चाइना में संवैधानिक संशोधन के प्रयास और समाज मे वर्ग विभाजन
*चाइना में संवैधानिक संशोधन के प्रयास और समाज मे वर्ग विभाजन*
काफी सारे लोग चाइना को बहोत उत्कृष्ट देश समझते हैं। अभी कल ही चाइना में राष्ट्रपति को दो कार्यकालों से अधिक का अवसर देने के लिए एक संवैधानिक संशोधन का प्रस्ताव लाया गया, तब इसकी चाइना के सोशल मीडिया पर बहुत कटु आलोचना हुई। लोगो ने राष्ट्रपति झी जिनपिंग को उत्तरी कोरिया के सुंग वंश के राज्य से तुलना करके चाइना को उसी मार्ग पर के जाने का व्यंग बाण छोड़े थे। उत्तरी कोरिया में उनके देश के जन्म से आज तक बस सुंग वंश का राज चलता आया है।
मगर आलोचनाओं को छिपाने के लिए चाइना की सरकार ने तुरंत इंटरनेट पर इस तरह के तीखे व्यंग को दबाना आरंभ कर दिया और तुरंत ही राष्ट्रपति और पार्टी की छवि को बेहतर बनाए रखने वाले लेख और सोशल मीडिया प्रचार का प्रसारण आरंभ कर दिया है ।
यही है चाइना कि सच्चाई। अथाह गरीबी, और अशिक्षा से ग्रस्त चाइना में विशाल आबादी का श्रमिक शोषण ही वहां पर ऊपरी दिखती तरक्की-नुमा गगनचुंबी निर्माण वाले "विकास" का असल आधार है। अत्यधिक शोषण देशों तथा समाजों को वंशवाद की और ले जाता है, जहां से गरीबी और गुलामी उस समाज की नियती बन जाते हैं। आज चाइना भी सामाजिक इतिहास के कुचक्र में वापस उलझ चुका है जहां विकास और तरक्की की चाह उनके समाज को वास्तव में अनंतकाल की गरीबी और गुलामी के निर्णयों और तरीको को अपनाने के लिए प्रेरित कर रहा है।
विकास और तरक्की के क्या मायने है, और क्या नहीं -- यह एक आपसी बहस का लंबा हिस्सा है। मगर इन सब के बीच समूची दुनिया के सामाजिक इतिहास से सबक यही मिलता है कि विकास और तरक्की वही आयी है जहां सारा समाज एक साथ उत्थान कर सका है।
यानी, उसी समाज ने खुशहाली को प्राप्त किया है जो वर्ग-विभाजन से खुद को बचा सका है।
आज चाइना यही पर असफल होता दिख रहा है। तथाकथित किस्म के विकास को चाहने के लिए आज चाइना की सरकार को जरुरत अान पड़ी है कि वही हमेशा के लिए सत्ता में काबिज रहे, किसी दूसरे को मौका न से। ऐसा क्यों ? शायद इसलिए क्योंकि इसको भय है कि सत्ता परिवर्तन से इनके कुछ कर्मो के लिए इन्हें सज़ा दी जा सकती है। केहने का मतलब है कि चाइना के समाज में भी वर्ग विभाजन इतना तीव्र हो गया है कि किसी एक वर्ग को दूसरे पर इतना विश्वास नहीं रह गया है कि अगर दूसरा वर्ग सत्ता में आ गया तो इनके कर्मो और निर्णयों का "न्याय नहीं करेगा"।
यानी चाइना का निर्माण-आधारित "विकास" भी सर्वहित मार्ग से नहीं हुआ है, किसी एक वर्ग ने अपने किस्म के कार्यों को "विकास" के नाम पर दूसरे वर्ग को थोपने की कोशिश करी है। और अब वह लाभान्वित वर्ग डर रहा है कि यदि सत्ता परिवर्तन से दूसरे वर्ग के लोग शसक्त हो गए तो फिर सारा खेल खराब कर देंगे।
