भारतीय फिल्में, सामाजिक चेतना और भोपाल फर्ज़ी एनकाउंटर
समाज की सोच वैसी ही होती है जैसा की उस देश का साहित्य और कला होती है। साहित्य और कला ऐसे माध्यम है जिनका इंसान की सोच पर प्रभाव बहोत गेहरा और व्यापक हो सकता है। इसलिए यह माध्यम एक बार में ही पूरे समाज को उत्तेजित कर सकने, या आक्रोशित कर सकने का भी माद्दा रखते है। और जिस वजहों से प्रशासन को साहित्य और कला से परोसी जा रही सोच पर भी नज़र बनाये रखनी पड़ती है।
भारत में साहित्य और कला को जो वाहन सबसे अधिक प्रभावशाली है वह है हमारी सिनेमा।
भोपाल एनकाउंटर पर जब मैं पब्लिक की प्रतिक्रियाओं को देखता हूँ तब मुझे बरबस जन चेतना पर भारतीय सिनेमा की गहरी छाप दिखने लगती है।
अधिकांश भारतीय भोपला में हुए घटनाक्रम पर यह मानते है की यदि वह एनकाउंटर फर्ज़ी भी था तो क्या हुआ, ऐसे क्रूर संगिग्धों के साथ ऐसा ही होना चाहिए था, वरना फिर वह लोग कोर्ट-कचहरी से तो बरी हो कर बच निकलते।
दूसरे तर्कों में सोचें तो एक बात तो साफ़ है की भारतीय जनता को खुद कॉर्ट कचहरियों की योग्यताओं पर शायद कुछ ज्यादा ही यकीन है (या कहें की यकीं नहीं है ) कि ऐसे संगिग्धों को उनके मुकाम तक ले जाने में हमारे तंत्र की काबलियत क्या हैं।
सोचता हूँ की आखिर इतनी बड़ी आबादी इस एनकाउंटर को फर्ज़ी मानते हुए भी इस अंत को ही उचित ठहरा रही है, बजाये की वह पुलिस प्रशासन या फिर कोर्ट की प्रक्रियाओं में सुधार की मांग करे।
सवाल आता है की वह क्या है जिसने इतनी बड़ी आबादी की मनोभावना को ऐसा प्रभावित किया है की अब वह किसी प्रशासनिक गलत में भी सही को ही देखते है, गलत मनाने को तैयार ही नहीं है।
सवाल है की मैँ खुद कब और कैसे अपने ही संगी-साथियों की सोचने के तरीके से कुछ भिन्न हो गया और अब मैं वैसा ही क्यों नहीं देखता और सोचता हूँ जैसा की वह ।
अभी मेरा ध्यान जाता है भारतीय सिनेमा पर जिसमे निरंतर पाये जाने वाले theme(कहानी का विस्तृत धेय्य, सन्देश) में कोर्ट और पुलिस तंत्र की कमियों को हमेशा ही स्वीकृत अथवा दर्शाया तो किया गया है, मगर उनके समाधान को poetic justice , mob justice , या फिर poison cuts the poison (कानून के टूटने को दुरुस्त कानून तोड़ कर ही करना) जैसी पद्धतियों से ही सुझाया गया है। भारतीय सिनेमा के निरंतर theme यही रहे है की भई न्याय तो अंत में कोर्ट के बाहर ही मिलता है, या फिर जब "ऊपर वाला "(साक्षात् भगवान) जब न्याय करता है।
भारतीय सिनेमा अधिकांशतः लेखक और निर्देशकों की रची मनगढ़ंत कहानी ही होती है (fairy tale) , इसलिए वास्तविक जीवन , प्रशासन की कार्य पद्धति , पुलिस की कार्यप्रणाली , कोर्ट में न्यायायिक क्रियाएँ (due process) , प्रमाणों और साक्ष्यों का मुआयना का सही तरीका, उचित निष्कर्ष इत्यादि विषयओं पर जन चेतना को विक्सित करने पर बल नहीं देते हैं। समस्या यह है यह तो भारतीय जनता उनसे प्रभावित रह कर यह संज्ञान ही नहीं लेती की इस प्रकार के कार्यतंत्र में गलतियां क्या-क्या है, और क्या यह वाला बिगड़ी कार्यतंत्र ही एकमात्र विकल्प है।
