जातिवाद विरोध से श्रमिक शोषण विरोध की दिशा

 *जातिवाद विरोध से श्रमिक शोषण विरोध की दिशा - भाग 1* 

जातिवाद के विरोधियों की विचार शक्ति आज भी संकुचित हैं। यह लोग जातिवाद के अन्याय को झेलने के बाद अब जातिवादी अन्याय की पीड़ा के सदमे वाली मनोविकृति से ग्रस्त हो गए हैं। 
इसलिए इस समूह ने जातिवाद की समस्या को उसके व्यापक दुर्गुणों के माध्यम से न ही पहचान पाया और न ही अपने आंदोलन को विस्तृत बना पाया है। और देश और समाज आज वापस उन्ही दुर्गुणों से ग्रस्त है जिनसे जातिवाद निकला था।

श्रमिक शोषण वह मूल दुर्गुण है जिसको चिन्हित करने में आज भी जातिवाद विरोधी विफल है, और जिसके चलते यह अपना आंदोलन विस्तृत नही कर पाए हैं। शुद्र जाति समूह अपने प्रति हुए अन्याय को आज तक सिर्फ ब्राह्मणवाद के विरुद्ध लड़ाई के रूप में ही देखता और समझता आया है, जिसके चलते न तो वह अपने आंदोलन को व्यापक, अंतर्जातीय बना सके हैं, और न ही भारतीय समाज को श्रमिक शोषण से मुक्त कर पाए हैं।

   सामंतवाद समस्या ने किसी काल में समूची दुनिया को त्रस्त किया था। मगर पश्चिम देशो में सामंतवाद के विरोध में न्याययिक सुधार हुआ, श्रमिक कानून और आंदोलन तीव्र हुए, न कि कोई पीड़ित जाति समूह किसी राजनैतिक उठ्ठापटक का लाभ लेने के लिए खड़ा हुआ।
   आज आवश्यकता यह है कि जातिवाद विरोधी समूह को अपनी पहचान श्रमिक जाति समूह के रूप में करनी होगी। और जातिवाद विरोध के आंदोलन को परिवर्तित करके श्रमिक शोषण विरोधी आंदोलन के रूप में करने के आवश्यकता है। इसके साथ ही इस आंदोलन को विस्तृत करके सर्व-जातिय श्रमिक आंदोलन में नवजीवित करने की आवश्यकता है।
     जातिवाद पीड़ित समूह की वास्तविक चारित्रिक पहचान श्रमिक वर्ग वाली है। वैदिक काल में शुद्र वही था जो कि निम्म और मध्य स्तरीय कार्यकौशल रखता था, जैसे मोची, बड़ई, राजमज़ूर, इत्यादि। दूसरे , समकालीन अर्थो में समझें तो शुद्र का अभिप्राय वर्तमान काल मे नौकरी पेशे वाले और प्रोफ़ेशनल (Professional and service class) लोगो से है। 
     पीड़ित जातीय समूह की दूसरी पहचान यह है कि यह वह लोगों या समुदायों के समूह है जिनको अतीत काल में किसी उद्योग में अभिरुचि नही है। इसलिए जातिवाद पीड़ितों के श्रम का भोग करने वाला वर्ग , उनका स्वामी वर्ग, शूद्रों को नौकरी पेशा दे कर उसमें इनका शोषण करके ही लाभार्थी बन पाया। आश्चर्य जनक तौर पर निम्न जातियों का यह समूह आज भी अपनी उद्योगिक असक्षमता की कमी को ही अपनी शक्ति इसी रूप में देखा करता है कि 'वह कमा कर खाने वाला वर्ग है' (और इसलिए वह कभी भी व्यर्थ नही होगा, कभी भी अप्रासंगिक नही बनेगा) , 'कार्यकौशल वाला समूह है' ; वह अपनी कमियों को अभी तक पहचान नही कर पाया है कि असल मे वह श्रमिक शोषण झेलने वाला समूह है, और ऐसा इसलिए क्योंकि इस वर्ग ने आज तक कोई भी उद्योगिक अभिरुचि नही विकसित करि है।
     तो शूद्र जाति समूह के आंदोलन की विफलता के दो मूल कारक है कि इन्होंने आज तक श्रमिक शोषण के विरुद्ध आवाज नही उठाई है, सिर्फ ब्राह्मणवाद के विरुद्ध ही खड़े हुए हैं ; और दूसरा की इन्होंने अपनी जातिगत मुक्ति के लिए अभी तक कोई भी उद्योगिक अभिरुचि नही विकसित करि है। यह वर्ग हमेशा से वही रहा है जिसे की कोई दूसरा वर्ग नौकरी देता है, श्रमिक कार्यों में लगन करने का अवसर देता है, और फिर जहां इसका शोषण करता है। निम्म जाती समूह खुद वह वर्ग है जिसने न कभी दूसरे से श्रम करवाया था, और न ही आज तक ऐसा बन पाया है जो कि किसी और को नौकरी देता है, उसको श्रमिक लगन का अवसर देता है।
     यह दूसरी वाली कमी का ही प्रकोप है कि शूद्र जाति समूह ने आज तक न्याय और कानून को ठीक से समझ ही नही पाया है, और इस लिए शोषण के तमाम हथकंडों से मुक्ति नही प्राप्त कर पाया है। न्याय और कानून की गुत्थी यह है कि न्याय के तराजू में श्रमिक और उसके उद्योग स्वामी दोनों को ही बराबर समझना पड़ता है। और चूंकि उद्योग करना भी न्याय सिद्धांतों पर एक विशिष्ट तर्क है, जिसको निम्म जाती वर्ग कभी समझ ही नही सका है, इसलिये निम्म जाती वर्ग अपने शोषण के विरोध में न्याय प्राप्त करने में असफल होता आया है। अंततः उसने अपनी पहचान के उस दुर्गुण , यानी श्रमिक शोषित वर्ग, को ही अनदेखा करना आरम्भ कर दिया है जो कि उसके आंदोलन को विस्तृत बना सकता था।

