एक उत्तर- “सारी दुनिया बेईमान हैं, और सिर्फ तुम ही एक ईमानदार”
भगवान् ने इंसान को सम्पूर्ण दोषमुक्त कभी भी नहीं बनाया | बल्कि इस पूरी धरा पर जीवन कहीं भी सम्पूर्ण दोषमुक्त नहीं बना है| किसी को कुछ दिया है तो कुछ और नहीं भी दिया है| हाँ जीवन जी सकने का इन्साफ ज़रूर किया है|यदि शेर को नाखून दिए हैं, तब हिरण को मजबूत, उछल-दार पैर| फिर यदि दोषमुक्त कोई है ही नहीं, तब क्या इस धरा पर दोषियों का साम्राज्य नहीं कायम हो जाना चाहिए ? हम क्यों किसी बेवकूफों की भांति बार-बार अरविन्द केजरीवाल से सवाल करते हैं की "तुम सारी दुनिया को भ्रष्ट बताते हो और खुद को इमानदार"|
अरविन्द केजरीवाल ने भ्रस्टाचार को एक सांकृतिक समस्या जरूर दर्शाया हैं, जिसको दूसरे शब्दों में ऐसा प्रस्तुत करने की भी एक संभावना है की "सारी दुनिया भ्रष्ट है", मगर खुद को इमानदार नहीं कहा है| खुद के लिए हमेशा यही कहाँ है की "भाई जांच करवा लो, कहीं कुछ मिले तो सजा दे देना|" 'भ्रष्टाचार हमारी एक सांकृतिक समस्या है',- इस विचार का इस दुनिया के तमाम जीवन में परिपूर्णता से क्या सम्बन्ध है, इसको समझने की जरूरत है| यदि परिपूर्णता का अभाव इस धरा के सभी प्राणी जगत का सत्य है, तब मनुष्य का अपने भगवान् से क्या सम्बन्ध हैं? खुद ही तर्क कर के देखिये, यदि "सभी में कुछ न कुछ कमी हैं, कुछ गलत किया हुआ है" - हम इसी विचार को सत्य मान लें तब फिर धरती पर शैतान का साम्राज्य होना चाहिए, भगवान् का नहीं| तब भगवान् क्या हैं, और उसने क्यों जीवन-जगत को परिपूर्ण नहीं बनाया?
प्राचीन विचारकों ने इसका उत्तर कुछ इस तरह दिया हैं: कहते हैं मनुष्य भगवान् का ही एक अंश हैं, और उसके अन्दर की कमी उसको अपने भगवान् को प्राप्त करने की लालसा देने के लिए ही बनायीं गयी है| शायद मनुष्य कभी भी परिपूर्ण होने की लालसा न पूरी कर सके, मगर उसकी यह यात्रा ही उसके जीवन की दिशा और उद्देश्य तय करती है|
परिपूर्णता का अभाव मनुष्यों को दो विस्तृत विचारधाराओं में बांटता है : एक वह जो परिपूर्णता के अभाव को एक सत्य मान लेते हैं और उसको न प्राप्त करने का भी मन बना लेते हैं की "भाई जब परिपूर्णता मनुष्य को कभी मिलनी ही नहीं है तब उसके पीछे भाग कर क्या फायदा"; और एक वह जो परिपूर्णता को कभी भी न प्राप्त कर सकने के सत्य को जानते हुए भी उसको पाने के लिए निकल पड़ते हैं|