विकास के नाम पर अंधाधुंध निर्माण करने वाले समाजों के साथ यही होता आया है। पहले तो यह लोग सबको संग चला कर उत्थान प्राप्त करने के लिए "राष्ट्रीय अनुशासन" के नाम पर मौलिक अधिकारों को नष्ट करते है। फिर सामाजिक शोषण , श्रमिक शोषण के मार्ग को खोल देते हैं। और फिर इनके समाजों में वर्ग विभाजन होने लगता है - एक *शोषित वर्ग* और एक *शासक वर्ग* अस्तित्व में आ जाता है। और फिर *शासक वर्ग* अपनी प्रभुसत्ता को हमेशा के लिए कायम करने के लिए आवश्यक संवैधानिक संशोधन करने लगता है। और साथ ही मानव अधिकार और नागरिक मौलिक अधिकारों को कमजोर या नष्ट करने लगता है। और फिर धीरे धीरे यह समाज अनंतकाल के शोषण, गरीबी और गुलामी के कुचक्र में वापस फंस जाते हैं।
आज भारत में भी ' *आधार* ' प्रमाण संख्या को जिस प्रकार से अनिवार्य करने के लिए सरकार की हुड़क मची है, वह नागरिक के मौलिक अधिकारों को नष्ट करने पर तुली है, इससे पता चलता है कि हमारे देश के समाज में भी क्या चालू है। दुर्भाग्य से हमारे यहां तो सरकार में बैठी पार्टी या नेता के कार्यकाल पर वैसे भी कोई सीमा पाबंदी नहीं है।
विश्व इतिहास का सबक है कि जहां जहां भी जिन समाजों में विकास, भ्रष्टाचार मुक्ती, इत्यादि के नाम पर नागरिक मौलिक अधिकारों को भेद करके कोई कानून बना है, वहां वास्तव में शोषण और गुलामी ही घटी है। एक सामाजिक वर्ग सत्ता में पहुंच कर दूसरे वर्ग का अधिकार हनन करके लंबे युगों तक लाभान्वित होने की चेष्टा करता रहा है। तो अनुशासन के सख्त कानून से सामाजिक उत्थान कम हुआ है, श्रमिक शोषण अधिक हुआ है -- यही सामाजिक इतिहास की सच्चाई है। और जहां शोषण हुआ है, वहां अपराध, आंतरिक हिंसा और फिर बाहरी हिंसा यानी युद्ध हुए है। यानी शांति व्यवस्था भंग रही है।
विश्व इतिहास का सबक है कि जहां जहां भी जिन समाजों में विकास, भ्रष्टाचार मुक्ती, इत्यादि के नाम पर नागरिक मौलिक अधिकारों को भेद करके कोई कानून बना है, वहां वास्तव में शोषण और गुलामी ही घटी है। एक सामाजिक वर्ग सत्ता में पहुंच कर दूसरे वर्ग का अधिकार हनन करके लंबे युगों तक लाभान्वित होने की चेष्टा करता रहा है। तो अनुशासन के सख्त कानून से सामाजिक उत्थान कम हुआ है, श्रमिक शोषण अधिक हुआ है -- यही सामाजिक इतिहास की सच्चाई है। और जहां शोषण हुआ है, वहां अपराध, आंतरिक हिंसा और फिर बाहरी हिंसा यानी युद्ध हुए है। यानी शांति व्यवस्था भंग रही है।
विकास और भ्रष्टाचार मुक्ती के वही मार्ग उपयुक्त होते है जो कि मौलिक अधिकारों को संग लेकर चल कर प्राप्त होते हैं। विकास और भ्रष्टाचार मुक्ती के नाम पर सख्त, अनुशासन कानून बनाने वाले मार्ग छलावा है, और समाज में एक *शासक वर्ग* , और *शोषित वर्ग* को जन्म देते हैं। सच्चाई यही होती है कि अनुशासन या भ्रष्टाचार मुक्ति के सख्त कानून बस सिर्फ *शोषित वर्ग* पर ही लागू किए जाते हैं, *शासक वर्ग* हमेशा से कानून और न्यायपालिकाओं के चागुल से आज़ाद रहता आया है - चाहे जो हो जाए, कानून और न्यायपालिकाएं इस वर्ग से आए आर्थिक या सामाजिक अपराधी को सज़ा देने में असफल ही रहती आई है।
आप खुद से मुआयना कर लें।
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