आज 'भारतीय व्यवस्था और समाज' के जीवन का एक पूर्ण चक्र हो गया है
अभी कुछ सालों पहले तक हमारे समाज में यह समझा जाता था कि बहस करना एक किस्म का मनोरोग होता है । एक डॉक्टर ने तो एक पूरा लेख ही लिख डाला था की बहसि व्यक्ति में किस मनोरोग के आशंकाएं हो सकती हैं । संस्थाओं में , ट्रेन में , सफ़र में यात्रियों में , ..अभी तक कई जगहों पर बहस को मनोरोग समझा जाता है । इस धारणा का परिणाम यह था की लोगों ने प्रशन करने के मस्तिष्क पर स्वयं ही विराम लगा लिया था कि कहीं उन पर "बेहसी" होने का इल्ज़ाम न लगे , और , फिर जैसा की डॉक्टर ने कहा , मनोरोगी होने का संदेह ! असल में भारतीय तंत्र की निंदा तो बहोत लोगों ने करी- सरकारी सेवा से सेवानिवृत्र अधिकारीयों में यह 'मनोरोग' खूब दिखता है जो न जाने किस तंत्र, किस व्यथा की निंदा कर रहे होते हैं , और न जाने किस वस्तु, किस नियम , किस व्यक्ति की अपनी निंदा का केंद्र बना कर 'बहस' कर रहे होते हैं । और आस-पास बैठे युवा छात्र , 'प्रोफेशनल' , इत्यादि जो की देश की राजनीतिक , प्रशाशनिक और न्याय-कानून व्यवस्था से अनभिज्ञ होते है , धीरे से ऐसे बुजुर्गो को "पागल " समझ ...