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Showing posts from April, 2013

आज 'भारतीय व्यवस्था और समाज' के जीवन का एक पूर्ण चक्र हो गया है

            अभी कुछ सालों पहले तक हमारे समाज में यह समझा जाता था कि बहस करना एक किस्म का मनोरोग होता है । एक डॉक्टर ने तो एक पूरा लेख ही लिख डाला था की बहसि व्यक्ति में किस मनोरोग के आशंकाएं हो सकती हैं । संस्थाओं में , ट्रेन में , सफ़र में यात्रियों में , ..अभी तक कई जगहों पर बहस को मनोरोग समझा जाता है । इस धारणा का परिणाम यह था की लोगों ने प्रशन करने के मस्तिष्क पर स्वयं ही विराम लगा लिया था कि कहीं उन पर "बेहसी" होने का इल्ज़ाम न लगे , और , फिर जैसा की डॉक्टर ने कहा , मनोरोगी होने का संदेह !        असल में भारतीय तंत्र की निंदा तो बहोत लोगों ने करी- सरकारी सेवा से सेवानिवृत्र अधिकारीयों में यह 'मनोरोग' खूब दिखता है जो न जाने किस तंत्र, किस व्यथा की निंदा कर रहे होते हैं , और न जाने किस वस्तु, किस नियम , किस व्यक्ति की अपनी निंदा का केंद्र बना कर 'बहस' कर रहे होते हैं । और आस-पास बैठे युवा छात्र , 'प्रोफेशनल' , इत्यादि जो की देश की राजनीतिक , प्रशाशनिक और न्याय-कानून व्यवस्था से अनभिज्ञ होते है , धीरे से ऐसे बुजुर्गो को "पागल " समझ ...

भारत की दस प्रमुख समस्याएं और मौजूदा में उपलब्ध उनके चार निवारण

( मूल  रचना  किसी अज्ञात व्यक्ति की ) भारत की दस प्रमुख समस्याएं और मौजूदा में उपलब्ध उनके चार निवारण   भारत की दस प्रमुख समस्याएँ हैं : १) गरीबी  २) अशिक्षा / अज्ञानता  ३) भ्रस्टाचार  ४) योग्यता विहीन व्यक्तियों को उच्च निर्णय पदों पर आसीन करना ( Cronyism, इसे जातिवाद , परिवार-वाद नाम से भी जाना जाता है ) ५) महिलाओं और बच्चों के साथ दुर्व्यवहार  ६) अनुचित/अयोग्य अनुसरणिय नायक , या फिर वास्तविक जीवन में नायकों का आभाव ( अनुचित/अयोग्य नायक जैसे की राजनीतिग्य , फिल्मी सितारे , साधू/ मौलवी इत्यादि , सफेदपोश अपराधिक तत्त्व)  ७) अंतर -समाज/ सांप्रदायिक / अंतर-जाती विवाद  ८) मूल्यों का पतन (हमारा आचरण- अपने घरों में , घरों के बाहर, अपने बच्चों को मूल्यों के प्रति जागृति ) ९) अटपटे कर्मकांडी प्रथाएं - सभी मजहब और पन्थो में , १०) वास्तविक प्रजातंत्र का अभाव - कुछ परिवारों द्वारा देश की राजनीत पर काबिज़ हो जाना |   इन सभी १० समस्याओं के मौजूदा में उपलब्ध ४ निवारण  १) हर एक चुनाव में वोट दीजिये , चुनाव के प्रति उदासीन न रहिय...

An illusion called Indian State

Given the present state of affairs, where the Solicitor general has made false statements before the supreme court, the PM and Law Min refusing to resign, it is time we reflect back to take some stock of things..this time with the purpose of personal enhancement , to improve our thinking ability :-  1) The case of "Hit and Run" : Many people had accused Kejriwal and team of trying "Hit and Run" and not standing up the accusation they were making against some big and powerful people. The phrase has caught up with us like a rhetoric, putting our mind into numbness through 'Good English learning technique'.             Time we all reflect back, what best results we can get if we are going to try for a conclusive logical outcome of any accusation made against the people in government. Otherwise, you are guilty of doing "hit and run".  2) The old speeches and statements of MMS : MMS made a lots of statements against the Anna and AK sponsored the Jan...