पहली वाली विचारधारा के मनुष्यों का स्वभाव अपने आस-पास की व्यवस्था में सुधार नहीं करने वाला होता हैं | क्योंकि वह बार-बार अपने ही विश्वास से उपजे तर्कों में फस जाते हैं की जब कुछ-एक थोड़े सुधार से भी परिपूर्णता नहीं ही मिलने वाली हैं, तब फिर अभी भी क्या खराब हैं, क्या कमी हैं| ऐसे विचार के व्यक्ति विकास और गुणवत्ता जैसे शब्दों को एक छलावा ही मानते हैं, क्योंकि किसी भी सुधार से, गुणवत्ता कार्यक्रम से , परिपूर्णता तो मिलने वाली शायद नहीं ही है , जो की पहले से ही उनका विश्वास है| ऐसी विचारधारा के व्यक्ति तमाम नियम-कानूनों को भी छलावा ही मानते हैं, क्योंकि उनके विचारों में "इससे कुछ नहीं होने वाला" होता है| वह नियम-कानूनों के प्रति एक आस्था-विहीन स्वभाव रहते हुए उसको छलावा-पूर्ण अनुपालन से निभाने को ही देखते हैं| उनके विचारों में दुनिया वाले (यानि उनके प्रतिद्वंदी विचारधारा के लोग) इन नियम-कानूनों और गुणवत्ता की बातों से एक पाखण्ड, एक छलावा कर रहे होते हैं|
इधर दुनियावालों की समझ से खुद ऐसे लोग ही पाखंडी होते हैं जो नियम-कानूनों और गुणवत्ता के विचारों से हांमी तो देते हैं, मगर अपने मन से और गहरे कर्मों से निभाते नहीं|
तर्क-भ्रान्ति विज्ञानं में ऊपरी दोनों विचारों को 'परिपूर्ण-जगत-भ्रान्ति'(Perfect-world fallacy) के नाम से जाना जाता है| इसे 'सम्पूर्ण-न्यायपूर्ण-विश्व-भ्रान्ति'(Just-world fallacy) भी बुलाते हैं|
प्राचीन चिंतकों, राजनैतिक सिद्धातों के विचारकों ने मनुष्य जगत में परिपूर्णत के अभाव से जन्मी इस तर्क-भ्रान्ति के निवारण में ये ही सिद्धांत दिया है की परिपूर्णता मनुष्यों में नहीं हैं, और शायद वह कभी प्राप्त भी नहीं करी जा सके, मगर मनुष्य समाज को सामूहिक उद्देश्य इसी परिपूर्णता को प्राप्त करने का ही हैं और यही वह उद्देश्य है जो एक मनुष्य को दूसरे से बांधता हैं| परिपूर्णता की असीम यात्रा मनुष्य को एक समाज के रूप में हमेशा के लिए बांधे रखने का उपयोग सिद्ध करगी| राजनैतिक विज्ञानं में भी किसी भी परिपूर्ण-से दिखने वाले कानून को इस तर्क के द्वारा बंधित करना की "सिर्फ तुम ही इमानदार हो, बाकी सारी दुनिया भ्रष्ट", कोई समझदार विचार नहीं हैं| बल्कि ऐसी विचारधारा हमारे अन्दर शैतान को बढ़ावा देने का कार्य ही करती हैं| इस तर्क के आधार पर तो हम सारे ही दोषनिवृति के विचारों को, प्रशासनिक सुधारक नियमों को परास्त कर देंगे और अपने आस-पास एक बेहद गन्दी, कुकर्मी व्यवस्था तैयार कर लेंगे|
हम सभी को यह सोचने की आवश्यकता है कि कहीं हमने अतीत में कुछ ऐसा ही तो नहीं किया जिसके नतीजों में आज हम इस गन्दी व्यवस्था के शिकार होने की शिकायत खुद ही एक-दूसरे से कर रहे हैं|
किसी परिपूर्णता की ओर बढते हुए नियम को यह कह कर परास्त करना की "अभी क्या गारन्टी की सब सही हो जायेगा", यह भी उसी परिपूर्ण-जगत-भ्रान्ति का ही दूसरा स्वरुप हैं, जो हमारी दुनिया में पाखंड और छलवा को जन्म देता हैं, हमे अपने भगवान् से दूर करता हैं|
