राजा भोज तथा भोजपुरी भाषा का संबंध

भोजपुरी भाषा पूर्वी उत्तर प्रदेश और उत्तरी बिहार में बोली जाने वाली बोली का नाम है। यह नाम इस क्षेत्र में प्रसिद्ध राजा भोज के नाम से आया है।

कौन थे राजा भोज , और क्यों प्रसिद्ध थे यह ?

राजा भोज का शासन करीब 12 शताब्दी में उज्जैन के राजसिंहासन से हुआ करता था। वह परमार राजवंश से आये शासक थे। उनकी प्रसिद्धि उनकी न्यायप्रियता और बुद्धिमता के चलते थी। टीवी पर 1980 के दशक में दिखाए जाने वाले दो धारावाहिक राजा भोज के इर्द गिर्द निर्मित थे। एक था सिंहासन बतीसी और एक था विक्रम और बेताल । इनके ही शासन के दौरान उज्जैन ने कला, विज्ञान, ज्यातिषी के माध्यम से नक्षत्रविज्ञान (astronomy) में श्रेष्टतम प्रदर्शन किया था।
     राजा भोज का शासन मध्य भारत मे एक विस्तृत क्षेत्र में स्थापित था। एक अन्य प्रसिद्ध कहावत कहाँ राजा भोज, और कहां गंगू तेली भी इन्ही से संबंधित है। कहते है कि कोल्हापुर (जो कि वर्तमान में महाराष्ट्र राज्य में स्थित है) ,तक उज्जैन के राजा भोज का शासन था। वहां एक बार एक किले के निर्माण के दौरान निर्माण का कुछ अंश बार बार गिर जाया करता था। कारीगरों और तत्कालीन विश्वकर्मा अभियंताओं का तत्कालीन श्रद्धाओं के अनुरूप मानना था कि ऐसे स्थानीय ईष्ट को प्रसन्न नही करने के कारण उनका अभिशाप की वजह से हो रहा है। निर्माण से पूर्व कोई नरबलि दी जाती थी कि ईष्ट उनको आगे निर्माण के दौरान कोई जानलेवा बांधा न पहुचाये। यहां पर आ रही बाधा से निपटने के लिए किसी नवजात की आहुति की बात उठने लगी। ऐसे में सवाल था कि कौन देगा अपना नवजात शिशु आहुति के लिए।
तब वहां के एक अमुक स्थानीय व्यक्ति गंगू तेली ने अपने शासक की मुश्किलों को समझते हुए अपने नवजात शिशु को प्रस्तुत किया। आहुति के बाद ही यह निर्माण सिद्ध हो सका, मगर राजा भोज ने इस परम त्याग के सम्मान में उस किले में गंगू तेली के पत्नी और शिशु की स्मृति में एक मूति स्मारक भी निर्माण करवाया। आज भी कोल्हापुर किले में इस स्मारक को देखा जा सकता है। कहावत का संदर्भ यूँ है कि लोगों में चर्चा यह बन गयी थी कि अपने इस परम बलिदान के उपरांत गंगू तेली खुद को राजा भोज का बहोत नज़दीकी परम मित्र मानने लग गया था, क्योंकि उसे लगता था कि राजा के दोने वक्त में वही उनके कार्य मे सहायक साबित हो सका। वही से यह कहावत निकल पड़ी, कहाँ राजा भोज और कहां गंगू तेली
यानी 
कभी-कभी किसी बड़े व्यक्ति की किसी छोटी , सहायता नही दिए जाने वाले कार्य को कोई मूर्ख व्यक्ति आगे बढ़ कर अपने बलिदान से पूर्ण करवा है और फिर गर्वान्वित महसूस करता है, और खुद को भी राजा का मित्र समझने लगता है कि आज वही राजा का सच्चा मित्र साबित हुआ है।