क्यों दिल्ली के पुलिस प्रमुख अपना इस्तीफा दे दें

        दिल्ली के पुलिस कमिश्नर का पूछना है की वह क्यों त्यागपत्र दे दें । अपनी बात को समझाते हुए वह पत्रकारों यह भी पूछते हैं की अगर कोई संवाद-दाता गलत खबर देता है तब क्या उस न्यूज़ चैनेल का एडिटर इस्तीफा दे देता है ।    उनकी बात भी जायज़ है । किसी एक, या कुछ एक सह कर्मियों की गलती के लिए उसके बॉस को सजा देना कोई इन्साफ नहीं है । ऐसे तो हर बॉस को हटाने के लिए उसके सहकर्मी की गलतियों को दिखला का "राजनीती" करी जा सकेगी , पुलिस के बॉस को दबाव में रखने की ।                मगर क्या यहाँ मुद्दा किसी उपकर्मी की गलतियों का ही है ? यहाँ तंत्रीय गलती तो नहीं हुयी है ? अक्सर कर के उच्च पदाधिकारी तंत्र पर ऑडिट का काम करते हैं । कितनी पीसीआर गद्दियाँ है, कहाँ तैनात है , इसके नियमो को बनाना , उनके पालन को देखना इनका काम होता है । उप्कर्मी की ट्रेनिंग , वह ट्रेनिंग के मुताबिक कम कर रहे हैं की नहीं, कौन सी नयी ट्रेनिंग की आवश्यकता है , ..यह सब भी उच्च अधिकारी देखतें है । निर्भया केस के बाद तो इसमें चुस्ती आने का दौर था , यह सब विष...

राजनीतिज्ञों और सांसदों में पुनरावृत-कथनी के मनोविकार

      ऐसा लगता है की मानो भारतीय सभ्यता में कोई मनोरोग कई सदियों, कई पीढ़ियों से घर कर चुका है । हमारी भाषा , हमारे विचार या तो अतीत में फँस जाने की बीमारी से ग्रस्त है, या पुनरावृत-कथनी से । नहीं तो कुतर्क से, तर्क के विरूपण से । सत्य , स्पष्ट , और संतुलित विचार तो कर सकना जैसे की भारतीय नसल में एक असंभव योग है । बचपन से ही "स्मार्ट" बनने की चाहत में हम अपने बच्चों को अंसतुलित विचार की मानसिक क्रिया का आदि बना देते है । बचपन से ही हम इस तर्क मरोरण में अभ्यस्त होते हैं , और स्पष्ट विचार कहने में और सुनने में सनकोचते है ।     संसद में चल रही बहस को सुन कर मन में बहोत सारे विचार आते हैं। मुख्यतः खुद भारतीय होने की ग्लानी लगती है । आधे से ज्यादा वाचक तो उसी एक बात, एक विचार की पुनरावृत-कथनी करते सुनाई देते है । तकनिकी बिंदु तो शायद एक भी नहीं होता है । कैसे बनेंगी कार्य-पालक नीतिया इस देश में , सभी तो मानो सत्संगी विचारों में ही बात कर रहे होते है । इन विचारों को को क्रिया में बदल सकने के विचार तो जैसे किसी में हैं ही नहीं । सब के सब आ कर अपने "सत्संग" सुना जाते ...

