क्या तुम्हे मालूम भी है की तुम्हारी गलती क्या है?
क्या तुम्हे मालूम भी है की तुम्हारी गलती क्या है?
तुम्हारी गलती यह है की तुम नियमों को ताकत के प्रवाह के रूप में देखते हो, "आपसी सहमति" के रूप में नहीं । तुम्हे बार-बार "भारत एक प्रजातंत्र देश है " याद दिलाने का मेरा मकसद यही है की कोई भी नियम बनाने से पहले पूछ लिया करो , क्योंकि नियम बनाना तुम्हार एकाकेक अधिकार नहीं है, यह "आपसी सहमति" का सम्बन्ध है । प्रजातंत्र की मूल मंशा यही थी और यही है, चाहे तो ब्रिटिश दार्शनिक बेर्तंड रुस्सेल से लेकर अदम स्मिथ किसी को भी पढ़ लो । जब मेरे और मेरी देश की सरकार के बीच का सम्बन्ध भी 'आपसी सहमति' का ही है , तब नियम बनाने का एकाकी अधिकार तुम्हे दिया किसने ? तुम्हे कहाँ से मिला ?
असल में तुम गाँव से आये एक जमीदारी मानसिकता के आदमी हो, जिसकी समझ में यही उतरा हुआ है की नियम किसी एक के विवेकाधिकार से ही बनाते है । यही तुम्हारी सर्वप्रथम भ्रान्ति है । हम 'आपसी सहमति' से काम करते है, किसी और की मर्ज़ी से नहीं ।
हाँ, एक बार जब आपसी सहमति बन जाती है तब जब हम शरीफों जैसे काम करने लगते है। तब तुम और तुम जैसे न जाने कितने ही ग्रामीण देहाती जमीदारी मसिकता के लोग हम लोगों की शराफत को अपने "पॉवर" का नुमाइश समझ बैठते है और फिर ऐसे-ऐसे फेर बदल करते है जो की आपसी सहमति से बने नियम के मूल दांचे में ही अनधिकृत छेड़खानी कर देता है । तुम जीवन को "कुछ अंधे मनुष्य और हाथी" वाली पंचतंत्र की कहानी से मिलती स्मृति में दखते हो । जब हम शराफत से आदेशों का पालन करते नज़र आते हैं तब तुम इसे अपना एकाकाकी अधिकार समझ लेते हो और इसके पीछे की 'आपसी सहमति' को पहचान नहीं पाते हो । यह तुम्हारे मस्तिष्क की अयोग्यता है , जो तुम्हारा स्वभाव बन चुका है ।
यह हम सब को पता है की भारत में कुछ भी काम ठीक से नहीं चलता । इसलिए करीब-करीब सब ही इसकी बुराई , आलोचना में लगे दिखते है । मगर इस आलोचना में भी दो अलग मक्साद वाले लोग छिपे है , यह हमे अच्छे से पता है । एक आलोचना होती है विश्लेषण के मकसद से , सुधार लाने के लिए , बदलाव प्राप्त करने के लिए । और एक आलोचना होती है "सब कुछ और सब ही ऐसे गलत है " की भ्रान्ति लाने के लिए जिससे की कल को खुद के गलत निर्णय , कर्तव्यों का उलंघन , असक्षमता को न्यायोचित करने के लिए । यह आलोचना भारत की त्रासदी को और बड़ाने के लिए होती है , समाधान के लिए नहीं । यह उदंडता है , कुप्रचार है ।
