तुलना: सामान्य परीक्षा पद्धति बनाम जहाज़रानी महानिदेशालय की व्यवस्था

(हिंदी अनुवाद :)

सामान्य परीक्षा पद्धति जो की किसी भी शिक्षा बोर्ड तथा विश्वविद्यालय में प्रयोग करी जाती हैं, उसमें कुछ निम्नलिखित विशेषतायें रहती है जो की सुनिश्चित करती है की निष्पक्षता कायम रहे और  कही किसी प्रकार के द्वेष/ वैमनस्य भाव अथवा मोह को सक्रिय होने का स्थान न मिले।
   वह विशेष विधियां जो की परीक्षक के अंदर विद्यमान संभावित द्वेष/ वैमनस्य भाव अथवा पक्षपात को सक्रिय होने पर भी विशेष परीक्षार्थी अथवा उनके समूह को चिन्हित करने में बाधा करते हैं :-
   1) परीक्षा के नियम प्रत्येक परीक्षार्थी को एक विशेष संख्या, हॉल टिकट नंबर , की नई पहचान देती है।ऐसा करने से यह निश्चित हो जाता है की उसकी पहचान को गोपनीय बना दिया गया है।
2) उत्तर पुस्तिका नियमों में यह कहा गया है की कोई भी परीक्षार्थी अपनी उत्तर पुस्तिका में किसी भी रूप में अपनी पहचान सदृश्य नहीं कर सकता है। ऐसा करने से पहचान सम्बंधित गोपनीयता को बल मिलता है।
3) इसके उपरांत उत्तर पुस्तिकाओं को दूसरे स्तर पर गोपनीय संख्या दे दिए जाते हैं, जो की अक्सर omr पहचान संख्या किसी कंप्यूटर इत्यादि से दिए जाते हैं। अब उत्तर पुस्तिकाओं को चिन्हित कर सकना अत्यंत मुश्किल हो जाता है।

वह विशेष विधियां जो की सुनिश्चित करती है की परीक्षक कोई शिथिल जांच कार्य न करे, या फिर छात्रों को फेल करने की लय न बना लें इस मोह में आकर कि चूंकि उत्तर पुस्तिकाओं की जांच की उन्हें कीमत दी जाती है, तो वह जितनी अधिक पुस्तिकाओं को फेल करेंगे उतने अधिक छात्र अपनी पुस्तिकाएं वापस जांच के लिए याचना करेंगे और फिर परीक्षक को उतना अधिक धन लाभ मिलेगा :-
4)  अ) काफी सरे बोर्ड अथवा विश्वविद्यालय कुछ नियमों द्वारा यह नियंत्रित करते हैं की परीक्षक किसी भी उत्तर पुस्तिका में कितने अंक काट सकता है असामान्य कारणों से ,जैसे की अस्पष्ट हस्तलेखन , मात्रा त्रुटि, ग्रामर सम्बंधित त्रुटि, गन्दा कार्य, इत्यादि।
  ब) कुछ दूसरे बोर्ड और विश्वविद्यालय में जांचकर्ताओं को कुछ एक नमूना जांच पुस्तिकाओं के समान्तर जांच करने की हिदायत दी जाती है। नमूना उत्तर पुस्तिका में एक उचित उत्तर के सभी कीमती बिन्दूओं को सपष्ट कर दिया जाता है। और इसके उपरांत बाकी सभी अवर परीक्षकों को हिदायत दे दी जाती है की वह कितने सारे कीमती बिन्दूओं पर कितने अंक नामांकित कर सकते हैं।
   स) कुछ एक बोर्ड और विश्वविद्यालयों में परीक्षक जांचकर्ताओं के ऊपर कुछ वरिष्ठ  निरीक्षक बैठा दिए जाते हैं जो की जांच की हुई पुस्तिकाओं की अनर्गल नमूना जांच करके देखते है की अवर जांचकर्ताओं ने उचित कार्य किया है या नहीं।

5) द्वितीय याचना का विकल्प :- इन सब के अलावा, परिणाम घोषणा के उपरांत प्रत्येक परीक्षार्थी को उसकी संतुष्टि के लिए विकल्प दिया जाता है की वह जांच करी हुई उत्तर पुस्तिका की फोटोकॉपी प्राप्त कर सके और फिर पुनः अंक गणना अथवा पुनःमूल्यांकन के लिए याचना कर सके। यह वह कदम है जो की भेदभाव की शंकाओं को दूर करते हुए प्रत्येक परीक्षार्थी को परिणाम के प्रति पूर्ण संतुष्टि दिलाता है।