"अगर हालात में सुधार नहीं कर सकते तब उन्हें मेकप से ढक कर धोका दे लो"

      जन-उन्माद जितना भी जोर डाल ले , न्याय की परख से किसी व्यक्ति को महज़ बलात्कार अपराध से मृत्युदंड देना बिलकुल भी उचित नहीं होगा । यह उतर एक नहीं कई बार, न्याय के उच्च विद्वानों से भी मिला है । अगर बलात्कार अपराध के न्याय के लिए पहले ही नियमो, कानूनों को स्त्री के हक में झुकाया जा चुका हो, तब तो मृत्युदंड बिलकुल भी न्याय-संगत नहीं बनता है ।     ऐसे में राजनैतिक पार्टियाँ जन-उन्माद से साथ खड़ी हो कर सिर्फ वोट कमाने की कोशिश कर रही है । यह भारतियों की विशाल और विस्तृत जन-चेतना में बुद्धि-हीनता होगी की हम न्याय की इस विषम परिस्थिति में वह नहीं मांग कर रहे हैं जो इस दुविधा का शायद सबसे उचित निवारण है ।           जीवन-स्तर में सुधार -- यही वह वाक्य है जिसकी मुश्किलों को भापने के बाद कोई भी राजनैतिक पार्टी इसकी मांग करने को तैयार नहीं है , क्योंकि कल अगर वह सत्ता में आ भी गयी तो उसको खुद पे शक है की क्या वह जीवन स्तर में सुधार कर पायेगी । सेंसेक्स के चमक से India Shining और India rising का नारा तो कईयों ने दे लिया , मगर इस जीवन-स्तर में...

गरीब की गरीबी , सेंसेक्स और मुद्रा बाज़ार

क्या हैसियत होनी चाहिए एक दहाड़ी वाले मजदूर की ? क्या यह ५ साल की बच्ची के साथ दुराचार एक निचले तपके में घटी एक घटना मात्र है या यह एक असली सूचक है हमारी राजनीतिक व्यवस्था , प्रजातंत्र , और अंततः हमारी अर्थव्यवस्था का , भले ही सेंसेक्स का सूचकांक कितनो ही ऊपर क्यों न उछाल ले ले ? दिल्ली पुलिस के कुछ लोग मानते है की वह हर एक ३०-४० सदस्यी मजदूरी कर के जीवन जीने वाले परिवार पर नज़र नहीं रख सकते की किसकी मानसिक स्थिति क्या है, कौन व्यक्ति क्या अपराधिक विचार सजों रहा है । सही है , अर्थव्यवस्था प्रजातंत्र नाम की राजनैतिक व्यवस्था का पैमाना होता है । और अर्थव्यवस्था के मौजूदा युग में पैमाना है देश का GDB , और मुद्रा बाज़ार में सेंसेक्स का विस्तार । यह सूचकांक यह दर्शाता है, (एक लक्षण के तौर पर , प्रमाण के तौर पर नहीं ), की देश में कितना व्यवसाय , कितना कारोबार हो रहा है । इसके आगे का दृष्टिकोण, और theory कुछ यूँ है कि -- जितना अधिक कारोबार होगा , उतना अधिक लोगों की आय होगी और उतना अधिक देश समृद्ध होगा ।   मगर जैसा के कहा , यह सूचकांक महज़ एक सूचकाँ होता है , कोई ठोस प्रमाण नहीं । या...