लगातार गुणवत्ता को प्राप्त करने की हमारी यात्रा ही हमारे अंदर इश्वर की भक्ति का सिद्ध प्रमाण है| जैसे की कहते हैं, स्वछता इश्वर-मई होती हैं, शायद इश्वर की साधना का सही सम्बन्ध पवित्रता से हैं, जिसमे की शुद्धता, स्वच्छता, निर्मलता एक छोटे-छोटे अंश हैं| और लगातार गुणवत्ता की ओर प्रयासरत्त रहना इसी इश्वरमई पवित्रता का एक दीर्घ स्वरुप |
अरविन्द केजरीवाल ने भ्रस्टाचार को एक सांकृतिक समस्या जरूर दर्शाया हैं, जिसको दूसरे शब्दों में ऐसा प्रस्तुत करने की भी एक संभावना है की "सारी दुनिया भ्रष्ट है", मगर खुद को इमानदार नहीं कहा है| खुद के लिए हमेशा यही कहाँ है की "भाई जांच करवा लो, कहीं कुछ मिले तो सजा दे देना|" 'भ्रष्टाचार हमारी एक सांकृतिक समस्या है',- इस विचार का इस दुनिया के तमाम जीवन में परिपूर्णता से क्या सम्बन्ध है, इसको समझने की जरूरत है| यदि परिपूर्णता का अभाव इस धरा के सभी प्राणी जगत का सत्य है, तब मनुष्य का अपने भगवान् से क्या सम्बन्ध हैं? खुद ही तर्क कर के देखिये, यदि "सभी में कुछ न कुछ कमी हैं, कुछ गलत किया हुआ है" - हम इसी विचार को सत्य मान लें तब फिर धरती पर शैतान का साम्राज्य होना चाहिए, भगवान् का नहीं| तब भगवान् क्या हैं, और उसने क्यों जीवन-जगत को परिपूर्ण नहीं बनाया?
प्राचीन विचारकों ने इसका उत्तर कुछ इस तरह दिया हैं: कहते हैं मनुष्य भगवान् का ही एक अंश हैं, और उसके अन्दर की कमी उसको अपने भगवान् को प्राप्त करने की लालसा देने के लिए ही बनायीं गयी है| शायद मनुष्य कभी भी परिपूर्ण होने की लालसा न पूरी कर सके, मगर उसकी यह यात्रा ही उसके जीवन की दिशा और उद्देश्य तय करती है|
परिपूर्णता का अभाव मनुष्यों को दो विस्तृत विचारधाराओं में बांटता है : एक वह जो परिपूर्णता के अभाव को एक सत्य मान लेते हैं और उसको न प्राप्त करने का भी मन बना लेते हैं की "भाई जब परिपूर्णता मनुष्य को कभी मिलनी ही नहीं है तब उसके पीछे भाग कर क्या फायदा"; और एक वह जो परिपूर्णता को कभी भी न प्राप्त कर सकने के सत्य को जानते हुए भी उसको पाने के लिए निकल पड़ते हैं|
पहली वाली विचारधारा के मनुष्यों का स्वभाव अपने आस-पास की व्यवस्था में सुधार नहीं करने वाला होता हैं | क्योंकि वह बार-बार अपने ही विश्वास से उपजे तर्कों में फस जाते हैं की जब कुछ-एक थोड़े सुधार से भी परिपूर्णता नहीं ही मिलने वाली हैं, तब फिर अभी भी क्या खराब हैं, क्या कमी हैं| ऐसे विचार के व्यक्ति विकास और गुणवत्ता जैसे शब्दों को एक छलावा ही मानते हैं, क्योंकि किसी भी सुधार से, गुणवत्ता कार्यक्रम से , परिपूर्णता तो मिलने वाली शायद नहीं ही है , जो की पहले से ही उनका विश्वास है| ऐसी विचारधारा के व्यक्ति तमाम नियम-कानूनों को भी छलावा ही मानते हैं, क्योंकि उनके विचारों में "इससे कुछ नहीं होने वाला" होता है| वह नियम-कानूनों के प्रति एक आस्था-विहीन स्वभाव रहते हुए उसको छलावा-पूर्ण अनुपालन से निभाने को ही देखते हैं| उनके विचारों में दुनिया वाले (यानि उनके प्रतिद्वंदी विचारधारा के लोग) इन नियम-कानूनों और गुणवत्ता की बातों से एक पाखण्ड, एक छलावा कर रहे होते हैं|