एकाकी अधिकार के रूप में निर्णय लेना ज़मीदारी मानसिकता है । 'आपसी सहमति' व्यवसायिकता है । हम व्यवसायिक सम्बन्ध रखना चाहते है, तुम हमे अपना गुलाम समझते हो । और तो और इस आपसी सहमति की व्यवसायिक समझ की कमी की वजह से ही तुमने हमारे संसथान के व्यवसाय और धन-लाभ पर भी ठोकर लगा राखी है । तुम नियमों को अपने एकाकी अधिकार में देखते हो इसलिए उनका पालन भी नहीं करते हो । उसके बाद याद दिलाये जाने पर यह धमकाते हो की "अगर सब नियम से ही चलने लगा तो फिर तुम्हे भी हम दिखा देंगे की तुम कितने नियम-बद्ध हो "।
तुम्हारे इस मानसिकता से ही देश और समाज नष्ट हो रहे है । तुम हमे नियम विरोधी होने को कह रहे होते हो । हम में से जो राजनीतिक समझ नहीं रखेगा कल को वह ऐसे जवाब स्वीकार करके नियमों से घृणा ही सीखेगा और फिर एक 'शहरी नक्सलवादी' ही बनेगा । नियम क्या है और कैसे , किस इंसानियत , मानवता , दया और करुणा से लगाये जाने चाहिए क्या अब इस्पे बहस और इसका सबक भी हमे ही तुम्हे सिखाना होगा । क्या तुम यह कहना चाहते हो की अगर नियम को कड़ाई से लागू किया तब सिर्फ हम ही उसके भुग्तभोगी बनेंगे, और तुम कभी भी नहीं । क्या तुमने अपना सारा जीवन हमेश नियम-बद्ध ही गुज़ारा है । अगर नहीं, तब क्या दया, करुणा और इंसानियत का सबक तुम्हे क्या हम देना पड़ेगा ? क्या तुम्हरे माँ-बाप, शिक्षकों और तुम्हारे जीवन ने तुम्हे यह कभी नहीं सिखाया ? विवेकहीन कड़ाई से नियमों के प्रति जो मानव हृदय में जो घृणा उत्पन्न होती है , उसका ज़िम्मेदार कौन होगा। क्या तुम्हे समझ है की नियमों से घृणा की यह मानसिकता ही आज नक्सल वाद की वजह बनी है , और इस घृणा का करक है तुम जैसे विवेकहीन कार्यपालक जो अनुचित कड़ाई से नियमों को लगो करते है जिससे लोग उनकी 'पॉवर' के काबू में रहे।
और अगर कड़ाई विवेक-संगत है , तन उस कड़ाई को हो ही जाने दो, क्योंकि वह आवश्यक है । अगर वह विवेक पूर्ण है तब वह 'आपसी सहमति' है । क्या तुम हमे मुर्ख समझते हो को किसी विवेकपूर्ण समझ में नियमों की कड़ाई से पालन के लिए भी हम 'ना' कर देंगे ।
गलती तुम्हारी है । तुम कई सारी भ्रांतियों से भरे हुए हो । खुले, स्वच्छ , सरल मस्तिष्क से नहीं देखते और समझते ।
तुम्हारी गलती यह है की तुम नियमों को ताकत के प्रवाह के रूप में देखते हो, "आपसी सहमति" के रूप में नहीं । तुम्हे बार-बार "भारत एक प्रजातंत्र देश है " याद दिलाने का मेरा मकसद यही है की कोई भी नियम बनाने से पहले पूछ लिया करो , क्योंकि नियम बनाना तुम्हार एकाकेक अधिकार नहीं है, यह "आपसी सहमति" का सम्बन्ध है । प्रजातंत्र की मूल मंशा यही थी और यही है, चाहे तो ब्रिटिश दार्शनिक बेर्तंड रुस्सेल से लेकर अदम स्मिथ किसी को भी पढ़ लो । जब मेरे और मेरी देश की सरकार के बीच का सम्बन्ध भी 'आपसी सहमति' का ही है , तब नियम बनाने का एकाकी अधिकार तुम्हे दिया किसने ? तुम्हे कहाँ से मिला ?