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*जातिवाद विरोध से श्रमिक शोषण विरोध की दिशा -- भाग 2*

पश्चिमी देश आज अभी श्रमिक शोषण कानून के प्रति उतने ही संजीदा है जितना कि पहले हुआ करते थे। निम्म जाति वाले वर्ग , यानी श्रमिक वर्ग, को अभी हाल फिलहाल में घटी कुछ घटनाओं को गौर से देखना-समझना चाहिए और सबक लेना चाहिए कि भारत मे उनका बदहश्र आज भी क्यों बना हुआ है।
   चाइना के उत्पादों के विरोध का मुद्दा देखिये। ऐसा नही है कि चाइना की सस्ती सामग्रियों से पश्चिमी देशों में बेचैनी नही है , मगर वहाँ और यहाँ भारत में हो रहे विरोधों की प्रवृत्ति के अंतर को समझने की आवश्यकता है, विरोध के पद्धति के गुणों को पहचानने के ज़रूरत है। 
   पश्चिमी देशों में चाइना के उत्पादों का विरोध श्रमिक कानूनों के उलंधन द्वारा निर्माण किये जाने के मार्ग से किया जा रहा है, न कि राष्ट्रवाद और देशप्रेम की भावनाओं को कुरेज़ कर के।
   ऐसा करने का अभिप्राय यह है कि पश्चिमी देशों में चाइना के सस्ते सामग्रियों का विरधी वर्ग वहां का श्रमिक वर्ग है, न कि उद्योगिक वर्ग। बल्कि वहाँ भी उद्योगिक वर्ग असल मे चाइना की निम्म कीमत उत्पादन क्षमता का लाभकर्ता ही है, जैसा कि यहां भारत मे भी है। आप खुद ही देखे की भारत मे अगर किसी कंपनी को सिम कार्ड बनवाने थे तब उसने चाइना से आर्डर देकर सस्ते में प्राप्त कर लिया। अगर किसी शहर में मेट्रो ट्रैन चलनी थी तो इसके निर्माण का अरबों रुपये का ठेका चाइना की कंपनी को ही मिल गया।
    यानी भारत का उद्योगिक वर्ग वास्तव में तो चाइना के सस्ते उत्पादों का लाभार्थी है। और वह चाइना के उतपादो पर किसी भी प्रशासनिक प्रतिबंध के पक्ष में कभी भी खड़ा नही होगा। तो फिर देशभक्ति और देशप्रेम के नाम पर चाइना के सस्ते समानों का विरोध करने का संदेश सोशल मीडिया द्वारा कौन फैलवा रहा है। ? असल मे यही उद्योगिक वर्ग है जो कि यह कार्य भी कर रहा है पीछे के रास्ते। इसका वास्तविक मकसद भारतीय उपभोक्ता को स्वयं सीधे सीधे चाइना के सस्ते सामानों को खरीद कर उपभोग से प्रभावित करने का है।
     इसके मुकाबले पश्चिमी देशों में चाइना के सस्ते सामानों का विरोधी वहां का श्रमिक वर्ग है। उसने अनुसार चाइना में यह समान वहां श्रमिक शोषण के चलते इतने सस्ते में निर्मित हो पाता है। तो इस तरह पश्चिम देशो के उद्योग किसी उत्पाद को चाइना से सस्ते में निर्मित करवा कर असल मे उसके देश के अपने श्रमिक कानूनों से छलावा कर लेते हैं। जो श्रमिक शोषण वहां का उद्योगपति अपने देश मे, अपने नागरिकों के संग वहां की न्यायपालिका के तीव्र श्रमिक शोषण विरोधी तेवरों के चलते नही कर पाता है, उसे वह चाइना में प्राप्त कर लेता है। 
     पश्चिमी देशों की न्यायपालिका और श्रमिक संघटनों ने इस बात की पहचान कर ली है। असल मे प्रवास की समस्या में भी श्रमिक शोषण की प्रवृत्ति को पहचान कर लिया गया है, जिसके चलते वह दक्षिण एशिया (यानी भारत और चाइना) के श्रमिकों का विरोध करते हैं। इस देशो के श्रमिक सदियों से शोषण झेलते आये हैं, इसलिए यह लोग अक्सर करके पश्चिमी देशों के अपने शोषण विरोधी कानून के ऊंचे मानदंडों का पालन करने में रियायत करके कार्य के ठेके को सस्ते में कर लेते है, जो कि स्थानीय नागरिक-श्रमिक शायद अस्वीकार कर दे।
