आस्तिक इंसानों का मुर्ख राष्ट्र
आस्तिक इंसानों में समझ की यह समस्या अक्सर होती है की वह 'पॉवर' को एक-सत्ता(absoluteness) की दृष्टि में देखना और समझना पसंद करते हैं । वह " पॉवर के संतुलन " के व्यक्तव्य को समझ सकने में थोडा मानसिक तौर से मंद होते हैं ।
आस्तिक इंसानों का यह नजरिया और मंद-मस्तिष्क उनकी आस्तिक विश्वासों की ही उपज होती है । यह लोग अधिकार (राइट्स) और शक्ति (पॉवर) के बीच में अंतर नहीं कर सकते हैं। वह दुनिया को किसी अदभुत ताकत के द्वारा रचित एक करिश्मा के रूप में देखते हैं,जिसे वह भगवान् अथवा इश्वर बुलाते हैं । भगवान् मनुष्य की समझ के परे होते हैं और इस लिए भगवान की शक्तियों से सम्बंधित आगे कोई भी तलाश, जिज्ञासा , प्रशन को वह एक व्यर्थ कार्य, व्यर्थ मेहनत समझते हैं । वह स्वयं ही उस शक्ति के आगे विनम्र और नतमस्तक , यानि दूसरे शब्दों में - विवश, हो जाते हैं । अपने इस त्रुटिपूर्ण नज़रिए की छाप वह अपने राजनैतिक ज्ञान में भी झलकाते हैं । जन-प्रशासन और राजनैतिक विज्ञानं से उपजे कुछ सिद्धांतों (theories ) को त्रुटीपूर्ण तरीके से प्रथक- मनोभाव (isolation ) से देख बैठते हैं , जबकि वह 'पॉवर के संतुलन' (balance of power ) की समझ में किसी परस्परता में रचे गए होते है ।
शायद यही वह त्रुटी वाली मानसिकता है जिसमे हमारे देश में दो बेहद मुर्खता से भरी बहस हुयी है । एक बहस की "राष्ट्रपति का पद संविधान के अनुसार एक उपाधि मात्र है (title head of state ), जिसको कोई ख़ास अधिकार नहीं दिए गए हैं "। और दूसरी बहस की "संसद और आम आदमी में कौन सर्वोच्च है , कौन प्रधान है ? (who is supreme - Parliament or Common man ?)"
इतिहास के पन्नों में यदि झाँक कर हम संसद के उद्गम , और राष्ट्रपति के उद्गम के कारणों को समझे तब पता चलेगा की प्रजातान्त्रिक व्यवस्था में संसद और राष्ट्रपति एक दूसरे के परस्पर, "पॉवर के सन्तुल"(balance of power ), की समझ से विक्सित किये गए थे , और राष्ट्रपति को इसलिए एक उपाधि-मात्र पद में तब्दील कर दिया गया था क्योंकि उनकी सारी शक्तियों को संसद से दिशा-नियंत्रित करने की मंशा थी । संसद को राष्ट्रपति से अधिक शक्तिवान बनाया गया था क्योंकि वह आम आदमी का प्रतिनिधित्व करता है ।
हमारी सामूहिक राष्ट्रीय 'बुद्धिमता'(=मुर्खता) का आलम यह है की आज हम उन असली और ऐतिहासिक तर्कों को भुला चुके हैं और राष्ट्रपति के पद को संसद व्यवस्था के बेगेर ही एक उपाधि-मात्र पद समझते है । और फिर अपनी इस अशुद्ध समझ में एक और कदम आगे चल कर यह बहस भी चालू कर ली है की 'संसद बनाम आम-आदमी' में कौन सर्वोच्च है । जन-प्रशासन नीतियों में कहीं भी कोई भी सर्वोच्च शक्तिमान नहीं बनाया गया होता है । सभी शक्तियों को कहीं न कहीं किसी दूसरी शक्ति के विरूद्ध रख कर "शक्ति का संतुलन " अनिवार्यता से प्राप्त करा गया होता है । इस सिद्धांत के पीछे की समझ यह रखी गयी है की- जैसे अच्छाई और बुराई के बीच लड़ाई में जीत हमेशा अच्छाई की ही हुयी है , वैसे ही जब दो "बराबर" की शक्तियां आपस में टकराएंगी तब दोनों में से जो अच्छाई का प्रतिनिधत्व कर रहा होगा उसकी जीत स्वयं ही होगी । किसी भी शक्ति को एक-सत्ता में नहीं छोड़ा गया है , उसके बराबर में कोई न कोई दूसरी शक्ति ज़रूर खड़ी करी गयी है जिससे उनमे आपस में मुकाबला हो और फिर दुनिया में अच्छाई बची रहे।
