क्या है 'राजनैतिक महत्वाकांक्षा' - एक विचारविमर्श

मोदी जी के भाषणों को टीवी पर लगभग सभी समाचार चेनल , हिंदी और अंग्रेजी , 'सीधा प्रसारण' में दिखा रहे हैं । इसलिए मेरे जैसे दर्शक अपनी इच्छाओं से दूर हट कर भी इन्हें सुन ही बैठते हैं । इनको सुनते-सुनते मोदी के आलोचकों के विचार भी सुनाई दे ही जाते हैं । मोदी के आलोचकों का एक प्रमुख आरोप "राजनैतिक महत्वाकांक्षा" का है ।
 क्या सन्दर्भ है इस आरोप का - "राजनैतिक महत्वाकांक्षा", और इसमें क्या गलत है ?
सभी व्यक्तियों को जीवन में एक न एक लक्ष्य तो रखना ही चाहिए । लक्ष्य के बिना तो जीवन व्यर्थ हो सकता है , बिलकुल किसी आवारा की भाँती । तब फिर 'जीवन के लक्ष्य' और 'महत्वाकांक्षा' में क्या भेद हुआ ?
'जीवन का लक्ष्य' और 'महत्वाकांक्षा' के बीच का अंतर एक मनोवैज्ञानिक दर्शन के माध्यम से ही समझा जा सकता है । हर व्यक्ति अपने जीवन के लक्ष्य का चुनाव अपनी स्वयं की क़ाबलियत के एक आत्म-ज्ञान के आधार पर ही करता है । वैसे विचारों और इच्छाओं पर कहीं कोई अंकुश नहीं होता , मगर इसका यह मतलब नहीं है की एक स्वस्थ मानसिक अवस्था के व्यक्ति को अपने 'जीवन का लक्ष्य' कोई पक्षी बन कर हवा में उड़ने का रखना चाहिए । अर्थात , 'जीवन के लक्ष्य' के चुनाव में एक छिपे और जटिल आत्म-ज्ञान का प्रयोग करना ही होता है । अब यह ज्ञान कितना आत्मीय और कितना बहाय होता है यह प्रत्येक व्यक्ति के जीवन शैली पर भी निर्भर करता है । अक्सर कर के व्यक्ति के क़ाबलियत का एक ज्ञान थोडा बहाय हो कर उसके मित्रों में , उसके समाज में भी समां जाता है ।
अपनी हद्दो के बाहर जा कर जीवन के लक्ष्यों का चुनाव कोई कुतर्की बात नहीं है । आखिर मनुष्य का विकास -- आर्थिक , वैचारिक और सामाजिक -- तभी होता है जब वह अपने आस-पास की सीमाओं को तोड़ कर बाहर आता है । मगर जब वह अपने लक्ष्यों को अपनी वर्तमान सीमाओं के बहोत दूर ले जाता है , तब उसे महत्वकांक्षी कहा जाता है ।
महत्वकांक्षी व्यक्ति के लक्ष्य तक पहुचने में असफल होने होने के बहोत आसार होते हैं । कभी-कभी वह 'महत्वकांक्षी'-लक्ष्य तक पहुचने में कुछ 'लघु-पथ' अपनाने में गलत मार्गों को पकड़ ले सकता है । 'महत्वकांक्षी'-लक्ष्य तक पहुचने में अपने साथियों , अपने मित्रों को पीछे छोड़ देते हैं । अपनी स्वयं की प्रतिबिम्ब थोडा बड़ा देखने लगते हैं , और अपना व्यवहार अपने वास्तविक आकार से बड़ा समझ कर बदल लेते है , जो हास्यास्पद और अशोभनीय हो जाता है । इस प्रकार के लक्षणों को "महत्वकांक्षी" कहा जाता है ।
"राजनैतिक महत्वकांक्षा" का अर्थ थोडा सा और विस्तृत होता है । अंग्रेजी नाटककार शेकस्पेयर के एक नाटक "मैकबेथ" में एक सिपहसलार ,मैकबेथ, को "राजनैतिक महत्वकांक्षा" पालते हुए बहोत सजीव चित्रण किया गया है । मैकबेथ की पत्नी उसे राजा बनने की "प्रेरणा" देती है , तब जब की राजा कोई अन्य है । और बाद में , तीन जादूई महिलाएं (चुड़ैल ) , मैकबेथ को "राजा " का संबोधन देकर उसमे राजा बनने की महत्वकांक्षा को और पेन कर देती है । फिर वह मैकबेथ को राजा बनने की अपनी 'भविष्यवाणी' भी सुनाती है , जो की हो सकता है की वह अपनी संबोधन वाली त्रुटी को छिपाने या दबा देने के लिए कर रहीं हो , मगर मैकबेथ इस भविष्यवाणी ही मान कर इसे पूरा करने के मकसद पर काम करने लगता है । --( ="अपना व्यवहार अपने वास्तविक आकार से बड़ा समझ कर बदल लेते है। ") फिर मैकबेथ अपने राजा की हत्या भी कर देता है ।
यही है "राजनैतिक महत्वकांक्षा" का चित्रण , और भविष्य भी ।
"राजनैतिक महत्वकांक्षा" की वाणी ऐसी होती है की मानो वह आपके सारे दुखों का निवारण अपने राजा बनते ही तुरंत कर देगा । -- भ्रष्टाचार , गरीबी , अशिक्षा , महंगाई , आतंकवाद सब कुछ । वह आप का मित्र दिखाई देगा, जब वह आपको भावुक क्षणों के बारे में बतलायेगा । जनता को भावनाओं से ही बेवकूफ़ बनाया जाता है । कुछ एक व्यक्ति तो विवेकसंगत और तर्कसंगत हो सकते , मगर जनता यदि अशिक्षित और गरीब हो तब वह भावुक होती है । भावुक व्यक्ति समूह , जिसे 'जनता' भी कहते है , एक बहोत ही तर्क-हीन और विवेक-हीन व्यक्ति समूह होता है । ऐसे में उन एक-दो विवेकसंगत और तर्कसंगत व्यक्तियों की बातें तो पता नहीं किन-किन भावुक नारों में दब जाती है ।
राजनैतिक महत्वकांक्षा वाले नेताओं का आगे भविष्य में तानाशाह बन जाने का भी भय होता है । अभी अपने वर्त्तमान सरकार व्यवस्था को ही लीजिये । यह जितने शालीनता से पेश आ रहे थे , अपने घोटालों के पोल-खोल के बाद उतने ही तानाशाह हरकतें कर रहे हैं । कभी स्वतंत्र अभिव्यक्ति पर अंकुश , तो कभी एकदम बेतुके बयान । राजनैतिक महत्वकांक्षा के आरंभिक लक्षण ऐसे ही होते हैं की व्यस्ताविक हालत , और रिश्तों को जरूरत के मुताबिक़ छिपा या दबा देते हैं । या उभार देते है । बाद में जब वह कामयाब हो जाते हैं, फिर वह अपने वादों पर खरा नहीं उतर सकने की हालत में एकदम तानाशाही पर उतर आते हैं ।