     अमेरिका में राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रम्प की पुत्री इवांका के फैशन वस्त्र परिधान उद्योग का जो अंश चाइना में निर्मित होता था, चाइना की उस फैक्ट्री में होने वाला श्रमिक शोषण कुछ दिनों पहले ही अखबारों की सुर्खियां बना था। उद्देश्य था कि अमेरिकी नागरिकों को संज्ञान दिया की कही राष्ट्रपति ट्रम्प श्रमिक शोषण को बढ़ावा तो नही देते हैं।
      इसी तरह विश्वविख्यात मोबाइल फ़ोन निर्माता ऐप्पल कंपनी के जो कलपुर्जे चाइना में निर्मित किये जाते थे, उस फैक्ट्री में होने वाला श्रमिक शोषण का संज्ञान अमेरिका के न्यायालयों ने तुरंत लिया और ऐप्पल कंपनी बाध्य हुई कि वह चाइना में भी वैसे ही स्तर के श्रमिक कानूनो का पालन करेगी जो कि अमेरिका में लागू होते हैं। ऐसा निर्णय और न्याय किये जाने से दुनिया भर के श्रमिको का लाभ तो हुआ ही, साथ ही अमेरिका के अपने श्रमिकों के लिए भी अच्छे अवसर पैदा होने का माहौल बना की ऐप्पल कंपनी प्रेरित हो सके कि यदि उसे उतने ही धन व्यय करने की बाध्यता है तो फिर शायद वह अमेरिका में ही कलपुर्जे निर्माण करवा लें, बजाए चाइना भेजने के।
    यह पश्चिमी देशों के श्रमिक शोषण विरोधी कानूनों का ही प्रतिफल है जिसके चलते भारत मे कुछ एक उच्च वेतन वाली नौकरियां उपलब्ध है। गौर करें कि यह वही नौकरियां हैं जिसमे अंतर्देशीय श्रमिको का प्रयोग चलन में है। अब क्योंकि उद्योग स्वामी जो कि पश्चिमी राष्ट्र का है, उसे अपने देश के श्रमिक कानून के मानदंडों को मनाना पड़ता है, इसलिए वह उच्च वेतन देने के लिए बाध्य हो जाता है। अन्यथा शायद भारतीय उद्योगस्वामी अपनी किसी प्रेरणा से उसी श्रमिक क्षेत्र में उच्च वेतन कदाचित नही दे।
     श्रमिको और कामगारों के पक्ष में आये वयापक और प्रभावकारी फैसले पश्चिमी देशों से ही हैं। हाल में एक और न्यायिक फैसला नव कालीन टैक्सी कंपनी उद्योग ,( जैसा ola या uber) के क्षेत्र का गौर करने लायक है। इन कंपनियों के स्वामियों ने अपने श्रमिकों , यानी टैक्सी चालकों को free lance घोषित करके यह लाभ प्रकट किया कि यह श्रमिक अपनी स्वेच्छा से कंपनी से कभी भी जुड़ और अलग हो सकते हैं। ऐसा करने से यह उद्योगस्वामी खुद को छुट्टी वेतन, स्वाथ्य बीमा इत्यादि की श्रमिक कानून आवश्यकता से बच निकले थे। ब्रिटेन के एक कोर्ट ने फैसला दिया कि - नही , टैक्सी चालकों को उद्योगस्वामी द्वारा यह सब सुविधाएं भी उपलब्ध करवानी पड़ेंगी। 
      इस फैसला के तर्क ऐसे समझा जा सकता है कि उद्योगस्वामी की खुद की कमाई और लाभ तो सदैव ही संरक्षित है, भले ही एक-दो टैक्सी चालक किसी दिन कार्य के अनुपलब्ध रहे, मगर उस अनुपस्थित श्रमिक के उस दिन का जीवनावश्यक कमाई किन्ही जीवनावश्यक कारणों से क्रिया करके नष्ट हो जाती है, यानी संरक्षित नही रह पाती है। तो, उद्योगस्वामी के कमाई का संरक्षण निरंतर बना रखता है, जबकि श्रमिक का नही। और न्यायपालिका ने स्वीकार किया कि यह भी अपने मे एक अन्याय ही है।

