स्वच्छता अभियान, भ्रष्टाचार और अस्वच्छता के संस्थागत निवारण की असफलता

जनता जब किसी सामाजिक आवश्यकता/उद्देश्य की निरंस्तर पूर्ती के लिए प्रेरित होती है, तब ही वह संस्थाओं का निर्माण प्रसाशन द्वारा करवाती है।
   उदहारण के लिय शहरों और नगरों की भौतिक साफ़-सफाई का सामाजिक उद्देश्य को लीजिये।
  जब गन्दगी का पारा जनता की बर्दाश्त के ऊपर चढ़ गया तब एक दिन जनता ने "प्रेरित"(असल में क्रोध से क्रियान्वित हो कर) झाडू खुद ही उठा कर साफ़ सफाई कर डाली।
  पर क्या वह रोजाना ऐसा कर सकती है? क्या यह सफाई हमेशा के लिए टिकेगी?
  नहीं। यदि हम रोज़ खुद ही सडकों और सार्वजनिक स्थलों को झाडू मार सकते तो पहले ही कर रहे होते,"प्रेरित" होने का इंतज़ार ही क्यों करते ??
  तब फिर उस एक दिन झाडू चलाने से प्राप्त क्या हुआ,जब अगले दिन से हालात फिर से वही हो जाने हैं?
यहाँ पर विचार आता है "संस्था गत" कार्य पूर्ती करने का। अब समझ में आता है कि 'संस्था' क्या है और क्यों बनाई जाती है।

    किसी भी सामाजिक उद्देश्य की *निरंतर पूर्ती* के लिए कार्य को व्यक्तिगत न करके, एक संस्था द्वारा करवाया जाता है। संस्थान एक संवैधानिक अथवा विधि-विधान द्वारा निर्मित होती है और इनकी आयु "निरंतर" होती है जब तक की विधान इनको स्वयं नष्ट न करे।

कूटनीति में जब भ्रष्टाचार अधिक बढ़ जाता है तब यह संस्थान अक्सर करके अपने सामाजिक उद्देश्य की पूर्ती में असफल होने लगते हैं। इनकों मुहैया धन तो व्यक्तिगत खातों में तब्दील कर दिया जाता है। तब संस्थान के उद्देश्य पूर्ती के लिए धन ही कहाँ बचेगा की कर्मचारियों के कार्यणी आवश्यकताओं पर ध्यान दिया जा सके।
  फिर चतुर कूट नेता(धूर्त नेता, जो जनता को बुद्धू बनाने में अव्वल हों) इसका समाधान कैसे करते है? वह जनता की आवश्यकताओं को पूर्ण करने के लिए और भ्रष्टाचार से ध्यान विकेन्द्रित करने के लिए फिर से एक अभियान आरम्भ करते है ,कि मानो उद्देश्य पूर्ती पहले वाले संस्था के प्रयास से नहीं हुआ तो क्या, अब नए नेता जी के आने से हो जायेगा।(शायद इसी धूर्त बनाने में नए-नए अव्वल आये नेता जी को "देश में नया जोश आया है" कह कर समाचारपत्रों में जताया जाता है)

आइये, स्वच्छता के सामाजिक उद्देश्य का संस्थागत निवारण को समझते है।
  अतीत में नगरपालिका आदि का निर्माण इसी मकसद से हुआ था की शहर की स्वच्छता के निरंतर पूर्ती यह संस्था करेगी। मगर जब नगरपालिका असफल हो रही है तब क्या किया धूर्त नेताओं ने? 
  एक नया अभियान पुनःआरम्भ कर दिए।
  क्यों?
     स्पष्ट तार्किक निष्कर्ष में भ्रष्टाचार से उत्पन्न असफलता को छिपाने के लिए।
कैसे?
धन की आपूर्ति हमेशा ही कम दिखाई जाती है, संस्थान की आवश्यकता है। जबकि संस्थान का बजट प्रतिवर्ष बढ़ता ही रहता है। यदि आडिट(सर्वेक्षण) हो तब पता चलेगा कि धन व्यय आखिर में हुआ किस उद्देश्य की पूर्ती में।
कूट क्रिया में अंत में संस्थान की असफलता का कारक जनता को ही दिखाया जाता है कि जनता ही इतनी गन्दगी करती है कि इतने से धन में सफाई संभव नहीं है।
   श्रंखला एक से जुड़ का दूसरी संस्था तक चली जाती है और फिर मूल असफलता का असल कारक -भ्रष्टाचार - ओझल हो लेता है जन जागृति से।
  

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