समाजवादी देश में इंसानों के चरित्र , स्वभाव पर टिप्पणी
समाजवादी देश में इंसानों के चरित्र , स्वभाव पर टिप्पणी
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समाजवादी तंत्र किसी भी समाज मे हो, वो इंसान को "पंगु"("help less, power less, pathological detachment disorder) बनाते है
यह बात सुन कर कई लोगो को अटपटी लगेगी, मगर एक theory तो यह भी कही जा सकती है कि किसी भी देश मे कैसा राजनैतिक तंत्र है, इसका गहरा असर उस देश के प्रत्येक नागरिक के दिन प्रतिदिन के बात-व्यवहार, उसके आचरण, उसके मनोविज्ञान पर भी असर डालति है।
इस theory को समझने के लिए हम उल्टा प्रदेश के समाजवादी तंत्र का उदाहरण लेते हैं।
किसी भी देश मे समाजवादी तंत्र आने पर तंत्र के तमाम संसाधन सरकारी नियंत्रण में आ जाते हैं। तब उस देश मे "आला अधिकारियों" , ऊंचे पद/"ताकतवर" मंत्रियों की धाक से ही तंत्र नागरिको को सेवा देता है, अन्यथा तंत्र प्रत्येक नागरिक तक सरकारी सहायता/अनुदान पहुंचने में एक बाधक बन जाता है । अपने ही नागरिक को कोई सहायता दे सकने में अवरोधक। ऐसा समाजवादी तंत्र बारबार "विशाल जनसंख्या" , "पैसे की कमी" इत्यादि दुहाई दे कर खुद के असहाय होने का justification देता रहता है, और वास्तव में नागरिको को "पंगु" मनोअवस्था में डाल देता है।
ऐसा नही कि अब यह तंत्र बिल्कुल भी कार्य नही करता है, यानि किसी की भी मदद नही करता है। बल्कि अब यह तंत्र किसी बड़े अधिकरी, आला अधिकारी या उच्च दबाव, ताकत वाले मंत्री के दबाव पर ही इंसान को सेवा करने के लिय के लिए झुकता है।
स्वाभाविक तौर पर समाजवादी तंत्र अफ़सरशाही का दूसरा अवतार बन जाता है। यहाँ अब संत्री और मंत्री की ही चलती है - यानी उनके ही ताकत से तंत्र के चक्के को इंसान प्रशासनिक सहायता को प्राप्त कर सकता है, अन्यथा वह यूँ ही गरीब रह जाता है
जाहिराना, समाजवादी तंत्र वाले देश मे नागरिको को इस "ताकत" का अहसास बराबर मिलता है, और वह स्वाभाविक तौर पर "मंत्री पद की ताकत" पाने के लिए राजनीति में कूद पड़ते हैं। कहने का अर्थ है कि समाजवादी तंत्र में लोगों को राजनीति का चस्का होता है - एक किस्म का नशा ।
इसी तरह, समाजवादी तंत्र भ्रष्टाचार को भी बढ़ावा देने के भी दोषी होते हैं। समझना आसान है - कि, तंत्र का चक्का घुमाने की दूसरी विधि रिश्वत होती है, क्योंकि अधिकारियों को अपने पक्ष में कार्य करने की दूसरी "प्रेरणा" (incentive) यही होता है - undertable लेन देन।
समाजवादी देश का नागरिक यदि पैसे से और "पहुँच"(source राम) से सामर्थ्य नही हुआ, तब वह अक्सर हिंसक हो जाता है। बस यूँ ही सीना चौड़ा करके, "बाहुबली", "दबंग", इत्यादि बने घूमता है, जो छवि की उसको अपने करवा सकने का मार्ग देती है।
और यदि इंसान हिंसक नही बना, तब फिर समाजवाद तंत्र दूसरे "शांतिप्रिय"(=असहायता से चिरंतर पीड़ित) नागरिकों को frustrated बनाते है, चिड़चिड़े और आक्रोशित बनाते हैं। ज़ाहिर सी बात है - पंगु पड़ा इंसान , उसे आगे का मार्ग दिखाई नही पड़ता है, रोज़ रोज़ की बेबसी या तो उसे हिंसक/चिड़चिड़ा बनाती है, या उसे एक emotional detachment का स्वभाव दे देती है - जब वह अपनी असहाय जिंदगी को भाग्य मान कर उससे समझौता कर लेता है , और किसी से भी प्रेम/परवाह करना बन्द कर देता है। उसके अंदर सही-गलत, प्रेम-घृणा, अच्छा और गंदा , जीवन और मृत्यु की चेतना क्षीर्ण हो जाती है।
Emotional Detachment एक क़िस्म की मनोअवस्था है, जब व्यक्ति के भीतर बेबसी का अहसास तक समाप्त कर लेता है, और हालात से पूर्ण समझौते में चला जाता है।जब उसके पास न तो अर्थ शक्ति होती है और न ही अधिकारी वाली शक्ति - तब वह detachment में प्रवेश कर जाता है। आप उसे कूड़े में से खाना निकाल कर खाना खाते देख सकते हैं। यह असाक्षरता नही है, यह निरबुद्धता है। तंत्र पर अविश्वास नही है, तंत्त के प्रति पूर्ण अज्ञानता है क्योंकि यह तंत्र तो वैसे भी कभी उनकी सहायता के लिए आने वाला नही है।
दुनिया में इंसानो के बीच आर्थिक संबंध बनाने के मार्ग दो ही हैं - दाम दे कर, या दबाव दे कर । इस आधार पर ही दुनिया के तमाम समाजों में दो किस्म के राजनैतिक तंत्र प्रकट हुए है - समाजवादी, या फ़िर अर्थवादी (पूंजीवादी इसी के गंभीर अवतरण को बुलाया जाता है)।
समाजवाद एक किस्म के विकृत राजशाही है। इसमे प्रत्यक्ष कोई राजा नही है, मगर उसके स्थान पर मंत्री और संत्री हैं। तंत्र का चक्का उनकी "ताकत" पर ही सेवादयाक बनता है।
समाजवादी पंगु समाज पैसे की ताकत पर भी चलते है, मगर तब बहोत अधिक धन की ख़पत करनी होती है चक्के को घुमाने के लिए। यानी बहोत लोगों को खिलाना पिलाना पड़ता है, ज़ेब गर्म करनी पड़ती हैं।
असहाय पड़े नागरिक अब जीवन विधि के वास्ते कुछ अवैज्ञानिक, सस्ते मार्गों को भी उचित मानने को खुद को मानसिक तौर पर तैयार कर लेते हैं। जैसे चिकित्सा की आवश्यकता में homeopathy और आयुर्वेद - घरेलू चिकिस्ता प्रायः प्रयोग किया जाता है। समाजवादी देश में पूरा समाज एक विशाल बहस में उलझा रहता है कि homeopathy और आयुर्वेद(घरेलू ईलाज़) में अवैज्ञानिक क्या है।
क्यों?