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जातिवाद विरोधियों को श्रम के वर्तमान स्वरूप , यानी नौकरी पेशों में लागू श्रमिक कानूनों के उलंघ के प्रति संजीदा होने की आवश्यकता है। वर्तमान काल मे श्रमिक वर्ग की कोई विशिष्ट पहचान किसी जाति विशेष से नही रह गयी है। श्रमिकों की पहचान में न कोई ब्राह्मण है , और न कोई शूद्र। ऐसे में केवल ब्राह्मणवाद के विरुद्ध ही खड़ा रह जाना अपने मे मध्यकाल जातिवाद को पुनरस्मृति करके बढ़ावा देने के जैसा ही है। निरंतर घटते बैंक ब्याज दर, पेंशन संबंधित अनियमितताएं , प्रशिक्षण संबंधित अनियमतायें, पदुन्नति में भेदभाव और पक्षपात, इत्यादि को नए युग मे श्रमिक शोषण का स्वरूप मानने की आवश्यकता है, और कोर्ट और सरकार से इनका विरोध करने की ज़रूरत है। केवल जातिगत आरक्षण  के लिये संघर्षरत रहना आंदोलन को संकुचित कर देता है, और समाज मे विभाजन उत्पन्न करता है।
    जातिवाद विरोधियों को अपने कुएं से बाहर निकल कर श्रमिक शोषण से भरी बड़ी दुनिया देखने की ज़रूरत है।

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