Why I don't agree with the social media appeal campaign to boycott Chinese goods

I strictly don't believe in the *Boycott Chinese Goods* theory. 
   I think  that Indian corporates need to learn to compete with the Chinese manufacturer instead of passing on the burdens created from their failures onto the customers , by illegitimately invoking the patriotic feeling of the people in order to make them  boycott the Chinese made goods.

Boycotting the goods, in my views, is but a game of hypocrisy designed by the corporates and meant to harvest profits to them. 
   The game begins from a honest and sincere intention of well-being of the world, that oft-spoken vasudhev kutumbkam phrase, in the light of severe devastation suffered by the humanity in the two world wars. The idea of Globalization  was mooted in order to help the countries fulfill  their needs of development.  This is the line that the government officially holds even to this date.

But in the back offices, the corporates send out misleading social media messages to boycott the goods of certain countries, particularly in the pretext of patriotism.

Incidently, the corporates almost control the government these days. 

Then, Did you ever think why are the corporates interested in this kind of double game. Officially they follow the Globalization theory, and informally they want you to remain nationalistic and patriotic ?

*चाइनीज़ सामान के राष्ट्रवादी और देशप्रेम के आवेश में बहिष्कार करवाने के पीछे क्या प्रेरणा हो सकती है ?* 

द्वितीय विश्वयुध्द के बाद इतना सारा जान और माल का नुकसान देख कर इंसानियत के सभी सच्चे नेताओं का दिल दहल गया था। वह मंथन करने लग गए थे कि आखिर इतनी तबाही के पीछे इंसानों की क्या ललक थी , वह कौन सी तीव्र इच्छा थी जिसकी पूर्ति के लिए इतना लहू बहाया गया, और क्रूरता और बर्बरता को अंजाम दिया गया।

वह ललक थी समृद्धि होने की। धरती पर भगवान् ने सभी देशों को उसके विकास के लिए आवश्यक प्रत्येक संसाधन उपलब्ध नही करवाया है। भगवान् का न्याय अक्सर ऐसा ही होता है, जिसमे आवंटन और वितरण के समय भगवान् सभी को परस्परता के सूत्र से बांधता भी है, और जौविक संतुलन बनाये रखने के लिए आवश्यक शत्रुता के बीज भी बो देता है। 
इतने विशाल युद्धिक तबाही का कारण था एक देश का दूसरे देश के प्राकृतिक संसाधनों को अधिग्रहित करने की लालसा। जिससे कि वह विकास कर सके, समृद्ध हो पाए।
तो ऐसे में इंसानियत के सच्चे नेताओँ को लगा कि भविष्य में ऐसे विश्व युद्ध न हो इसके लिए ऐसी युद्ध विहीन, शांतिप्रिय आर्थिंक व्यवस्था की संरचना करी जाए जिससे सभी देश अपने अपने अतिरिक्त संसाधन को निर्यात भी कर सके और अपने खुद के आवश्यक संसाधनो का आयात भी कर ले। व्यापार के इस वैश्विक स्तर को वैश्वीकरण यानी ग्लोबलाइजेशन (Globalization) कह कर पुकारा गया।

याद रहे कि ग्लोबलाइजेशन की मंशा बहुत नेकनीयत वाली है। इसमें कही कोई छल-कपट नही है। इसका उद्देश्य युद्धों को रोकना है, विश्व शांति को कायम करना है।

मगर ग्लोबलाइजेशन के तहत देशों के बीच आदान प्रदान के रास्ते खुल जाने से उद्योगों के बीच एक नई किस्म की आफत आ गयी है।  जैसे, जब उपभोक्ताओं को आयात किये हुए सस्ते सामान मिलने लगते है तो स्थानीय उद्योग को उस आयात किये हुए समान से आर्थिक मुकाबला करना मुश्किल हो जाता है। तब वह सिमटने लगता है। 

स्थानीय उद्योग के आगे बाज़रिय बाधा होती है सस्ते में उसी वस्तु को निर्माण करना। 

 *सवाल है कि इस बाधा से निपटने के नैतिक मार्ग क्या क्या हो सकते है, और पीछे के अनैतिक मार्ग क्या क्या हैं ?*

स्थानीय उद्योग को नैतिक तरीको से बाधा को पार करने के संभावित मार्ग शायद ऐसे हो, जैसे 1) श्रमिको को उच्च स्तरीय प्रशिक्षण देना, जिससे कि वह उच्च स्तर संयंत्रो को चला सकें।
2) उच्च तकनीक संयत्रों का प्रयोग करने अधिक मात्रा में उत्पाद, उच्च गुणवत्ता तथा कम लागत के साथ;
3) नए अनुसंधानों और नित नए सुधारों से बाजार में धाक ज़माना

इत्यादि।

और पीछे वाले अनैतिक मार्ग है कि ग्लोबलाइजेशन के तहत राष्ट्र की आयत नीति को ऊपर से तो वही वसुधेव कुटुम्बकम पर चलने दो, मगर पीछे के रास्ते आयात किये सामान की विक्री में बाधा पहुचाओ ताकि आयात किया हुआ सामान कम बिक्री हो। इसका एक तरीका है राष्ट्रवाद और देशप्रेम की भावना के तहत उस देश के सीधे सामना के प्रति नागरिकों में घृणा फैलवाओ, मगर खुद के उद्योग ग्लोबलाइज़ेशन के तहत उसी देश से सस्ते में सामान को आयात करके मात्र अपना लेबल चिपका कर बेच कर मुनाफा कमाएं ।

तो ऐसे दो-मुहे राष्ट्रवादी और देशप्रेमी तरीको से सिर्फ उद्योगिक लाभ को साधने के उद्देध्य होता है। 
अन्यथा अगर वाकई में किसी देश से कोई कष्ट हो, तब फिर राष्ट्रीय आयात नीति के तहत ही उस देश के सामानों के आयात पर प्रतिबंध लग जाना चाहिए।

है, की नही ?

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