आरक्षण विरोध: सामाजिक अनुबंध को तोडने का मार्ग ही क्यों?
कानून अक्सर करके एक सामाजिक अनुबंध होता है। आरक्षण और कश्मीर को विशेष स्थिति के कानून एकतरफा कानून ही सही, कुछ ऐसे ही सामाजिक अनुबंध है जो की अपने समय की उन विशिष्ट परिस्थितियों में घटे एक दूसरे से किये हुए कुछ कसमें-वादे है जिनको हमने कई पीढ़ियों तक एक-दूसरे से निभाने के कसम रखी थी। यह कानून उसी सामाजिक कस्मे-वादे को चिरकाल तक याद दिलाने के लिए लिखे हैं। इन कसमों-वादों से आज़ाद होने का तरीका भी इन्ही में लिखा हुआ है।
फिर ऐसा क्यों की आज बातचीत इस कसमो वादों की तोड़ने की हो रही है, बजाये की इनमे लिखी इनसे आज़ादी की शर्तों को पूरा करने का रास्ता ढूढ़ने के? क्यों सारी बातचीत वोट की राजनीति में तब्दील हो गयी है की X को वोट दो , वह ही आरक्षण को ख़त्म करेग और दफा 370 को भी ख़त्म करेगा। यह कैसी नैतिकता है की मतलब निकल जाने पर अपने कस्मे-वादे तोड़ने पर उतर आते है बिना किसी संकोच और शर्म के ? क्या यह धूर्त व्यवहार नहीं है ?
Comments
Post a Comment