Human psychology is the headquarters of superstitions

अक्सर मुझे ऐसा लगता है कि अंधविश्वास का विरोध करना कोई समझदारी का काम नही है।
किसी भी तथाकथित अंधविश्वास का विरोध सिर्फ तभी उपयुक्त माना ज सकता है जब वह किसी के मार्ग की बाधा बनता हो, अन्यथा उस अंधविश्वास को छेड़ना कोई समझदारी नही है।
ऐसा सोचने का कारण क्या है?
कारण यह है कि वास्तव में अंधविश्वास या विश्वास (दोनों के मध्य की रेखा बहुत धूमिल होती है इसलिए स्पष्ट पहचान आसान नही है) का वास्तविक केंद्र आसपास बैठा कोई ब्राह्मण या फिर कि धर्म नही होता है, बल्कि खुद इंसान की बुद्धि और उसकी मनोविज्ञानी ज़रूरत ही होती है
The headquarters of the superstitions is not the Brahmin man nearby you, but you own brain and it's psychology.
दुनिया भर में जहां जहां भी मानव सभ्यताएं बसी , वहां किसी ने किसी रूप में विश्वास पनपा ही है। बल्कि बारीकी से देखने पर आप पाएंगे कि बिना विश्वास के तो इंसानी सभ्यता का स्थापना ही असंभव है। और जहां विश्वास स्थापित हुआ है, फिर वहां कुछ न कुछ रीत-रिवाज़ या फिर की "रूड़ी" भी पनपते ही हैं।
अंग्रेजी दर्शन में इंसानी बुद्धि में तर्क को विश्वास से भेद किया जाता है। तर्क वह हैं जो कि तथ्यों पर आधारित होते हैं। तथ्य वह हैं जो कि पांच इन्द्रियों से sense करने मसितष्क के प्रयोग द्वारा सिद्ध माने जाते हैं।
इन तथ्यों का संग्रह जानकारी  कहलाता है। जानकारी का मूल शब्द ज्ञान है, इसलिए इन्हें हम ज्ञान भी बुलाते हैं।
अब दिक्कत यूँ है कि मानव समाज मे ज्ञान हमेशा से ही कम उपलब्ध रहा है। अभी पिछले 200 का इतिहास छोड़ दे, तब तो ज्ञान की हालत और भी खराब थी।
तो फिर इंसान जीता कैसे था? यही अज्ञानता के आवेश में, अपने मन से ही कुछ भी "कारण" को कल्पनाओं से निर्माण करके उसे सत्य मान लेता था और उसके सिद्ध होने के प्रयास छोड़ देता था। यह काल्पनिक कारण ही तो विश्वास है।
ज्ञान आज भी कम ही उपलब्ध है। एक अंग्रेजी विचारक का कहना है कि आज भी इन्सान के पास समूचा ज्ञान इतना निम्म है कि वह किसी समुन्द्र किनारे के बालू के तट पर मात्र एक कण के बराबर ही है।
तो फिर ज्ञान के अभाव में इंसान का जीवन कैसे चलता है?
इसका जवाब वही है :-
विश्वास से ।

विश्वास और अंधविश्वास में क्या अंतर है?
शायद बस यही की वह विश्वास जिन पर अब मानवों ने कुछ ज्ञान तलाश कर चुके हैं, मगर बाकी अन्य इंसानी समूह अभी तक वह तलाश किया हुआ ज्ञान नही पहुँच सकने की वजह से वह अभी तक उस विश्वास को पकड़े बैठे हैं, वह अंधविश्वास बन जाता है।

तो संक्षेप में,
विश्वास - ज्ञान = अंधविश्वास
जब विश्वास को ज्ञान द्वारा गलत सिद्ध किया जा चुका हो, यदि वह विश्वास तब भी कुछ समाजों में बचा रह जाये क्योंकि ज्ञान वहां तक पहुँच नही सका है, तो वह विश्वास ही अंधविश्वास कहलाने लगता है।

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