करने का अस्त्र आधिकारिक रूप से आ गया है जिससे वह खुद तय करे कि उसके समक्ष किस तरह का विपक्ष खड़ा हो। राज्य अपनी शक्ति से मनपसंद लोगों की गलतियों को अनदेखा कर सकेगा और नापसंदों को दंडित करेगा उनकी एकांकता में भेद करके उनकी गलतियों को दिखा कर।
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