भाग २ -इतिहासिक त्रासदी के मूलकारक को तय करने में दुविधा क्या है?

 ज़रूरी नहीं है कि इतिहास का अर्थ हमेशा एक ऐसे काल, ऐसे युग का ही लिखा जाये जिसको जीने वाला, आभास करने वाला कोई भी इंसान आज जीवित ही न हो। इतिहास तो हम आज के युग का भी लिख सकते हैं, जिसे जीने और आभास करने वाले कई सारे इंसान अभी भी हमारे आसपास में मौज़ूद हो। और वो गवाही दे कर बता सकते हैं कि ये लिखा गया इतिहास के तथ्यों का निचोड़,मर्म , सही है या कि नहीं।

मोदी काल के पूर्व मनमोहन सिंह के कार्यकाल तक का भारत का सामाजिक इतिहास टटोलते हैं। हमारा समाज एक गंगा- जमुनवि तहज़ीब पर चल रहा था। अमिताभ बच्चन मनमोहन देसाई की बनाई फ़िल्म 'अमर-अकबर-एंथोनी' में काम करके सुपरस्टार बन रहे थे। फ़िल्म भी सुपरहिट हो रही थी, और कलाकार अमिताभ भी । शाहरुख खां अपने 'राहुल' की भूमिका में फिल्मों में भी हिट हो रहा था, और फिल्मों के बाहर भी लड़कियों में लोकप्रिय था।

इससे क्या फ़ायदा हो रहा था कि सामाजिक संवाद को कि भारत आखिर मुग़लों का ग़ुलाम कैसे बना था?
फायदा ये था कि समाज में न्याय और प्रशासन तो कम से कम निष्पक्ष हो कर कार्य कर रहे थे। मीडिया को सीधे सीधे भांड नही बुलाता था हर कोई। सेना के कार्यो पर श्रेय हरण करने प्रधानमंत्री नही जाता था। फिल्मस्टार और क्रिकेट स्टार खुल कर तंज कस लेते थे पेट्रोल के बढ़ते हुए दाम पर। महंगाई की मार पर।  
यानी समाज में न्याय का वर्चस्व था। समाज में कुछ तो सुचारू चल रहा था। भय नही था समाज में। मुँह खोल देने से कोई पत्रकार, कोई टीवी एंकर 'वर्ण' में नहीं कर दिया जाता था कि libertard है, या की bhakt है। समाज में संवाद शायद जनकल्याण और सहज़ न्यायप्रक्रिया को सम्मन देते हुए चल रहा था।

मुग़लों को इतिहासिक त्रासदी का दोष नही देने का फ़ायदा समझ में आया क्या आपको?
संतुलन कायम था सामाजिक संवाद में। प्रशासन में न्याय मौज़ूद था, न्यायपालिका अपने पूर्व निर्धारित प्रक्रिया के अनुसार चलायी जा रही था, संसद पूरे समूह के द्वारा संचालित होता था, एक व्यक्ति के अंगुली के इशारों से नहीं।

भाजपा और संघ ने मूलकारक को  चुनावि विजय प्राप्त करने के लिए पकड़ा है। और ये मूलकारक गलत है , इसलिये परिणाम भी ग़लत मिल रहे हैं। भारत की तबाही बाहरी ताकतों से नही ही है। किसी भी देश की तबाही हो ही नही सकती बाहरी ताकत से। तबाही यदि निरंतर और दीर्घकालीन रही है, तब तो इसके कारक भीतर में ही थे। असंतुष्ट वर्ग भीतर में ही मौज़ूद है, और उनको चुनावी परास्त करने की कीमत बहोत बड़ी दे रहै है मोदी जी। मुग़लों को मूलकारक मान लेने से आपसी विश्वास में हुई कमी को इंकार किया जा रहा है। 

आपसी विश्वास - mutual trust।

मीडिया पर लोगों ने विश्वास करना बंद कर दिया है। मीडिया तथ्य नही दिखता है, अब। मीडिया तःथ्यों के आधार पर किया जाने वाला पक्षपात से मुक्त विशेलेष्ण नही दिखा सकता है। (क्योंकि स्वछंद विश्लेषण दिमागों में जाने से जनता मोदी के इशारों पर शायद चलना स्वीकार नही करे, फिर।) मीडिया अब जनता के दिमाग में सीधे सीधे मोदी के पक्ष की कहानी डाल रहा है। इससे पक्षपात बढेगा ही बढेगा। क्योंकि कोई न कोई वर्ग तो सत्य विशेलेष्ण कर ही रहा होगा। अब उस वर्ग को सामाजिक संवाद में पर्याप्त स्थान नही मिल रहा होगा। समाज में सत्य के डगमगाने से dissonance उतपन्न होगा। लोग आपसी शंकालु होने लगेंगे। वो pro government और anti government के तौर पर 'वर्ण' करेंगे एक-दूसरे को। और स्वतः ही उसी अनुसार आपसी सहयोग और बैरभाव निभाएंगे। ऐसा करते रहना ही तो सामान्य इंसानी व्यवहार होता है। प्रशासन में उच्च पद पर मोदी भक्त को ही रखा जायेगा। जाहिर है, आगे बढ़ने के लिए लोग चापलूसी को चलन बनाने लगेंगे। चापलूसी अनर्थ कार्य और घटनाएं खुद ब खुद करवाती हैचापलूस लोग कानून के अनुसार कार्य करते ही नही है। पुलिस और अन्य प्रशासनिक पदों पर राजनैतिक चापलूसी करने वालो का वर्चस्व बढेगा, यानी कानून के सच्चे रखवालां की संख्या विलुप्ति की ओर बढ़ेगी। अब कानून का रखवाला बनना स्वतः ही बेवकूफी बन जायेगा। आखिर किसको पता की क्या सही कानून है, जिसकी रक्षा करने से समाज का और  सभी जनों के हित बनेगा! -- सीधा सवाल! 
"तो फ़िर वही करो जिससे अपना निजी हित संभाल सको! यानी चापलूसी ! मोदीभक्ति।"

चापलूसी के चलन आने से समाज अंधेरनगरी में तब्दील होता है। शायद लक्षण अभी से दिखाई पड़ रहे हैं, यदि आँखें खोल कर देखें तो। गोरखपुर की घटना को देखिये, पुलिस की हरकतों को पकड़िये। अब लखीमपुर खीरी की घटना में पुलिस के इंसाफ को देखिये। और मुम्बई में cruise ship पर घटे फिल्म स्तर के बेटे के संग हुये नाइंसाफी को देखिये! पुलिस कमिशनर ही भगोड़ा करार दिया गया है कोर्ट से (परमबीर सिंह का प्रकरण) । ये सब बाते बहोत भीषण लक्षण है कि देश चापलूसी चलन के चपेट में प्रवेश कर चुका है। 

आगे , देश का उच्च वर्ग सबसे तीव्र संवेदन अंग रखता है ऐसे हालातों के लक्षण पकड़ने में ,और सबसे प्रथम पलायन के मार्ग ढूंढ कर तैयार हो जाता है। अब मुकेश अम्बानी का london में बसर करने की तैयारी का समाचार समरण करें। 

अब बैठ कर अपनी तैयारी को देखिये। हमारा समाज अब शिखर के किनारे पर है, और ये कभी भी नीचे गिर सकता है।

सत्य मूलकारको को प्रतिपादित नहीं होने देने की कीमत देने वाला है भारत का समाज। 

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