आधुनिक शिक्षा व्यवस्था में साहित्य क्यों पढ़ाया जाता है?

आधुनिक शिक्षा व्यवस्था में साहित्य क्यों पढ़ाया जाता है?

शायद ध्यान दिया होगा कि अक्सर करके जो बच्चे बचपन में पढ़ाई लिखाई के कार्यों में अच्छे होते थे, वे बड़े होते होते न जाने क्यों पढ़ाई लिखाई से मोहभंग सा व्यवहार करते हुए उनका मन उचट जाता है। कई सारे बालक आरंभिक दौर में तो गणित में अच्छा करते रहते हैं, मगर फिर बाद में गणित , physics, chemistry उनको बहुत मुश्किल और bore विषय लगने लग जाते हैं। 

ऐसा क्यों होता है?
लगभग सभी माता- पिता एक सामाजिक चलन से बनने वाली सोच के कैदी होते है, और वे "स्वभावतः" ये सोचने लगते हैं कि ऐसा इसलिए हो जाता है कि अब बच्चा पढ़ाई लिखाई में ध्यान नहीं देता है, वो जैसे जैसे बड़ा हो रहा होता है, उसकी अभिरुचि कई और जगह भी लगने लग रही होती है, जिसकी वजह से अब वह पढ़ाई लिखी पर अपना सारा ध्यान केंद्रित करना बाद देता है। और इसलिए वह कमज़ोर हो जाता है।

ये सोच गलत होती है। 

कैसे?

गौर करके यदि हम मंथन करें तब शायद हमें यहां साहित्य के अध्ययन का महत्व दिखाई पड़ने लग जाए।

दरअसल इंसान का शिशु अपने जन्म से ही सभी जीवन रस लेंकर पैदा नही होता है। हिंदू दर्शन में ऐसा माना जाता है कि जीवन में नौ रंग या नौ रस होते हैं। आधुनिक इंटरनेट युग में सोशल मीडिया के संवादों में जितनी भी emoji होते हैं, हम शायद उतने सारे इमोशंस या जीवन रसों के अस्तित्व को स्वीकार कर सकते हैं। साधारण इंटरनेट खोज करने पर हमें एक विस्तृत खाका दिखाई पड़ जायेगा कि इस प्रकार और कितने सारे रस होते हैं।

ये जीवन रस ही इंसान की अभिरुचि को संचालित कर रहे होते हैं।

बाल्यकाल से वयस्क होने में जो बड़ा अंतर आता है, वह जीवन रस का होता है। बाल्य अवस्था में इंसान जिन जीवन रसों को ले रहा होता है, — मां का असीम प्रेम, पिता की अनंत अनुकंपा, सभी रिश्तेदारों, पड़ोसियों की मोह दृष्टि, पुचकार कर बातें करना, वगैरह, — ये सब बड़े होते समान नहीं रहते हैं। और इन्हीं में से बचपन में इंसान प्रोत्साहन रस भी प्राप्त करता रहता है, इन सभी आचरणों में।।इसलिए वह अभिरूचित बना रहता है।

 और फिर बचपन यानी आरंभिक दिनों में स्कूली शिक्षा में विषय में ऐसा कुछ पढ़ाए जाते हैं जो कि एक पूर्व तयशुदा परिणाम वाले होते हैं — एक दम झटपट, आसानी से तय हो जाता है कि व्यक्ति ने सही किया है या गलत— और यदि गलत होता है तब उसे जल्दी से सही करना सीखा दिया जाता है । इंसान अभी पहेलियों बूझने वाली पढ़ाई प्रक्रिया से गुजरना आरंभ नही किया होता है।

मगर बड़े होते होते ऐसा सब नही रह जाता है। बचपन के वो लाड दुलार गायब होने लगते हैं। विषय भी सीधे सीधे सही–या–गलत वाले नही रह जाते हैं। अब पूर्व तयशुदा परिणाम वाले नही रह जाते हैं। व्यक्तिनिष्ठ बाते आने लगती है, जिनमे सही या गलत प्रत्येक व्यक्ति के अनुसार सही गलत भिन्न होता रहता है।यहां अपने को दूसरे के ऊपर सिद्ध करने की स्पर्धा करके ही आगे बढ़ा जा सकता है। 

बालक इन सब के मध्य अपनी अभिरुचि खोने लगता है, क्योंकि अब संसार को बूझने के जटिल कार्य से उसका सामना शुरू हो चुका होता है। बचपन में तो पकी पकाई खीर मिल रही थी। अब खीर खुद से पकाने की बारी होती है।

बात अभिरुचि पर आ टिकती है। जो अधिक अभिरुचि रखता है, वे बेहतर से संसार को बूझना आरंभ करता है।

और अभिरुचि कैसे बनती है?
अभिरुचि इन जीवन रसों के रसपान करने से निर्मित होती है। 

इस प्रकार से, साहित्य पढ़ने का उद्देश्य शायद ये समझा जा सकता है कि समय रहते बालक इन रसों का स्वाद लेना शुरू कर दे, और स्वयं से रसपान करने लगे, ताकि समय से विकसित हुई अभिरुचि उसे जीवन में आगे स्वप्रोत्साहन देने लग जाए।

आरंभिक गणित, physics, chemistry भी तो भिन्न होती हैं , आगे चल कर मिलने वाले विषयों से। अंतर ये होता है कि आगे थ्योरिया पढ़ कर , तर्कों को बूझ कर बुद्धि का निर्माण होता रहता है। Theory और तर्क वही बालक आसानी से समझ पाते हैं जिनको जीवन रस का स्वाद पहले से ही पता होता हैं, जो उन्होंने साहित्य , किस्से कहानियों में से निर्मित किया होता है। जीवन रस उन्हे स्वप्रोत्साहन देता रहता है कि वे इन bore सी सुनाई पड़ने वाली थ्योरी को पढ़ ले।

तो फिर, पहले से कैसे पता होता है,जीवन रस का स्वाद कई सारे बालको को? 
साहित्य के अध्ययन से ! 

तो इस प्रकार से साहित्य का अध्ययन ही आगे चल कर गणित, physics chemistry में भी अभिरुचि प्रदान कराने का आधार बनता है।


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