छात्र वर्ग अक्सर करके बहोत संवेदनशील व्यक्ति गण होते हैं। परीक्षा के परिणामों में छोटी सी गलती अक्सर बेहद दुखद परिणाम देते हैं, जैसे की आत्महत्या । कॉलेज और शिक्षा से विमुख हो जाना एक अक्सर देखा गया असर है जो किसी कल्याणकारी राज्य के लिए चिंता का विषय होता है।

मगर लगता है कि जहाज़रानी प्रशासन में अधिकारी लोग अपने जनकल्याणकारी उत्तरदायित्वों का संज्ञान लेने और निभा सकने में असक्षम लोग हैं। बल्कि वह लोग जनकल्याण निर्णयों को उस पक्ष की और अधिक देखते हैं जिनको की साधारणतः जनकल्याण का विरोधी माना जाता है। उन्होंने परीक्षार्थी मूल्यांकन प्रणाली के भीतर एक ऐसी व्यवस्था रच डाली है (नौकायान कंपनी द्वारा जारी समुंद्रिय कार्यानुभव प्रमाणपत्र) जो की उपर्लिखित निष्पक्षता और द्वेष/वैमनस्य से विमुक्तता के कोई भी गुण नहीं रखती है। यानि, जहाजरानी विभाग में यह आसानी से संभव हो गया है कि किसी भी परीक्षार्थी का कैरियर विनाशक मूल्यांकन कर दिया जाये कुछ हलके-फुल्के शिक्षण कारणों को बिनाह बता करके; और जिसमे किसी विशेष चिन्हित किये हुए परीक्षार्थी से भेदभाव, द्वेष, वैमनस्य को बिना रोकटोक सक्रीय होने का स्थान हो, जहाँ किसी भी प्रकार की मूल्यांकन कि द्वितीय याचना के लिए कोई व्यवस्था न हो।
     दुखद यह है की जहाजरानी विभाग के अधिकारी अपनी इस त्रुटि को बारबार हो रही शिकायतों के बावजूद इस प्रकार की कुव्यवस्था का जहाज़श्रमिकों के शोषण से सम्बन्ध को पहचान भी नहीं कर सक रहे हैं।
   
       संयोग से एक अन्य विधि जो की पहले से ही प्रयोग में है वह परीक्षार्थी गुणवत्ता व्यवस्था के उस प्रश्न का उत्तर देती है, जिस प्रश्न को प्रेरक बता करके उपर्युक्त समुंद्रिय कार्यानुभव प्रमाणपत्र जहाजरानी प्रशासन अधिकारीयों ने अनिवार्य बनाया है। इसलिए कभी कभी अचरज होता है कि विकल्प होने के बावज़ूद एक ऐसी त्रुटिपूर्ण व्यवस्था को किस अन्य वजह से खारिज नहीं किया जा रहा है। ऐतिहासिक दृष्टि से इस त्रुटिपूर्ण व्यवस्था का आरम्भ ऐसे नहीं हुआ था जैसे हम इसे आज देख रहे हैं। आरम्भ में इस व्यवस्था का उद्देश्य सीमित होते हुए मात्र यह था कि परीक्षार्थियों द्वारा जहाज़रानी महानिदेशालय में दावा में प्रस्तुत  समुंद्रिय कार्यानुभव प्रमाणपत्र जो की जहाज कैप्टन द्वारा जारी होता है, उसकी वास्तविकता पुनःप्रमाण की कंपनी से बंधी कड़ी निर्मित कर सकें। उस समय कंपनी द्वारा जारी प्रमाणपत्र का उद्देश्य मात्र इतना ही था। परीक्षार्थी गुणवत्ता प्रबंधन नाम पर इसका योगदान स्वीकृत था ही नहीं। मेरे विचारों से यह दूसरा गुणवत्ता वाला उद्देश्य समयकाल में किसी नासमझी वश चलन में निकल पड़ा है। अधिकारी लोग अधिकांशत निजी शिपिंग कंपनी के पूर्व नुमाइंदे रहे हैं जहाँ "sacking" की श्रमिक अनुशासन संस्कृति के चलते इन्हें जनकल्याणकारी निर्णयों और नियमों से परिचय कम रहा है। अब क्योंकि महानिदेशालय में अधिकारीयों का आभाव रहा है, इसलिए ऐसे व्यक्तियों को उनके वैधानिक ज्ञान की समस्त जांच किये बिना ही नियुक्त कर लिया गया था। बाद में जब शिपिंग कंपनियों ने कुछ परीक्षार्थियों को यह कार्यानुभव प्रमाणपत्र कुछ वैमनस्य कारणों से जारी नहीं किया तब शिकायत होने पर इन अधिकारीयों को यह संज्ञान ही समझ में नहीं आया की इसका श्रमिक शोषण कानूनों से क्या उलंघन हो रहा है। अतः उन्होंने शिकायत पर कार्यवाही करने के बजाये उस उलंघन को पारित कर दिया और फिर बाद में उसे परीक्षार्थी गुणवत्ता प्रबंधन से जोड़ कर के न्यायोचित करना आरम्भ कर दिया।
     