अब अगर हमारे देश में आज अच्छाई का दमन होने लगा है तब स्वाभाविक तौर पर हमारे कुछ त्रुटीपूर्ण मानसिकता ने ही हमारी जन-प्रशासन नीतियों की भंगित कर दिया है और कहीं कुछ अनियंत्रित शक्तियां उभरने लग गयी है जिनको संतुलित करने के लिए कोई भी नहीं बचा है ।
तब यह अचरज का विषय है की जब देश के न्यायालयों ने सभी राजनैतिक पार्टियों को "सूचना के अधिकार" के अंतर्गत आने का न्याय दे दिया है , जब अपराधियों को चुनाव लड़ने से वंचित करने का न्याय हो चूका है , तब यह - आज का संसद - एक विधेयक के द्वारा एक अच्छाई , एक तर्क-संगत तरीके से प्राप्त न्याय को पलटने की कोशिश कर रहा है । वह ऐसा करने में लगभग सफल भी हो चूका है , अब जब सिर्फ राष्ट्रपति के हस्ताक्षर एकमात्र बाँधा रह गए हैं । मगर वह भी कोई बाँधा है , जब हमारी सामूहिक राष्ट्रीय 'बुद्धिमता'(=मुर्खता) ने हमे यह पहले ही सिखा दिया है की राष्ट्रपति तो एक उपाधि-मात्र पद होता है ।
'संसद-बनाम-आम आदमी ' की बहस में तो संसद में बैठे कुछ बीमारू राज्यों से चुने हुए जन-प्रतिनिधि , जिनकी मानसिकता भी संभवतः उनके राज्य की आर्थिक स्थिति के समान ही बीमारू है , ने अपनी खास देहाती भाषा और अंदाज़ में यह भाषण भी दिए है की "सरकार हम चलते है , हमे मालूम है की शासन कैसे किया जाता है । यह सड़क का आदमी हमे क्या बताएगा की सरकार चलाने के लिए क्या-क्या करना पड़ता है । "
--ऐसे जैसे अपने बीमारू राज्य को उन्होंने बहोत बखूबी से चलाया था , और उनके अलवा बाकि सब लोग जन प्रशासन की कला-विज्ञान में बेकार हैं ।
आस्तिकों के देश में *अंतःकरण (Conscience )* की आवाज़ के लिए कोई जगह नहीं होती है । आस्तिक अपने विश्वासों में अपने इश्वर को दूंड चुके होते हैं , इसलिए वह अपने विश्वास के सूत्र-चालक (पंडित जी , भविष्य बताने वालों,इत्यादि) के कथनों के *अनुपालन (Compliance )* में ही इश्वर को देखने और समझने लगते हैं । हालाँकि आस्तिकों को उनके सूत्र-चालक यह बताते हैं की ईश्वर ने मनुष्य को एक अन्तःकरण की आवाज़ से सुसजित किया है जिससे की हर मनुष्य स्वयम से सही-और-गलत , न्याय-और-अन्याय में अंतर कर के अपने कर्म करे , अपने इश्वर का साथ वह अपनी अन्तश्चेतना से निभाय , अधिकाँश आस्तिक मनुष्य किसी सूत्र-चालक के कथन को इश्वर का कथन मानते हैं और उसी कथन के अनुपालन में ही अपने इश्वर की भक्ति समझते है ।
अस्तिको की यही दुविधा है की वह शायद इश्वर को कभी भी प्राप्त नहीं कर पाते हैं । हाल ही आई एक सिनेमा, oh my god , में यह विचार प्रस्तुत किया गया है की इश्वर नास्तिक को ही मिलते हैं आस्तिक को नहीं । ऐसा इसलिए क्योंकि नास्तिक इश्वर को नहीं मानते हैं , इसलिए वह हमेशा उसकी तलाश में रहते हैं , जबकि आस्तिक किसी सूत्र-चालक में इश्वर के होने का विश्वास कर लेते हैं और तलाश ही बंद कर बैठते हैं । शायद यह अन्तःकारण की आवाज़ ही इश्वर है जो शायद हर मनुष्य में विद्यमान होता है। बस उसे सुनना और अनसुना करने मात्र का अंतर होता है किसी नास्तिक और आस्तिक में ।
