67 साल के प्रजातन्त्र की समीक्षा

गलतियां हुई है संविधान निर्माताओं से। अब तो हमें rhetoric में उनके काम के तारीफ करना बंद करके समीक्षा करना शुरू करना होगा। आखिर 67 साल बीत गए हैं।
कोई भी कानून जो व्यवस्थाओं संचालित करता है, मात्र किसी उद्घोषणा से काम नही कर सकता है।
कानून है ही क्या,उसकी बुनियादी समझ क्या है ?
भई, जो कुछ भी हम और आप सहज स्वीकृति से करते आ रहे हैं, सदियों से, परंपरा से, वही कानून है।
तो किसी उद्घोषणा से क्या वह बदल जायेगा ? नही, बिल्कुल नही। तो क्या किसी किताब के पन्ने पर कोई कुछ लिख कर चला जायेगा , तो क्या देश की परंपरा बदल जाएगी?
बिल्कुल नही।

तो क्या परंपराओं को कभी भी बदला नही जा सकता है ?
बदला जा सकता है। सबसे प्रथम तो आप को पहचान करनी होगी,विपरीत और असंतुष्ट शक्तियों की, जो कि परिवर्तन चाहते हैं।
फिर , आवश्यक परिवर्तन के लिए उन्हें शक्ति संतुलन के चक्र में आसीन करना होगा जहां से वह हमेशा के लिए, निरंतर उस बदलाव को प्रेरित करते ही रहे जो कि वह चाहते हैं।
तो यहाँ पर गड़बड़ हुई है।
सबसे प्रथम तो की ठकुराई को पहचानने के लिये उसकी प्रकृति को नही समझा गया, बल्कि उसके उपाधि या कुलनाम से पहचाना गया। ठुकराई की मूल पहचान उसकी प्रकृति में है - जहां वह असमानता को बढ़ावा दे कर श्रमिक और आर्थिक शोषण को जन्म देता है। ठुकराई की मूल पहचान है असमान न्याय, dual standards, छल कपट।
ठकुराई व्यवस्था का कानून ऐसा होता है कि पहले तो किसी भी गलत काम को प्रतिबंध लगाता है, मगर कानून के उच्चारण में ऐसे पेंच मार कर रखता है कि अपने आदमी को हमेशा बचा लेता है। तो कुल मिला कर ठुकराई की मूल पहचान उसके कानून व्यवस्था में छिपी है, न कि उसकी उपाधि और उसके कुलनाम में।
ठकुराई का कानून आम आदमी को ही नियंत्रित करता है, बड़े और शक्तिशाली लोग हमेशा बच निकलते हैं । अपराध सभी कोई करता है, मगर छोटे अपराधी ही सज़ा पाते है, बड़े अपराधी नही। बड़े और छोटे से अर्थ है कि कौन ठकुराई का सरपरस्त है, और कौन नही है।

संविधान निर्माताओं ने यहां गलती करि है । उन्होंने मात्र कुछ घोषणाओं के दम पर व्यवस्था में बदलाव के प्रयास किये, जबकि वास्तविक परंपराएं कुछ और ही थीं। 67 सालों बाद निर्मोह समीक्षा करें तो नतीजा यह रहा है कि परंपराएं कायम रह गयी, बस उनके संवैधानिक नाम बदल गए हैं।

जबकि एक अच्छे व्यवस्थापक को कुछ कार्यवाही के माध्यम से परिवर्तन करना चाहिए था, न कि घोषणाओं के।
कार्यवाही से अभिप्राय है प्रशासनिक और न्याययिक शक्ति संतुलन के तानेबाने में कुछ आवश्यक बदलाव करके प्रजातांत्रिक बदलाव की चेष्टा करने वाले वर्ग को स्थान देना, जहां से वह प्रजातन्त्र को प्रेरित करते रहें।

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