राजा भोज से संबंधित अनेको दंतकथाएं लोगो मे प्रचलित थी। कई सारे इतिहासकार मानते हैं अपने न्याय और प्रजापालन के लिए प्रसिद्ध काल्पनिक नाम,  राजा विक्रमादित्य , शायद राजा भोज का ही एक उपनाम था।
समूचे विश्व में प्रजापालन के लिए प्रसिद्ध शासक, जैसे इंग्लैंड के किंग ऑर्थर, और भारत मे राजा विक्रमादित्य इत्यादि का प्रमाणित इतिहासिक अस्तित्व आज भी पुरतत्वकर्ताओं के लिए एक अबूझ पहेली है। वर्तमान पुरातत्व विज्ञान के अनुसार अधिकांशतः ऐसे सम्राट दंतकथाओं की उपज ही पाए गए है।
   राजा विक्रमादित्य भी अपने न्याय सूत्रों के लिए बहोत प्रसिद्ध थे। टीवी पर बना धारावाहिक *विक्रम और बेताल* उन्ही के न्यायसूत्रों से प्ररित कहानियों का समूह है, जिसमे एक पेड़ पर उल्टा लटका भूत, बेताल, बार बार राजा विक्रमादित्य को कहानी के रूप में एक परिस्थिति वाला प्रश्न देता है और पूछता है कि इस परिस्थिति में क्या उचित न्याय होना चाहिए। *विक्रम* यानी राजा विक्रमादित्य न्याय परिस्थिति पहेली का सही उत्तर देते हैं, जिसका कि भूत बेताल प्रशंसा तो करता है, मगर अपनी एक शर्त के अनुसार, विक्रम द्वारा मूक टूटने की वजह से वह विक्रम के कंधों से बीच मार्ग से बार-बार उड़ कर वापस अपने वृक्ष पर लौट कर उल्टा लटक जाता है।
      बरहाल, राजा भोज ने आपने शासन के दौरान अपनी राजधानी उज्जैन से हट कर झीलों और तालाबो के समीप निर्मित एक नए शहर में स्थापित करी, जिसे की *भोजताल* कहा जाता था। ।समयकाल में यह नया शहर *भोपाल* नाम से प्रसिद्ध हुआ, जो कि वर्तमान भारत के केंद्रीय राज्य क्षेत्र , मध्यप्रदेश की राजधानी है।
         राजा भोज के उपरांत परमार राजवंश समयकाल में बाकी सभी शासकों की ही तरह कही न कही अस्त हो गया। उनके वंशजो दो समूहों में विभाजित हो गए, जिनमे से एक समूह उत्तर पूर्वी भारत मे स्थापित हो कर वापस भोज साम्राज्य को स्थापित करने का प्रयास करता है। इसी समूह को समाजशास्त्रियों और इतिहासकारों ने *पूर्बिया* या *पुरवईया* नाम से पुकारा। *पूर्बिया* लोग ने क्षत्रों में निवास किया, उसे यह लोग अपने प्रसिद्ध पूर्वज, राजा भोज , के नाम से भोजपुर कह कर पुकारते थे। बस वही से इन क्षेत्रों में बोली जाने वाली भाषा को *भोजपुरी* नाम दे दिया गया।
मुगलों के शासन के दौरान यह समूह , *पूर्बिया परमार वंश*, कभी कभार बीच-बीच मे अपना एक राज्य स्थापित करते रहे हैं। आज़ादी के उपरांत भोजपुर क्षेत्र का छोटा अंश बिहार राज्य में एक जिला के रूप स्थापित किया गया।

भोजपुर क्षेत्र में राजा विक्रमादित्य के प्रजापालक और न्यायप्रिय होने की गवाही देती दंत कहानियों पर बना एक और टीवी धारावाहिक था *सिंहासन बत्तीसी*। प्रचलित दंतकथा के अनुसार भोजपुर में कहीं किसी मिट्टी के टीले में एक अजब शासन शक्ति का निवास था। एक चरवाहा घटनावश उस टीले तक पहुंच गया, और जब भी वह उस टीले पर बैठ कर कोई भी स्थानीय ग्राम समस्या का न्याय निवारण करता था, वह न्याय बहोत ही प्रशंसनीय हो जाता था। फिर एक मान्यता बंध गयी कि उस टीले के नीचे ही प्रसिद्ध राजा विक्रमादित्य का राज सिंहासन दफन है, और जो भी टीले पर चढ़ाता है, वह असल मे राज सिंहासन पर विराजमान हो रहा होता है। सिंहासन के गोल में बत्तीस, यानी 32, कठपुतलियां लगी हुई है, जो कि तिलिस्मी कठपुतली है, और विक्रमादित्य के सभी न्याय सूत्र इन्ही में संरक्षित है। यह कठपुतलियां चरवाहे को दिखाई देने लगती है और नाटक के द्वारा उसे उपयुक्त न्याय सूत्र समझा दिया करती है। बस, इसी के चलते वह चरवाहा भी किसी श्रेष्ठ शासक की भांति जन प्रशंसनीय न्याय वाचन कर देता है।    

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