बरहाल , मोदी जी दस सालों से एक मुख्यमंत्री हैं , इसलिए अब प्रधानमंत्री पद का सपना उनके लिए एक राजनैतिक महत्वकांक्षा का पद नहीं माना जाना चाहिए । वह एक प्रभावशाली वाचक हैं । बस यही वह लक्षण हैं जो संदेह पैदा करता है की उस राज्य का मुख्य मंत्री , जहाँ से देश के कई बड़े औद्यगिक घराने आते हैं, जिन पर देश को लूटने का , भ्रष्टाचार का और महगाई का पूरा दारोमदार जाता है , वह हो-न-हो एक बड़े 'खिलाडी ' ही होंगे जनता को 'फिर से' बेवक़ूफ़ बनाने के खेल में ।

Comments

  1. Opinions are subject to change !

    Including opinions of political parties about " Opinion Polls "

    In the following cases , what were our opinions - before and after ?

    > Ordinance before Rahul Gandhi's Press Conference

    > Asaram Bapu before arrest

    > Rape Law after Nirbhaya

    > Kejriwal after Maulana meeting

    > Satyagraha before Gandhiji

    > RTI coverage of political parties before Supreme Court ruling

    > CBI before CAG audits

    > Lalu Yadav as Railway Minister and after Fodder Scam

    > Jan LokPal after Anna Hazare

    > Elections after T N Seshan / NOTA

    > Inflation after Onions

    > ASI after Unnao gold digging ....... etc


    We are all humans - not some computer algorithm.


    so , as we grow up and get influenced by people and events around us , we do change our opinions


    After each event , a new perspective emerges


    We learn to judge people in new perspective


    We also try to change other people and future outcome of events , by influencing them with our own opinions



    So what is wrong in both , Congress and BJP having changed their opinions about " Opinion Polls " over time ?

    Of Course , nothing !

    Only thing they won't admit ( at least , publicly ) , is :


    " At any point of time , the prevailing circumstances dictate our opinions .

    We reserve the right to modify our opinions from time to time , in order
    to suit the circumstances

    In politics , just as there are no permanent friends ( or enemies ), there
    are no permanent virtues ( or vices ) - nor permanent opinions !

    We are " Rational " people who must , for ever , consider what is in our
    best interest , at a point of time ( ala " Game Theory / Nash Equilibrium "
    of John Nash )

    End of the controversy !

    So be it !


    * hemen parekh ( 08 Nov 2013 )

    ReplyDelete
  2. you make sense. ! Humans are rational being, and our opinions change in the course of our constant search for the right and balanced Rational.

    ReplyDelete

Post a Comment

Popular posts from this blog

The Orals

Why say "No" to the demand for a Uniform Civil Code in India

About the psychological, cutural and the technological impacts of the music songs