पौराणिक चरित्रों के चरित्र में परिवर्तन समाज के लिए हितकारी है, या नही
प्रोफेसर दिलीप चंद्र मंडल बता रहे हैं कि फिल्म "आदिपुरुष" में हनुमान जी के चरित्र को बेहद उग्र, हिंसक और भद्दी जबान प्रयोग करते जो दिखाया गया है, ये एक सोची समझी रणनीति के तहत किया गया experiment है। प्रो मंडल के अनुसार ये रुद्र हनुमान के चित्रण वाला experiment सन 2015 से चालू हो चुका है, और शायद इसका मकसद है हिंदू जनता के मन में विश्वास जमाना कि secularism विचारधारा से देवता गण रूष्ट, क्रोधित हैं। हालांकि ऐसा सीधे शब्दों में कहीं कुछ नही कहा गया है, मगर आंख–कान के पीछे से ये बात फिर भी दिमाग के अंदर पहुंचाई जा रही है, कि --
१) हिंदू देवता गण, जिनमे हनुमान जी भी शुमार होते हैं, वे बेहद क्रोधित और उग्र हैं ——
२) इसलिए क्रोधित और उग्र होना आम हिंदू के लिए सामान्य बात होती है ——
३) भद्दी भाषा का प्रयोग सामान्य चलन है, धर्म की रक्षा के लिए प्रयोग किया जाना सामान्य है ——
४) धर्म का अर्थ है, हिंदू ——
५) धर्म यानी हिंदू का शत्रु है — मुस्लिम, ईसाई, sickularism
६) धर्म के शत्रुओं के संग वैसे पेश आने की जरूरत है, जैसा कि रुद्र हनुमान आ रहे हैं
मगर ऊपर की सिर्फ प्रथम तीन बातें सीधे शब्दों में कही जाती है, आंख और कान के समाने से । और इसके बाद , इंसान का अवचेतन मस्तिष्क स्वयं से बाद की तीन पंक्तियों को खुद से पढ़–सुन लेता है।
मेरा खुद का भी यही मानना है कि सनातन हिंदू धर्म हमेशा से ब्राह्मणों की राजनैतिक शरारतों को प्रयोगशाला बना रहा है। ब्राह्मणों ने बड़ी आसानी से, अपनी इच्छा अनुसार हिंदू समाज को अपनी प्रभुत्ववादी चेष्टाओं के अनुसार नचाया है, "समय/युग के अनुसार" हिंदू देवताओं का चित्रण बदल बदल कर, हिंदू ग्रंथों का उच्चारण बदल बदल कर !
प्रो मंडल ने ही तो अभी हाल फिलहाल में #तुलसीदास_पोलखोल श्रृंखला के तहत रामचरितमानस ग्रंथ की पंक्तियों से पर्दा उठाया था, जिसके बाद ये बात जनता के संज्ञान में आई है कि तुलसीदास "जी " ने वही कृत्य किया था उस युग में, जो अब फिल्म निर्माता "आदिपुरुष" से कर रहे हैं,आज के युग में। तुलसीदास ने समाज में तमाम जातियों को उनके स्थान और उनके साथ किए जाने व्यवहार की नीव रखने का project चलाया था रामचरितमानस लिखने के समय । ऐसा पता चला है प्रो मंडल को अपने शोध के दौरान।
और अब "आदिपुरुष " जैसी तमाम फिल्मों के माध्यम से वही , रामायण ग्रंथ, को पुनर्लेखन किया जा रहा है, मुस्लिमों, ईसाइयों और secularism के विरुद्ध समाज को उग्र बना कर !
सच बताऊं तो हिंदू समाज अभी तक उस दिक्कत को झेल रहा है, जिसे कि कभी किसी समय समूची इंसानियत झेल रही थी, अगर उन्होंने इसका इलाज ढूंढ निकाला था , जिस समाज बदलाव के आंदोलन के समय पश्चिमी देशों में secularism जन्म लिया था।
अरब और ईसाई समाज वैसे ही अपने अपने पुजारी वर्ग से त्रस्त था, जैसे कि आज,अभी तक हिंदू समाज ब्राह्मणों से है। उसके पुजारी वर्ग भी प्रभुत्व वादी चेष्टा से मुहम्मद साहब के कथनों को, और पादरी लोग प्रभु युसु के कथनों को समय समय पर बदलते रहते थे। इसलिए समाज के बुद्धीजन मानस ने इलाज ये किए कि कुरान और बाइबल की केवल एक प्रति को ही समाज में प्रसारित कर दिया, जो की सभी इंसानों के पास उपलब्ध हो सकती थी। यानी, अब मूल प्रति के शब्दों को समाज ने पुनर्लेखन स्वीकृत करना बंद कर दिया !
तब से लेकर आज तक अरब देशों और ईसाई देशों में यही चलन चल रहा है। अब कोई भी पुनर्लेखन संभव नहीं है। जो देवताओं के कथन हैं, या जो उनके चित्रण है, वो वैसे के वैसे ही समाज में स्थापित हो गए हैं। उन्हे "समय/युग की जरूरत अनुसार" बदलने की साजिश कोई नही कर सकता है।
हिंदू समाज में secularism न समझ में आया है अभी तक, और न ही ब्राह्मण वर्ग आसानी से ये बात जनता के दिमाग में घुसने देगा। जाहिर भी है, कि ऐसा होने से उनकी प्रभुत्व वादी चेष्टाओ का आसान मार्ग बंद जो हो जायेगा।
वर्तमान में एक औसत हिंदू व्यक्ति रूढ़ियों के प्रति बहुत अधिक सचेत किया जा चुका है, इतना कि यदि कोई तर्क ये कहे की प्राचीन ग्रंथो के स्थापित होना सामाजिक हित में अति आवश्यक है, तब औसत हिंदू का मन व्याकुल हो जायेगा कि ऐसा करने से तो तम्मम रूढ़ियां बस जाएंगी समाज में, जो कि समाज को पिछड़ा और व्यर्थ बनाती रहेंगी।
असल में ये तर्क पूरा गलत नही है, मगर ये तब भी, एक अर्धसत्य है। औसत हिंदुओ को इस तर्क की अर्धसत्यता का आभास अभी तक नही मिला है।
ग्रंथो और चरित्रों का मानक एक हो जाना समाज के लिए आवश्यक होता है।
और अब, खुद से बूझिए कि कैसे?
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