भेदभाव और अयोग्यता में क्या कुछ भी अन्तर नहीं होता है?

भेदभाव और अयोग्यता में क्या कुछ भी अन्तर नहीं होता है?* 

यदि आपकी दुकान का सामान कम विक्रय हो रहा है, तो क्या इसका कारण आपके संग हो रहा भेदभाव माना जा सकता है?

यदि आप अभद्र बोल वाले गीत लिखते है जिस पर लोग आपत्ति ले लेते हैं, तो क्या यह मान सकते हैं कि आपके संग भाषागत भेदभाव किया जा रहा है ( "क्यों कि कुछ elite किस्म के लोग अंग्रेजी भाषा मे अभद्र शब्दों को मान लेते हैं, मगर..." )

आत्म मंथन के लिए हमारे समक्ष सवाल यह है कि :--
 क्या भेदभाव और बाजार में विफल हो जाने में कोई अंतर नही होता है?

दिलीप मंडल और ऐसे कुछ दलित-पिछड़ा "चिंतक" , बुद्धिजीवी , लोग तो कम से कम अयोग्यता और भेदभाव में कुछ भी अन्तर नही मानते हैं !!

उनके अनुसार यदि जस्टिस कर्णन मामले को कम तवज़्ज़ो दी गई है , प्रशांत भूषण मामले से , तो यह समाज के भेदभाव नियत को दर्शाता है !
न कि कर्णन मामले की कमजोरियों के प्रति समाज की जगरूतकता को !

दिलीप मंडल जी जैसे दलित-पिछड़ा "बुद्धिजीवी" ऐसे लोग हैं जो कि बाजार के तौर तरीकों से अनभिज्ञ है, मगर वह इसे अपनी अयोग्यता , अपनी कमी नही मानते हैं, बल्कि समाज का उनके प्रति भेदभाव नियत का आरोप लगाते हैं !!
प्रायः दुकानदारी बुद्धि के लोग अपना सामान की विक्री बढ़ाने के लिए जुगत लगाते हैं, मगर दिलीप मंडल जी आरोप लगाना पसंद करते हैं।
व्यापारी लोग विक्री बढ़ाने के लिए जुगत करते हैं, शुरू के भी शुरू से - जैसे दुकान कहाँ खरीदी जाए, उसे कैसे सजाये, क्या सामान बेचै,  marketting और sales के लिए आदमी रखें,मानव संसाधन के लिए अध्धयन और शोध करें, प्रशिक्षण करवाये, advetisement, sponsorship , promotion के अस्त्र पकड़े, 

मगर दिलीप मंडल जी जिस "तबक़े" के बुद्धिजीवी हैं, वहां तो जैसे यह सब सोचना ही "पूंजीवाद" जैसी "घटिया"सोच होती है !! वहां केवल "आरक्षण" के लिए चिंतन बैठक होती है, जहां लोग "सरकारीकरण"  बढ़ाने के लिए राजनैतिक तंत्र बनाने की मांग करते हैं, और अपने बच्चों की "पढ़ाई लिखाई" बड़े IAS/IPS अफसर बनाने के लिए तक ही सोच कर करते हैं, ताकि "समाज सेवा" करि जा सके, न कि समाज की ज़रूरतों को पूरा किया जा सके !!

दिलीप बाबू एक ऐसी मानसिकता का प्रतिनिधतव करते हैं जहां उनके आरोप हैं कि यह समाज में भेदभाव और पक्षपात मानसिकता है कि लोग दूसरी दुकानों से जहर ख़रीद कर खाते हैं, मगर उनकी दुकान का जहर खरीदने कोई नही आ रहा है !

दिलीप बाबू को यह फिक्र नही की बेच तो वह भी ज़हर ही रहें हैं, 
उनकी फिक्र कुछ और है, जो कि आप स्वयं से समझ लें !

उनका मुद्दा यह नही है कि हम पिछड़े क्यों है, क्योंकि उनके अनुसार हमेशा , हर बार कारण एक ही है - कि, अतीत में हमारा शोषण हुआ है,
न कि, क्या हम में वाकई कुछ कमी है? क्या हम जुगत नही लगा पा रहे हैं? क्या हम संघठित नही हो पा रहे हैं?

Comments

Popular posts from this blog

the Dualism world

Semantics and the mental aptitude in the matters of law

It's not "anarchy" as they say, it is a new order of Hierarchy