छोटे बालकों को किस्से और कहानियां सुनाने के महत्व के बारे में

एक बड़ी चुनौती ये रहती है कि बच्चों को चेतनावान या विवेकशील कैसे बनाया जाए ।

इस विषय पर बात करते हुए, सबसे पहले तो यह समझना जरूरी है कि 'ज्ञानवान' अलग होता है और 'चेतनावान' (या विवेकशील) अलग ।

ज्ञान तो किताबो से मिल जाता है मगर चेतना को अपने अंदर से निकलना होता है। चेतना दिमाग की वह क्रिया होती है जिसके माध्यम से इंसान निर्णय लेता है कि असली और नकली ज्ञान को कैसे भेद किया जाए; कौन सा ज्ञान कब और कहां सार्थक है और कहां निरर्थक है; नया ज्ञान कब और कहां प्रस्तुत कर रहा है और वह क्या है; किस व्यक्ति से क्या ज्ञान सांझा करना चाहिए और कब मूक रह जाना उचित होता है।

ये सब बातें बच्चों को ज्ञान बना कर प्रसारित नहीं करी जा सकती है। ये सब conceptual है, यानी अपने विवेक से प्रत्येक बालक को तय करना सीखना होता है।

और यहां हमें विवेक और ज्ञान के मध्य का अंतर दिखाई पड़ जाता है। जरूरी नहीं कि जो बालक (या व्यक्ति) ज्ञानवान हो, वह विवेकशील भी हो।

विवेक के माध्यम से इंसान खुद के निर्णय लेना सीखता है, जबकि ज्ञान के माध्यम से केवल सवालों के जवाब देना सीखता है।

मानव मस्तिष्क नैसर्गिक तौर से विवेक का प्रयोग करने के लिए निर्मित नहीं होता है। विवेक की क्रिया से मस्तिष्क को चलाना इंसान उम्र के साथ साथ सीखता तो है, मगर ऐसा हो जाना आवश्यभावी नही होता है। यानी, कुछ मनुष्य तो उम्र के साथ सीख जाते हैं, मगर काफी सारे नही भी सीख पाते हैं।
क्यों? ये इस लेख में आगे चर्चा करेंगे ।
इसी तरह, कुछ बालक समय से पहने, यानी उम्र के मोहताज हुए बिना भी सीख जाते हैं। और फिर ये बालक अपनी उम्र के बाकी सभी से अलग होते हैं , श्रेष्ठ दिखाई पड़ते है।

चेतना के विषय में आगे एक बिंदु आता है कि बच्चों को अपने सांस्कृतिक, पारिवारिक और राष्ट्रीय मूल्यों के प्रति कैसे अवगत करवाना चाहिए। यहां पर हमे पंचतंत्र की शिक्षा पद्धति की स्मृति पुनः आती है।

मूल्यों का जानना , समझना और स्वीकार कर सकना भी एक conceptual क्रिया होती है, यानी चेतना का विषय, न कि ज्ञान का। छोटे छोटे मिथक कथाओं में ही मूल्यों के प्रति चेतना और ज्ञान छिपा होता है, जिससे की प्रत्येक पीढ़ी को स्वयं से तलाश करना होता है। पिछली पीढ़ी केवल इन कथाओं को सुना सकती है, मूल्यों को प्रसारित नहीं कर सकती है । क्योंकि बौद्धिक दृष्टि से ये तो आवश्यक नहीं रह जाता है कि दूसरा बालक उसे समझ कर स्वीकृत कर ले। तकनीक से उन्नत करते संसार में प्रतिपाल हर एक मूल्य एक बाधा दिखाई पड़ता है बालकों को, और इसलिए वह इन्हे निरर्थक होता देखते हैं। ये चिरकाल का सत्य है। ऐसे में मूल्यों को नित नए सिरे से अपनी सार्थकता सिद्ध करने और तराश किए जाने की जरूरत बनी रहती है। कोई भी पीढ़ी या व्यक्ति ये कार्य तो कदापि नहीं पूर्ण कर सकता है किसी दूसरे बालक के लिए। ऐसे में समाज केवल एक भाग्य की डोर से झूलता रह जाता है कि दूसरा बालक शायद खुद से ये सब तलाश करने में सफल बनेगा।
धार्मिक मूल्यों को अत्यधिक प्रसारित करने से समाज में रूढ़िवाद फैलता है, जो कि एक असहज और अस्वीकृत व्यवहार होता है। रूढ़िवाद व्यक्तगत उन्नत को बाधित करता है, और संग में,  समाज को पिछड़ा बनाता है।

यानी मूल्यों के प्रति चेतना, ये ऐसा लड्डू है जिसे न तो सीधे सीधे बालक के हाथों में थमा कर खिलाया जा सकता है, और न ही खाए बगैर बालक को , उसके समाज और राष्ट्र को संरक्षित करके उन्नति की ओर बढ़ाया जा सकता है।

जो खाए वो पछताए, जो न खाए वो भी पछताए।

तो फिर प्रसारित करने का तरीका बस एक ही बचा रह जाता है। कि, तलाश करने अवसर दे कर फिर भाग्य के सहारे हालत को छोड़ दिया जाए। और अवसर देने का अर्थ है , कहानियों और किस्से सुनाया जाना चाहिए बालकों को ।

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