राजनैतिक विचार में अन्तःकरण की आवाज़ को अवैज्ञानिक या अन्यायिक प्रसंग नहीं रह गया है । इतिहास में संसद बनाम राष्ट्रपति का पद इसी अन्तःकरण की आवाज़ के आधार पर ही निर्मित हुआ था । आज भी राष्ट्रपति के पद पर यह उत्तरदायित्व बना हुआ है की वह अन्तःकरण की आवाज़ के अनुसार ही संसद द्वारा पारित किसी विधेयक को हस्ताक्षरित करे अथवा नहीं । विकीपेडिया के लेख (Conscience ) में कोई भी व्यक्ति अन्तःकरण द्वारा प्रेरित दुनिया भर में और कई सारे नियमों के बारे में पढ़ सकता है ।
Nuremberg Trials भी अन्तः करण की आवाज़ को प्रधानता देते हैं की- कहीं भी , कोई भी व्यक्ति कभी यह नहीं कहने का हक़दार होगा की उसे कोई गलत काम अपने बॉस के आदेशों के अनुपालन में हुआ था । बॉस के आदेश के अनुपालन से बड़ा उसके अन्तःकरण को माना जायेगा , और वह गलत काम उसी के कर्म माने जायेंगे , जिसने उन्हें अंजाम दिया होगा ।
हमारे देश में आस्तिकों की राजनीतिक समझ के यह हालत हैं की यह लोग धर्मनिरपेक्षता के नाम पर भी साम्प्रदायिकता को ही मानते हैं और देश की राजनीति की सम्प्रदायिता का बंधक बना लिया है । नास्तिकता को तो यह 'अन्तःकरण की आवाज़' से जुदा कर के देखते हैं । बलकि शायद अन्तः करण की आवाज़ के होने में ही विश्वास नहीं करते ,जबकि कई सारे संविधानिक अनुछेद और संसद-बनाम-राष्ट्रपति का पद भी 'अन्तः करण की आवाज़' के अस्तित्व पर ही निर्मित हुए हैं । सच है , आस्तिकों की दुनिया विखंडित , अव्यवस्थित और अवैज्ञानिक होती है जहाँ सिर्फ मुर्खता ही राज करती है । यहाँ तर्कवान, व्यवस्थित और वैज्ञानिक सोच को हमेशा परास्त होना पड़ता है ।
वर्तमान का भारत वर्ष एक ऐसे ही आस्तिकों की दुनिया और प्राकृतिक तर्कों के परास्त कर देने वाला , कुतर्की त्रासदी बन चुका है ।
आस्तिक इंसानों का यह नजरिया और मंद-मस्तिष्क उनकी आस्तिक विश्वासों की ही उपज होती है । यह लोग अधिकार (राइट्स) और शक्ति (पॉवर) के बीच में अंतर नहीं कर सकते हैं। वह दुनिया को किसी अदभुत ताकत के द्वारा रचित एक करिश्मा के रूप में देखते हैं,जिसे वह भगवान् अथवा इश्वर बुलाते हैं । भगवान् मनुष्य की समझ के परे होते हैं और इस लिए भगवान की शक्तियों से सम्बंधित आगे कोई भी तलाश, जिज्ञासा , प्रशन को वह एक व्यर्थ कार्य, व्यर्थ मेहनत समझते हैं । वह स्वयं ही उस शक्ति के आगे विनम्र और नतमस्तक , यानि दूसरे शब्दों में - विवश, हो जाते हैं । अपने इस त्रुटिपूर्ण नज़रिए की छाप वह अपने राजनैतिक ज्ञान में भी झलकाते हैं । जन-प्रशासन और राजनैतिक विज्ञानं से उपजे कुछ सिद्धांतों (theories ) को त्रुटीपूर्ण तरीके से प्रथक- मनोभाव (isolation ) से देख बैठते हैं , जबकि वह 'पॉवर के संतुलन' (balance of power ) की समझ में किसी परस्परता में रचे गए होते है ।
शायद यही वह त्रुटी वाली मानसिकता है जिसमे हमारे देश में दो बेहद मुर्खता से भरी बहस हुयी है । एक बहस की "राष्ट्रपति का पद संविधान के अनुसार एक उपाधि मात्र है (title head of state ), जिसको कोई ख़ास अधिकार नहीं दिए गए हैं "। और दूसरी बहस की "संसद और आम आदमी में कौन सर्वोच्च है , कौन प्रधान है ? (who is supreme - Parliament or Common man ?)"
