'स्यूडो' विचार संकृति वाला एक देश
"सेक्युलेरिज्म" (यानि राज्य विधान और धार्मिक विधानों को अलग-अलग रखने की परंपरा, जिसका मूल स्रोत है सामाजिक संवाद में ईश्वर और आस्थावानों का सीधा सम्बन्ध, बिना किसी ब्राह्मण , पंडित, पादरी या मुल्लाह के मध्यस्तथा के) -- एकमात्र ऐसा विचार नहीं है जिसे हम भारतियों ने गलत रूप में समझ रखा है। भारत में कई सारे विचारों का 'स्यूडो'('pseudo-') निर्मित हो चुका है। आप प्रजातंत्र के विचार को ही देखिये, या की समाजवाद (समाजवादी होने का दावा करने वाली राजनैतिक पार्टी के खुद के आचरण को समाजवाद की मूल समझ से परखिए), स्वतंत्र-अभिव्यक्ति , आपसी भाईचारा, विश्व बंधुत्व या की राष्ट्रीयता भाव,- इन सभी की जो समझ हम भारतियों में उपलब्ध है वह असल में "स्यूडो" ही हैं।
स्यूडो-सेक्युलेरिज्म, स्यूडो-स्वतंत्र अभिव्यक्ति, स्यूडो-संसद, स्यूडो-प्रजातंत्र, स्यूडो-सोशलिस्म, स्यूडो-नेशनल इंटीग्रिटी, स्यूडो-राष्ट्र, स्यूडो-यूनिवर्सल ब्रदर-हुड, इत्यादि
और तो और, अपने धर्म, अपने मजहब, की जो समझ हम में है वह भी "स्यूडो" ही है।
स्यूडो-रिलिजन।
"स्यूडो" से मेरा अर्थ है आभासीय, भ्रमित कर देने वाला, एक नकली विचार जो कुछ-कुछ असली जैसा लगता है मगर नक़ली होंने की वजह से हमारी समस्या सुलझाने की जगह और अधिक उलझा देता है।
क्या कारण है की भारत में तमाम विचारों का "स्यूडो" तैयार हो जाता है? क्या कभी आपने इसपर कुछ सोचा है?
इतनी बहुयात मात्रा में स्यूडो-विचारों के निर्माण हो जाने की एक संभावित वजह हमारा तकनीकी और शोधपूर्ण ज्ञान के प्रति एक छिछला रवैया है।
यह इसलिए की हम लोग कभी भी किसी के कथन की सत्यता नहीं परखते है बल्की बिना परिक्षण के ही आगे त्वरित कर देते हैं। सत्यता की परख के स्थान पर हम वाचक के सामाजिक प्रतिष्ठा का उपयोग कर लेते हैं। अगर कहीं कोई त्रुटिपूर्ण विचार आरम्भ होता है तब वह वैसा ही हमारी रीत बन जाता है। इस बात की संभावना कम है कि उसमे कोई सुधार हो।
'स्यूडो' निर्मित होने का एक और संलग्न कारण है की हम अपनी मातृ भाषा से अधिक सामाजिक औहदा एक आयात करी गई विदेशी भाषा , अंग्रेजी, को देते हैं। हम अंग्रेजी बोल सकने वाले व्यक्तियों को अधिक सामाजिक प्रतिष्ठा देते हैं। अत: अंग्रेजी भाषी लोग हमारे समाज में स्वतः एक ("स्यूडो")- बुद्धिजीवी (pseudo intellectual) मान लिए जाते हैं। हम अंग्रेजी में कहे गए अपशब्दों पर भी बुरा नहीं मानते हैं, मगर अपनी मातृ भाषा में कहे सत्य वचनों पर शंका जताते हैं।
इसमें अंग्रेजी भाषा का कोई अपराध नहीं है , बल्की इसका कारण है- हमारी अपनी मानसिकता में स्वःदोष व्यवहार विकृति (Inferiority Complex) ।
भाषा सम्बंधित एक दूसरी घटना जो "स्यूडो" के निर्मिती का कारक है कि-- हम भारतीय लोग भाषा-अनुवाद की मिथ्या में उलझ कर अपने सामने घट रही एक व्यवहारिक घटना पर आँख मूदे हुए हैं। वह व्यवहारिक घटना है की शब्दों का भाषा-अनुवाद की अंतरमय सीमा।
शब्दों से व्यक्त विचार में शब्द से अधिक महत्वपूर्ण होते हैं विचार के मूल भाव। विचार के मूल-भाव का स्रोत अक्सर कर के किसी ऐतिहासिक, सामाजिक या राजनैतिक परिपेक्ष्य में छिपे होते हैं। मगर भाषा के शब्दकोष कभी भी इतनी सारी जानकारी संग्रहीत नहीं करते हैं, बलकि संक्षेप में ही अनुवाद भाषा का कोई 'निकट' वाला विचार शब्द लिख देते हैं। शब्दकोष में से पाठक उस 'निकट' अनुवाद को गृहीत करते है और तब मूल विचार में विकृति आना आरम्भ होता है।
तो इस तरह से 'स्यूडो' का निर्माण आरम्भ होता है।
उधाहरण के लिए "सेक्युलेरिज्म" को ही ले लिजिये जिसे की हम भारतीय 'धर्मनिरपेक्ष' कह कर बुलाते हैं। सेच्युलेरिज्म विचार की वास्तविक सामाजिक पृष्ठभूमि भारत की नहीं है। तो किसी ने सेक्यूलेरिज्म का हिंदी अनुवाद धर्मनिरपेक्ष रख दिया। तमाम हिन्दू धर्म संघठनों की आपति है की देश धर्म से विमुक्त कैसे हों सकता हैं। धर्म से अभिप्राय होता है "न्याय"। और क्या कोई देश अन्यायी होना चाहेगा?
उधर सम्प्रदाय-निरपेक्ष या पंथ-निरपेक्ष जैसे कई सारें अनुवाद सुझाए गए। मगर सभी में कुछ न कुछ कमी है। 'सम्प्रदाय निरपेक्ष' देश अंततः किस अध्यात्म के सहारे आगे बड़ता? कुछ लोग 'सम्प्रदाय निरपेक्ष' वाले अनुवाद से अर्थ में नास्तिक देश मानते, जो की उनकी भावनाओं के लिए बहोत गहरा सदमा होती।
बरहाल, हम भारत वासियों ने इसी टूटी-फूटी समझ से काम चलाना सीख लिया है। हमारे यहाँ असली से ज्यादा नकली चलता है और पसंद भी किया जाता है। क्योंकि नकली सस्ता होता है और हमारी वर्तमान सुविधाओं से ताल में बैठता हैं। हमे "स्यूडो" पसंद है क्योंकि अब हमें इसकी लत लग चुकी है।
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