तर्क और सिद्धांत के मध्य के सम्बन्ध पर एक विचार
सिद्धांत और तर्क में एक सम्बन्ध होता है। तर्क अपने आप में दिशाहीन हैं। कुछ होने और कुछ न होने - दोनों पर ही तर्क दिए जा सकते हैं।
मगर जब तर्कों का संयोग आपस में मिलता है और एक संतुष्ट कहानी कहता है तब एक सिद्धांत की रचना होती है।
आरंभिक अवस्था में, यानि उस अवस्था में जब की सिद्धांत की तमान तर्कों पर परीक्षा अभी नहीं हुयी होती है, तब उसे परिकल्पना कहते हैं। अंग्रेजी भाषा में परिकल्पना को एक हाइपोथिसिस (Hypothesis) कहा जाता है। इस अवस्था में कोई भी परिकल्पना किसी मन-गढ़ंत कहानी के समान ही होता है।
किसी परिकल्पना को एक स्थापित सिद्धांत का रूप लेने के लिए एक लम्बी परीक्षा प्रक्रिया से गुज़रना होता है। यह आवश्यक नहीं हैं की सिद्धांत को सभी परीक्षा प्रक्रिया में उतीर्ण होना हो। एक निश्चित , अंतरात्मा को तृप्त कर देने के हद में उत्तीर्ण होने पर वह परिकल्पना को एक सिद्धांत (theory, principle) मान लिया जाता है। यदि कोई सिद्धांत समूचे तर्कों पर खरा हो, यानि सभी परीक्षा में उत्तीर्ण हो जाए तब वह क़ानून /अथवा नियम मान लिया जाता है। नियम हर जगह , हर अवस्था में लागू होगा ही। उधाहरण के लिए गुरुत्वाकर्षण से सम्बंधित न्यूटन के नियम।
नियम अधिकांशतः शुद्ध विज्ञान के विषयों में मिलते हैं। जैसे- गणित, भौतकी, रसायन शास्त्र।
इसके बाहर अशुद्ध विज्ञान में ज्यादातर सिद्धांत मिलते हैं। अशुद्ध विज्ञान से अभिप्राय है उन विषयों का जिसमे एक सटीक , बिदु की हद तक की गणना संभव नहीं होती। उधाहरण के लिए- जीव विज्ञान, अर्थशास्त्र , समाजशास्त्र , भूगोल, भू- विज्ञान, इत्यादि। इन विषय क्षेत्रों में इंसान की जानकारी एक हद तक ही ब्यौरा तैयार कर सकती है। प्राकृतिक कारणों से इंसान की हद्दे तय होती हैं। सर पर कितने बाल हैं ,अन्तरिक्ष में कितने तारे हैं - एक सटीक गणना इंसानी हद्द में नहीं होता है। इसलिए यह एक अशुद्ध विज्ञान (यानि विज्ञान और कला के मिश्रण) द्वारा सुलझाए जाते हैं।
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