असल में तुम गाँव से आये एक जमीदारी मानसिकता के आदमी हो, जिसकी समझ में यही उतरा हुआ है की नियम किसी एक के विवेकाधिकार से ही बनाते है । यही तुम्हारी सर्वप्रथम भ्रान्ति है । हम 'आपसी सहमति' से काम करते है, किसी और की मर्ज़ी से नहीं ।
हाँ, एक बार जब आपसी सहमति बन जाती है तब जब हम शरीफों जैसे काम करने लगते है। तब तुम और तुम जैसे न जाने कितने ही ग्रामीण देहाती जमीदारी मसिकता के लोग हम लोगों की शराफत को अपने "पॉवर" का नुमाइश समझ बैठते है और फिर ऐसे-ऐसे फेर बदल करते है जो की आपसी सहमति से बने नियम के मूल दांचे में ही अनधिकृत छेड़खानी कर देता है । तुम जीवन को "कुछ अंधे मनुष्य और हाथी" वाली पंचतंत्र की कहानी से मिलती स्मृति में दखते हो । जब हम शराफत से आदेशों का पालन करते नज़र आते हैं तब तुम इसे अपना एकाकाकी अधिकार समझ लेते हो और इसके पीछे की 'आपसी सहमति' को पहचान नहीं पाते हो । यह तुम्हारे मस्तिष्क की अयोग्यता है , जो तुम्हारा स्वभाव बन चुका है ।
यह हम सब को पता है की भारत में कुछ भी काम ठीक से नहीं चलता । इसलिए करीब-करीब सब ही इसकी बुराई , आलोचना में लगे दिखते है । मगर इस आलोचना में भी दो अलग मक्साद वाले लोग छिपे है , यह हमे अच्छे से पता है । एक आलोचना होती है विश्लेषण के मकसद से , सुधार लाने के लिए , बदलाव प्राप्त करने के लिए । और एक आलोचना होती है "सब कुछ और सब ही ऐसे गलत है " की भ्रान्ति लाने के लिए जिससे की कल को खुद के गलत निर्णय , कर्तव्यों का उलंघन , असक्षमता को न्यायोचित करने के लिए । यह आलोचना भारत की त्रासदी को और बड़ाने के लिए होती है , समाधान के लिए नहीं । यह उदंडता है , कुप्रचार है ।
एकाकी अधिकार के रूप में निर्णय लेना ज़मीदारी मानसिकता है । 'आपसी सहमति' व्यवसायिकता है । हम व्यवसायिक सम्बन्ध रखना चाहते है, तुम हमे अपना गुलाम समझते हो । और तो और इस आपसी सहमति की व्यवसायिक समझ की कमी की वजह से ही तुमने हमारे संसथान के व्यवसाय और धन-लाभ पर भी ठोकर लगा राखी है । तुम नियमों को अपने एकाकी अधिकार में देखते हो इसलिए उनका पालन भी नहीं करते हो । उसके बाद याद दिलाये जाने पर यह धमकाते हो की "अगर सब नियम से ही चलने लगा तो फिर तुम्हे भी हम दिखा देंगे की तुम कितने नियम-बद्ध हो "।
तुम्हारे इस मानसिकता से ही देश और समाज नष्ट हो रहे है । तुम हमे नियम विरोधी होने को कह रहे होते हो । हम में से जो राजनीतिक समझ नहीं रखेगा कल को वह ऐसे जवाब स्वीकार करके नियमों से घृणा ही सीखेगा और फिर एक 'शहरी नक्सलवादी' ही बनेगा । नियम क्या है और कैसे , किस इंसानियत , मानवता , दया और करुणा से लगाये जाने चाहिए क्या अब इस्पे बहस और इसका सबक भी हमे ही तुम्हे सिखाना होगा । क्या तुम यह कहना चाहते हो की अगर नियम को कड़ाई से लागू किया तब सिर्फ हम ही उसके भुग्तभोगी बनेंगे, और तुम कभी भी नहीं । क्या तुमने अपना सारा जीवन हमेश नियम-बद्ध ही गुज़ारा है । अगर नहीं, तब क्या दया, करुणा और इंसानियत का सबक तुम्हे क्या हम देना पड़ेगा ? क्या तुम्हरे माँ-बाप, शिक्षकों और तुम्हारे जीवन ने तुम्हे यह कभी नहीं सिखाया ? विवेकहीन कड़ाई से नियमों के प्रति जो मानव हृदय में जो घृणा उत्पन्न होती है , उसका ज़िम्मेदार कौन होगा। क्या तुम्हे समझ है की नियमों से घृणा की यह मानसिकता ही आज नक्सल वाद की वजह बनी है , और इस घृणा का करक है तुम जैसे विवेकहीन कार्यपालक जो अनुचित कड़ाई से नियमों को लगो करते है जिससे लोग उनकी 'पॉवर' के काबू में रहे।
और अगर कड़ाई विवेक-संगत है , तन उस कड़ाई को हो ही जाने दो, क्योंकि वह आवश्यक है । अगर वह विवेक पूर्ण है तब वह 'आपसी सहमति' है । क्या तुम हमे मुर्ख समझते हो को किसी विवेकपूर्ण समझ में नियमों की कड़ाई से पालन के लिए भी हम 'ना' कर देंगे ।
गलती तुम्हारी है । तुम कई सारी भ्रांतियों से भरे हुए हो । खुले, स्वच्छ , सरल मस्तिष्क से नहीं देखते और समझते ।
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