इधर दुनियावालों की समझ से खुद ऐसे लोग ही पाखंडी होते हैं जो नियम-कानूनों और गुणवत्ता के विचारों से हांमी तो देते हैं, मगर अपने मन से और गहरे कर्मों से निभाते नहीं|
तर्क-भ्रान्ति विज्ञानं में ऊपरी दोनों विचारों को 'परिपूर्ण-जगत-भ्रान्ति'(Perfect-world fallacy) के नाम से जाना जाता है| इसे 'सम्पूर्ण-न्यायपूर्ण-विश्व-भ्रान्ति'(Just-world fallacy) भी बुलाते हैं|
प्राचीन चिंतकों, राजनैतिक सिद्धातों के विचारकों ने मनुष्य जगत में परिपूर्णत के अभाव से जन्मी इस तर्क-भ्रान्ति के निवारण में ये ही सिद्धांत दिया है की परिपूर्णता मनुष्यों में नहीं हैं, और शायद वह कभी प्राप्त भी नहीं करी जा सके, मगर मनुष्य समाज को सामूहिक उद्देश्य इसी परिपूर्णता को प्राप्त करने का ही हैं और यही वह उद्देश्य है जो एक मनुष्य को दूसरे से बांधता हैं| परिपूर्णता की असीम यात्रा मनुष्य को एक समाज के रूप में हमेशा के लिए बांधे रखने का उपयोग सिद्ध करगी| राजनैतिक विज्ञानं में भी किसी भी परिपूर्ण-से दिखने वाले कानून को इस तर्क के द्वारा बंधित करना की "सिर्फ तुम ही इमानदार हो, बाकी सारी दुनिया भ्रष्ट", कोई समझदार विचार नहीं हैं| बल्कि ऐसी विचारधारा हमारे अन्दर शैतान को बढ़ावा देने का कार्य ही करती हैं| इस तर्क के आधार पर तो हम सारे ही दोषनिवृति के विचारों को, प्रशासनिक सुधारक नियमों को परास्त कर देंगे और अपने आस-पास एक बेहद गन्दी, कुकर्मी व्यवस्था तैयार कर लेंगे|
हम सभी को यह सोचने की आवश्यकता है कि कहीं हमने अतीत में कुछ ऐसा ही तो नहीं किया जिसके नतीजों में आज हम इस गन्दी व्यवस्था के शिकार होने की शिकायत खुद ही एक-दूसरे से कर रहे हैं|
किसी परिपूर्णता की ओर बढते हुए नियम को यह कह कर परास्त करना की "अभी क्या गारन्टी की सब सही हो जायेगा", यह भी उसी परिपूर्ण-जगत-भ्रान्ति का ही दूसरा स्वरुप हैं, जो हमारी दुनिया में पाखंड और छलवा को जन्म देता हैं, हमे अपने भगवान् से दूर करता हैं|
लगातार गुणवत्ता को प्राप्त करने की हमारी यात्रा ही हमारे अंदर इश्वर की भक्ति का सिद्ध प्रमाण है| जैसे की कहते हैं, स्वछता इश्वर-मई होती हैं, शायद इश्वर की साधना का सही सम्बन्ध पवित्रता से हैं, जिसमे की शुद्धता, स्वच्छता, निर्मलता एक छोटे-छोटे अंश हैं| और लगातार गुणवत्ता की ओर प्रयासरत्त रहना इसी इश्वरमई पवित्रता का एक दीर्घ स्वरुप |
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