इतिहास के पन्नों में यदि झाँक कर हम संसद के उद्गम , और राष्ट्रपति के उद्गम के कारणों को समझे तब पता चलेगा की प्रजातान्त्रिक व्यवस्था में संसद और राष्ट्रपति एक दूसरे के परस्पर, "पॉवर के सन्तुल"(balance of power ), की समझ से विक्सित किये गए थे , और राष्ट्रपति को इसलिए एक उपाधि-मात्र पद में तब्दील कर दिया गया था क्योंकि उनकी सारी शक्तियों को संसद से दिशा-नियंत्रित करने की मंशा थी । संसद को राष्ट्रपति से अधिक शक्तिवान बनाया गया था क्योंकि वह आम आदमी का प्रतिनिधित्व करता है ।
हमारी सामूहिक राष्ट्रीय 'बुद्धिमता'(=मुर्खता) का आलम यह है की आज हम उन असली और ऐतिहासिक तर्कों को भुला चुके हैं और राष्ट्रपति के पद को संसद व्यवस्था के बेगेर ही एक उपाधि-मात्र पद समझते है । और फिर अपनी इस अशुद्ध समझ में एक और कदम आगे चल कर यह बहस भी चालू कर ली है की 'संसद बनाम आम-आदमी' में कौन सर्वोच्च है । जन-प्रशासन नीतियों में कहीं भी कोई भी सर्वोच्च शक्तिमान नहीं बनाया गया होता है । सभी शक्तियों को कहीं न कहीं किसी दूसरी शक्ति के विरूद्ध रख कर "शक्ति का संतुलन " अनिवार्यता से प्राप्त करा गया होता है । इस सिद्धांत के पीछे की समझ यह रखी गयी है की- जैसे अच्छाई और बुराई के बीच लड़ाई में जीत हमेशा अच्छाई की ही हुयी है , वैसे ही जब दो "बराबर" की शक्तियां आपस में टकराएंगी तब दोनों में से जो अच्छाई का प्रतिनिधत्व कर रहा होगा उसकी जीत स्वयं ही होगी । किसी भी शक्ति को एक-सत्ता में नहीं छोड़ा गया है , उसके बराबर में कोई न कोई दूसरी शक्ति ज़रूर खड़ी करी गयी है जिससे उनमे आपस में मुकाबला हो और फिर दुनिया में अच्छाई बची रहे।
अब अगर हमारे देश में आज अच्छाई का दमन होने लगा है तब स्वाभाविक तौर पर हमारे कुछ त्रुटीपूर्ण मानसिकता ने ही हमारी जन-प्रशासन नीतियों की भंगित कर दिया है और कहीं कुछ अनियंत्रित शक्तियां उभरने लग गयी है जिनको संतुलित करने के लिए कोई भी नहीं बचा है ।
तब यह अचरज का विषय है की जब देश के न्यायालयों ने सभी राजनैतिक पार्टियों को "सूचना के अधिकार" के अंतर्गत आने का न्याय दे दिया है , जब अपराधियों को चुनाव लड़ने से वंचित करने का न्याय हो चूका है , तब यह - आज का संसद - एक विधेयक के द्वारा एक अच्छाई , एक तर्क-संगत तरीके से प्राप्त न्याय को पलटने की कोशिश कर रहा है । वह ऐसा करने में लगभग सफल भी हो चूका है , अब जब सिर्फ राष्ट्रपति के हस्ताक्षर एकमात्र बाँधा रह गए हैं । मगर वह भी कोई बाँधा है , जब हमारी सामूहिक राष्ट्रीय 'बुद्धिमता'(=मुर्खता) ने हमे यह पहले ही सिखा दिया है की राष्ट्रपति तो एक उपाधि-मात्र पद होता है ।
'संसद-बनाम-आम आदमी ' की बहस में तो संसद में बैठे कुछ बीमारू राज्यों से चुने हुए जन-प्रतिनिधि , जिनकी मानसिकता भी संभवतः उनके राज्य की आर्थिक स्थिति के समान ही बीमारू है , ने अपनी खास देहाती भाषा और अंदाज़ में यह भाषण भी दिए है की "सरकार हम चलते है , हमे मालूम है की शासन कैसे किया जाता है । यह सड़क का आदमी हमे क्या बताएगा की सरकार चलाने के लिए क्या-क्या करना पड़ता है । "
--ऐसे जैसे अपने बीमारू राज्य को उन्होंने बहोत बखूबी से चलाया था , और उनके अलवा बाकि सब लोग जन प्रशासन की कला-विज्ञान में बेकार हैं ।