भारतीय निर्देशक और लेखक फ़िल्म को बनाते वक्त लाभ और हानि से अधिक प्रेरित रहते है सामाजिक उत्थान के उद्देश्यों से कम। कम से कम पिछले 1970 के दशक से लेकर अभी 2010 तक की अवधी में भारत में अधिक जन प्रचलित (यानी "हिट") हुई फिल्मो का एक तीखा मुआयना करने पर यह बात तो स्पष्ट रहेगी। यदि कोई वास्तविक जीवन व्यवहारों से उन फिल्मों के नायक-खलनायक चरित्रों के व्यवहार और परिदृश्य की तुलना करने तब हमेशा बचाव के तर्कों का ही जवाब मिलेगा की फ़िल्म लेखक और निर्देशकों ने literary freedom (कल्पनाओं की स्वतंत्रता) को कुछ ज्यादा ही भोग किया है।
इसके आगे की सामाजिक जिम्मेदारी लेने से फिल्मकार कतराते और बचते रहते हैं।
शायद ही कोई फ़िल्म होगी जो न्याय को कोर्ट के भीतर प्राप्त हो जाने के theme पर समाप्त होती होगी, यानि तंत्र ने उचित न्याय दे कर विवाद का सही, भद्र समाधान किया हो। बल्कि कोर्ट के भीतर तर्कों और वाद के संघर्ष पर नायक की कहानी पर तो फिल्में बनी ही नहीं है। यदि नायक वकील या जज के चरित्र में रहा भी तब भी फिल्मो ने यही दिखाया है की अंतिम न्याय तो जंग करके जीत करके ही मिलता है। ऐसा शायद इसलिए क्योंकि नायक को बहादुर बताने के लिये उसमे लड़ाई और मार धाड़ का मसाला डालना ज़रूरी होता है, फ़िल्म को "हिट" करने के लिए।
शायद हमारे समाज में इस प्रकार के "सड़क छाप" (अधिक शोध से विहीन, छिछला) साहित्य के व्यापक होने का नतीजा है कि लोगों का प्रशासन से विश्वास तो उठा है, मगर वह उसके निष्क्रियता और विफलतों के सटीक कारणों को न तो जानते है और न ही सुधार के प्रयासों में सहयोग देते हैं। क्योंकि उनको लगता है की सुधार के प्रयास भी भ्रम या मिथक है, "क्योंकि अंतिम न्याय तो कोर्ट के बाहर ही होता है , poetic justice, या mob justice या poison cuts poison से ही।"
यानि फिल्मों से जन चेतना में जो छाप पड़ी है उसका नतीजा भोपाल एनकाउंटर में देखने को मिलता है -- जनता को प्रशासन और तंत्र से विश्वास उठा है जो की उचित है, मगर उसके सुधार की गुंज़ाइशों से भी विश्वास उठा है, और जो की महाविनाश में ही समाधान के लिए प्रेरित करे, यह उचित नहीं हैं। जनता को विश्वास उठा है सभी प्रकार के सुधार के प्रयास से भी, वह सुधार प्रयासों (reforms) को भी मिथक या झूठ मानते है।
मगर दुर्भागय से फिल्मकार सामाजिक चेतना में करी गयी तोड़-मरोड़ वाली गलती और उससे उपजी अपनी तमाम सामाजिक जिम्मेदारियों से बचते और कतराते है। फिल्मकार इसे प्रकार की विकृत सामाजिक चेतना को व्यापक कला का नतीजा मानने को तैयार नहीं हैं।
आज उसी का नतीजा देखने को मिल रहा है की भारतीय जन चेतना फर्ज़ी एनकाउंटर को भी फिल्मों में मिलने वाले poison cuts poison वाले justice का रूप मान कर उचित ठहरा रही हैं।
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