साम-दाम-दंड-भेद नीति के उद्गम के विषय में

बहुत कम ही लोग ये बात पकड़ पाएंगे कि "साम —दाम—दंड—भेद " की नीति भगवान रामचन्द्र की मर्यादा नीति के अति किए जाने से उत्पन्न जनाक्रोश और जनविरोध की प्रतिक्रिया है।

कोई भी कल्याणकारी और सद्भाव नीति, जब जब वह चलन में आ जाती है, तब कोई न कोई वर्ग उसका अनिच्छित, अमान्य लाभ उठाने लग जाता है। और फिर ,ऐसे में समाज से लोगों का उस कल्याणकारी नीति से विश्वास ही नष्ट होने लगता है, और तब एक विरोधाभासी नीति भी कहीं न कहीं से उत्पत्ति में आ जाती है।

मर्यादा नीति , जिसे भगवान रामचंद्र जी ने समाज में प्रथम बार पालन करके प्रचलन में लाया था, उसके अनुसार व्यक्ति स्व:इच्छा से अच्छे गुणों और कर्मों को सअक्षर —भावना (in letter and spirit) का पालन करता है। वह अपने वचन को इस हद तक निभाता था। जैसे कि रामचंद्र जी ने अपने पिता दशरथ के माता कैकई को दिए वचनों को पालन करने हेतु वन गमन किया था । और फिर, सअक्षर भावना पालन करने की दृष्टि से, अनुज भरत के वापस बुलाने के पर भी नहीं लौटे थे।

अनुज लक्ष्मण और माता सीता का रामचंद्र जी के साथ में गमन, "अपने अपने धर्म को निभाने के लिए" , ये सभी कहानी के क्रम समझाते है मर्यादा किसे पुकारते है । 

— Moral self restraint.

मगर समय काल में , जब ये नीति अति करने लगी, और समाज में लोग इसका अमान्य लाभ लेने लगे, तब इस नीति के विरोध में नई नीति प्रचलन में आई, "साम —दाम —दंड – भेद" कि नीति।
नई नीति में व्यक्ति किसी भी मर्यादा, किसी भी नैतिकता, कोई भी धर्म को वहन नहीं करता है, अपने स्वार्थ, अपने उद्देश्य की पूर्ति हेतु।

दार्शनिक विषय के शोधकर्ताओं को शायद ये एहसास आ गया होगा कि भारत भूमि पर "हिंदू" सनातन मान्यताओं का सबसे बड़ा विरोधी विचारधारा चार्वाक विचारधारा है, मुस्लिम नहीं। चार्वाक विचारधारा, जो वर्तमान काल में मुख्य गुजरात प्रांत के जैन धर्म में नव अवतरण करके पालन करी जाती है, ये सनातन नीतियों से अति करने से जनाक्रोश से निकलती हुई नीति है।  जबकि मुस्लिम शरिया भारत भूमि पर पाई जाने वाली सभी प्रकार की नीतियों से जुदा हो कर उत्पन्न हुई हैं, हिंदुकुश पर्वतों के पार में।

इसका अर्थ ये हुआ कि मुस्लिम शरिया का जो संबंध है सनातन विचारधारा से, वह "भिन्नता" का है, जबकि चार्वाक नीति का जो रिश्ता है सनातन विचारधारा से, वह "विरोधात्मक प्रतिक्रिया" का है।

गहराई में टटोलेंगे, तो यदि आप वर्तमान युग के इस्कॉन कृष्णाचारी समूह की विचारधारा को देखें, तब वह भी आपको सनातन मान्यताओं के विपरीत खड़ी दिखाई पड़ जाएगी । क्योंकि यहां, इसमें भोग विलास को परम ध्येय माना जाता है, "वैभव" नाम करके पुकारते हुए। ! जबकि अधिकांश सनातन मान्यताएं, त्याग और कठोर तपस्या को शोभामान गुण मानती है !

सांस्कृतिक धार्मिक इतिहास के जानकारों को ये बोध आता होगा कि सनातन तो आज के युग में सभी है, परंतु गहरे गर्त में इन सभी में आपसी कलह और विरोध भी है। और इस्लाम की शरिया और ईसाई धर्म की मान्यताएं वास्तव में तो पूर्णतः भिन्न ही है!

अब सवाल आपकी बुद्धि से बन जाता है कि आप शत्रु किसे मानेंगे सनातन का ? वह जो विरोधात्मक प्रतिक्रिया से उत्पन्न हुआ है, या वो, जो पूर्णतः भिन्न रह कर उत्पन्न हुआ है ?

या फिर की, शत्रु तो कोई है ही नहीं ! क्योंकि जो विरोधात्मक प्रतिक्रिया से उत्पन्न हुई है, वह भी तो किसी वैध कारणों से अस्तित्व में आई !


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