क्योंकि दाम की दृष्टि से आम आदमी की गिरफ़्त में यह homeopathy /आयुर्वेद ही पहुँचते है। proper medicine के ईलाज़ दाम में महंगे होते हैं, अन्यथा सरकारी अस्पतालों में फिर वही - तंत्र का चक्का घुमाने की बाधा होती है।
ज़ाहिर है, समाजवादी देश के आदमी विज्ञान और छदमविज्ञान में भेद करने के लिये प्रवीण नही होते हैं। उनके प्रमाण के मानदंड आस्थावादी अधिक होते हैं, skepticism और नास्तिकता से न के बराबर प्रेरित होते हैं।
इसका असर आप उनके दिन प्रतिदिन के निर्णयों पर भी देख सकते हैं। वह असहायता से ग्रस्त, पंगु हुए , सवालों को, आशंकाओं को, प्रश्नों को कम करने में झुकाव रखते हैं।
क्यों?
क्योंकि, तंत्रीय असहाय हालात की क्षमता नही होती है जवाबो को ढूंढ कर प्रदान करने की। उल्टे, जीवन युक्ति में बाधा हो जायेगी, यदि विश्वास या आस्था कमज़ोर हो जाये।
बीमार पड़े इंसान का ईलाज़ लंबे समय तक समाजवादी लय से प्रवाहित होते हुये होमेओपेथी या आयुर्वेद(घरेलू) पद्धति से चलता है, जब तक नौबत बड़ी नही हो जाती है।
समाजवादी देश की जनता ग़रीबी को पालती-पोस्ती है। व्यवसायी लोग पैसे के ज़ोर पर सरकार को खरीदने में दम लगाते हैं। अन्त में समाजवाद नेता एक दलाल बन कर रह जाता है, अमीर उद्योगपतियों और गरीब श्रमिकों के बीच में। समाजवादी देश के लोग "सरकारी करण" में यकीन इस लिए करते हैं क्योंकि तभी मंत्री-और-संत्री की ताकत के भरोसे संस्थान के चक्के को घुमा कर सेवादयाक बना सकेंगे। समाजवादी लोग अर्थवाद को नकारते हैं, पैसे को आम अनजान आदमियों के मध्य इंसानी संबंध बनाने की ताकत को इंकार करते हैं।
समाजवादी समाजों के नागरिक पैसे ,यानी मुद्रा वादी तंत्र में "विशाल आबादी" की दिक्कतों को स्व-संतुलन करने की क्षमता को नही देखते हैं।
समाजवादी देश के लोग बेरोज़गारी को सीधा सरकारी बदहाली मानते हैं, -- कि, जैसे लोगों को नौकरियां देना ही सरकार का कर्तव्य हो !! जबकि वास्तव में बेरोज़गारी अर्थतंत्र की समस्या है, जिसका समाधान नागरिकों के स्वयं के प्रयासों से होना चाहिए, सरकार का मात्र सहयोग होना चाहिए।
मगर समाजवादी देश के नागरिकों तो अपनी तंत्रीय बेबसी को 'दुनिया का सच' मान चुके होते है, इसलिये मिल कर कोई भी संयुक्त प्रयास का मार्ग /युक्ति कभी सोचते ही नही है। बल्कि समाजवादी तंत्र तो इंसानों के संयुक्त प्रयासों/युक्तियों को भी बंधित करता रहता है , जब तक वह संयुक्त प्रयास एक वोटबैंक बन कर तंत्र का चक्का घुमाने की विधि से क्रियान्वित न हो जाये।
समाजवादी तंत्र कभी भी संसाधन विकसित नही कर पाते हैं। हालांकि मुहँ-जबानी वादा करते रहते हैं कि infrastructure विकसित करेंगे। असल में infrastructure की कीमत को कमाने के लिये अर्थतंत्र का चक्का तेज़ी से घूमता हुआ होना चाहिए। मगर समाजवादी तंत्र का चक्का को धीमा, अवरोधी होता है।
समाजवादी तंत्र का law and order की दिक्कतों से पीड़ित होना स्वाभाविक होता है।क्योंकि हिंसा का मार्ग असहाय , बदहाल आदमी को तंत्रीय प्रतिक्रिया होती है, चक्के को अपने सहयोग, रक्षा और हित में सेवाकार्य करने के लिए।
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