     वह दूसरी मूल व्यवस्था जो की परीक्षार्थी गुणवत्ता के उस प्रश्न का उत्तर उचित और वैधानिक विधि से करती है, वह कुछ इस प्रकार है :-- शिपिंग कंपनियों द्वारा अक्सर कर जहाज़ कर्मी अधिकारीयों की गुणवत्ता पर शिकायतें महानिदेशालय में प्राप्त होती रही है। गुणवत्ता के इस प्रश्न के समाधान में महानिदेशालय अधिकारीयों ने एक व्यवस्था डाली जिसमे वह परिक्षार्थी के मौखिक परिक्षण में इन शिपिंग कंपनियो के नुमाइंदों को आमंत्रित करना आरम्भ किया। मौखिक परिक्षण सम्पूर्ण व्यवस्था में एक बाद का कदम है , जिसमे किसी भेदभाव/पक्षपात की आशंका तो है मगर बहोत कम और आम स्वीकृति की मात्रा में। ऐसा इसलिए क्योंकि मौखिक परीक्षा में परीक्षार्थी और महानिदेशालय दोनों की ओर से तमाम सयोंग सम्भावनाओं पर नियंत्रण कम है। इसलिए परीक्षार्थियों में मौखिक परीक्षा में अनुत्तीर्ण होने पर भी भेदभाव या पक्षपात की आशंकाओं का आरोप करीबन शून्य है। इस परीक्षा में अनुतीर्ण होने पर परीक्षार्थी के कैरियर पर अधिक प्रभाव नहीं पढता है। और यदि किसी परीक्षार्थी के भावुक दृष्टि से उसके साथ एक बार कुछ भेदभाव या पक्षपात हो भी जाए तो स्थिति पर प्रत्येक पक्ष का नियंत्रण कम होते यह उम्मीद बंधी रहती है की अगली बार किस्मत शायद उसका साथ दे देगी।
    तो इस प्रकार परीक्षार्थी गुणवत्ता का वह प्रश्न उत्तरित हो जाता है, जिसको अधिकारी गण प्रेरक बता करके कंपनी से जारी समुंद्रिय कार्यानुभव प्रमाणपत्र को अनिवार्य करते रहे हैं।

        पुराने युग में किसी भी व्यवसायिक सेवा क्षेत्र में नए लोग वही आते थे जो शायद अपने पारिवारिक जुड़ाव के चलते उस व्यवसाय के गुण और कौशल सीख लेते थे। अन्यथा वह किसी पुराने सगे संबंधी अथवा दुनियादारी के पितामह के चलते यह कौशल सीख पाते थे। तत्कालीन व्यवस्था के दोषों के समझने के बाद ही इंसान ने क्रमबद्ध अध्ययन पद्धति का समाज में शिलान्यास किया। वर्तमान की परीक्षा व्यवस्था उसी क्रमबद्ध अध्ययन पद्धति का अंश है। क्रमबद्ध अध्ययन पद्धति में भेदभाव, पक्षपात, वैमनस्य इत्यादि से निपटे के लिए कड़े कदम रखे गए जिससे की व्यवसायिक कौशल पारिवारिक धरोहर न बनी रह जाये। इसमें परीक्षार्थी का मूल्यांकन ताथयिक आधार पर होता है , जैसे की "क्या उसने उस कार्य को सीखने हेतु उस कार्य पर अपने हाथ आज़मा लिये है : हाँ अथवा ना ? ",  बजाये किसी व्यक्तिनिष्ठ आधार के , जैसे की " क्या उसने आपकी संतुष्टि के मुताबिक कार्य सीख लिया है  -- आप संतुष्ट है या नहीं ?"।  क्रमबद्ध अध्ययन पद्धति में परीक्षार्थियों का व्यक्तिनिष्ठ मूल्यांकन लिखित परीक्षा विधि से किया जाता हैं, जिस विधि के चारित्रिक गुण लेख के आरम्भ में दर्ज़ है जो की भेदभाव, पक्षपात, वैमनस्य का निवारण प्रदान करते हैं।
        जहाज़रानी प्रशासन अधिकारीयों को न जाने क्यों इन सब बिन्दूओं पर सामान्य ज्ञान क्यों  कम पड़ गया है जो कि उन्होंने श्रमिक शोषण वाली एक विधि को तमाम शिकायतों के बाद भी ज़ारी कर रखा है।    

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