आस्तिकों के देश में *अंतःकरण (Conscience )* की आवाज़ के लिए कोई जगह नहीं होती है । आस्तिक अपने विश्वासों में अपने इश्वर को दूंड चुके होते हैं , इसलिए वह अपने विश्वास के सूत्र-चालक (पंडित जी , भविष्य बताने वालों,इत्यादि) के कथनों के *अनुपालन (Compliance )* में ही इश्वर को देखने और समझने लगते हैं । हालाँकि आस्तिकों को उनके सूत्र-चालक यह बताते हैं की ईश्वर ने मनुष्य को एक अन्तःकरण की आवाज़ से सुसजित किया है जिससे की हर मनुष्य स्वयम से सही-और-गलत , न्याय-और-अन्याय में अंतर कर के अपने कर्म करे , अपने इश्वर का साथ वह अपनी अन्तश्चेतना से निभाय , अधिकाँश आस्तिक मनुष्य किसी सूत्र-चालक के कथन को इश्वर का कथन मानते हैं और उसी कथन के अनुपालन में ही अपने इश्वर की भक्ति समझते है ।
अस्तिको की यही दुविधा है की वह शायद इश्वर को कभी भी प्राप्त नहीं कर पाते हैं । हाल ही आई एक सिनेमा, oh my god , में यह विचार प्रस्तुत किया गया है की इश्वर नास्तिक को ही मिलते हैं आस्तिक को नहीं । ऐसा इसलिए क्योंकि नास्तिक इश्वर को नहीं मानते हैं , इसलिए वह हमेशा उसकी तलाश में रहते हैं , जबकि आस्तिक किसी सूत्र-चालक में इश्वर के होने का विश्वास कर लेते हैं और तलाश ही बंद कर बैठते हैं । शायद यह अन्तःकारण की आवाज़ ही इश्वर है जो शायद हर मनुष्य में विद्यमान होता है। बस उसे सुनना और अनसुना करने मात्र का अंतर होता है किसी नास्तिक और आस्तिक में ।
राजनैतिक विचार में अन्तःकरण की आवाज़ को अवैज्ञानिक या अन्यायिक प्रसंग नहीं रह गया है । इतिहास में संसद बनाम राष्ट्रपति का पद इसी अन्तःकरण की आवाज़ के आधार पर ही निर्मित हुआ था । आज भी राष्ट्रपति के पद पर यह उत्तरदायित्व बना हुआ है की वह अन्तःकरण की आवाज़ के अनुसार ही संसद द्वारा पारित किसी विधेयक को हस्ताक्षरित करे अथवा नहीं । विकीपेडिया के लेख (Conscience ) में कोई भी व्यक्ति अन्तःकरण द्वारा प्रेरित दुनिया भर में और कई सारे नियमों के बारे में पढ़ सकता है ।
Nuremberg Trials भी अन्तः करण की आवाज़ को प्रधानता देते हैं की- कहीं भी , कोई भी व्यक्ति कभी यह नहीं कहने का हक़दार होगा की उसे कोई गलत काम अपने बॉस के आदेशों के अनुपालन में हुआ था । बॉस के आदेश के अनुपालन से बड़ा उसके अन्तःकरण को माना जायेगा , और वह गलत काम उसी के कर्म माने जायेंगे , जिसने उन्हें अंजाम दिया होगा ।
हमारे देश में आस्तिकों की राजनीतिक समझ के यह हालत हैं की यह लोग धर्मनिरपेक्षता के नाम पर भी साम्प्रदायिकता को ही मानते हैं और देश की राजनीति की सम्प्रदायिता का बंधक बना लिया है । नास्तिकता को तो यह 'अन्तःकरण की आवाज़' से जुदा कर के देखते हैं । बलकि शायद अन्तः करण की आवाज़ के होने में ही विश्वास नहीं करते ,जबकि कई सारे संविधानिक अनुछेद और संसद-बनाम-राष्ट्रपति का पद भी 'अन्तः करण की आवाज़' के अस्तित्व पर ही निर्मित हुए हैं । सच है , आस्तिकों की दुनिया विखंडित , अव्यवस्थित और अवैज्ञानिक होती है जहाँ सिर्फ मुर्खता ही राज करती है । यहाँ तर्कवान, व्यवस्थित और वैज्ञानिक सोच को हमेशा परास्त होना पड़ता है ।
वर्तमान का भारत वर्ष एक ऐसे ही आस्तिकों की दुनिया और प्राकृतिक तर्कों के परास्त कर देने वाला , कुतर्की त्रासदी बन चुका है ।
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