समाचार सूचना और जन-चेतना

क्या अर्थ होता है जब किसी समाचार सूचना में उसका संवाद-दाता , या फिर उसका समाचार चैनल बार बार इस वाक्य को प्रसारित करते हैं की "यह खबर उपको सबसे पहले 'फलाना ' चेनल के हवाले से दी जा रही है "।     मस्तिष्क एक विचारों वाली भूलभुलैया में चला जाता है की इस वाक्य का अभिप्राय क्या है , लाभ क्या है , इशारा क्या है । क्या "सबसे पहले " खबर पहुचने में भी कुछ , किसी विलक्षण किस्म की सूचना छिपी होती है , जो की शायद में मंद मस्तिष्क को समझ में नहीं आई ?     समाचार सूचना की कम्पनियों (न्यूज़ चेनल ) में आपसी प्रतिस्पर्धा इस बात की होती है की कौन सी कम्पनी सबसे बड़ी है जो मानव अभिरूचि के हर कोने-कोने में घटने वाली घटनाओ को तुरंत आम प्रसारण कर के दे सकती है । अपनी इसी व्यापक पहुच को "प्रमाणित "कराने के लिए न्यूज़ चेनल बार-बार इस वाक्य पर जोर देते है की "सबसे पहले " वह खबर उनके माध्यम से आप तक पहुंची है ।     अभिप्राय होता है की जो सबसे पहले खबर तक पहुँच रहा है , वह सबसे व्यापक है , यानि हर कोने-कोने में मौजूद है ।      मगर कुछ एक समाचार संवाद-दाता अपन...

A tragedy on the humanity

The Reserve Bank museum at Mumbai details out how the money came around in human society. The story of advent of money continued further on the sociological track thus:  One big problem that came around with the invention of money was that things started to become commodities. Things started to come for 'sale' , while a consensus was reached that not everything could be up on 'sale' . therefore debates began to flourish what should be and what should not be for sale. Could human emotions be up for sale? human kindness? mother's love? ..so many. The risk was definitely known about what would happen if all these things also went up on sale. There would a total decay of human values.          One challenge fortunately, however, kept the situation under control about the sale of humanity, kindness, love, emotions and all that which make life beautiful. But not for long. the 20th century evolved the science and art of sale of human emotions. The Advertising I...

The faulted criticism of education system in India

    Fallacies pertaining to Linguistics and Philosophy have very frequently and deeply permeated the criticism work on Education system in India. When our faulted critic talks of freedom in education system, he mistakes away the freedom with "freedom to not to study". Although Right to Education is a highly criticized article of the UN Decl of Human Rights, but such a criticism on this article of UNDHR cannot be brought into relevance and play when the Criticism of Education system itself is the issue. Obviously because the criticism of Education System cannot logically amount to mean that people should not be forced to undergo a schooling; the criticism has to restrain itself only to highlight what is not right with the present education system.       This aspect of logic has a been a very significant cause of problem with the Critics, such as Shri Anupam Kher, when they worked in movies such as "Paathshala" and "F.A.L.T.U", or even "3 Idiots"....

Image has become more important than reality.

बडा ही छलिया क़िस्म का युग है आज का । यहाँ वास्तविकता से कहीं अधिक महत्वपूर्ण है छवि ! Perception is more important than reality . मायानगरी बॉलीवुड में तो यह छवि के कारनामें एकदम ही गजब है । कई सरे चलचित्र , सिनेमा कैसे 'हिट ' हो गए है यह तार्किक समझ से परे है । आस पास में कहीं कोई भी व्यक्ति नहीं मिलेगा जो यह कहे की फलाना सिनेमा अच्छी है , मगर जब टीवी और अखबार में पढेंगे तो समाचार होगा की वही सिनेमा 'सुपरहिट' , सौ-करोड़ का कारोबार कर चुकी है ।       'आप क्या है' से कही अधिक महत्वपूर्ण है 'आपकी छवि क्या है' । बॉलीवुड की तो मुख्य संस्कृति ही यह है की सभी एक दूसरे की तारीफ़ ही कर रहे होते है जिसे की सभी मिल कर एक दूसरे का फायदा करा सकें । कही कुछ हल्का-फुल्का अपवाद वैध होता है , मगर इस सीमा में की आलोचित कलाकार का आर्थिक नुक्सान न हो या छवि को दीर्घकालीन चोट न हो ।       कोई क्रिकेट के आईपीएल मैच देख भी रहा है या फिर की टीवी और समाचार खुद्द ही उससे दिन भर दिखा दिखा कर "हिट " घोषित कर दे रहे है , यह पता लगा सकना मुश्किल हो चला है । प्रचार प्रसार...