एक देश को राष्ट्र समझने के भ्रम से ग्रस्त है भाजपा और आरएसएस।

पशु जगत में बहोत सारे जीव अपना एक वर्चस्व क्षेत्र बनाते हैं और उसे सीमाबद्ध करते है अपने खारों के निशान बना कर या मूत्र गंधक छोड़ कर । इस क्षेत्र में खपत का प्रथम अधिकार उनका होता है। वहां की मादाएं और भोजन स्रोतों पर वह एकाधिकार रखते है। अपने क्षेत्र की रक्षा के लिए वह आपस में जीवन नाशक युद्ध प्रतिस्पर्धा भी करते है।
    सवाल यह है कि क्या आप इस व्यवहार को राष्ट्र निर्माण मानेंगे ?
   क्या इस प्रकार का वर्चस्व क्षेत्र, यानी एक देश या फिर "इलाका", एक राष्ट्र माना जा सकता है? यदि नहीं तो फिर एक देश और एक राष्ट्र में क्या अंतर होता है ?
    भाजपा और आरएसएस कुछ pervert लोगों का जमावड़ बन कर उभरा है। हिंसा और सैन्य जीवन शैली को उत्तम समझने वाली मानसिकता सुनने में बहोत शौर्यवान, गौरव शैली भले ही लगे मगर वास्तव में एक देश में से एक राष्ट्र के निर्माण का सबसे बड़ी बाधा यही मानसिकता है।
   राष्ट्र एक मानवीय बौद्धिकता का उत्पाद है। भले ही कोई ऐसा डायलाग सुनने में अधिक प्रभावशाली लगे की "जब कोई सैनिक अस्सी हज़ार फिट की उचाईंयों पर अपनी हड्डियां गला कर जान देकर देश की रक्षा करता है, तब जा कर हमें बौद्धिजीवी बनने की सहूलियत मिलती है", मगर राष्ट्र वाद के सिद्धांतों से सोचें तो सच यही है की एक देश में से एक राष्ट्र को निर्मित करने में बौद्धिकता ही उपयोग आती है।
   राष्ट्रवाद के सिद्धांतों में एक देश में से एक राष्ट्र कुछ यूँ बनते हैं :-जब मनुष्य आपसी विवादों को पार लगा कर शान्ति से सह अस्तित्व के लिए तैयार हो जाता है, जब किसी एक देश में जनता के बीच आपसी मतभेद के आमतौर पर पाये गए कारण - भाषा, संस्कृति, आस्थाएं, -समाप्त हो जाती है, और वह शांति से , सहअस्तित्व करते हुए आपसी परमार्थ के लिए कार्य करने लगते हैं, समृद्धि लाते हैं तब वह देश एक राष्ट्र बन जाता है।
     भाजपा और आरएसएस की गलती यह है कि वह राष्ट्र को वर्चस्व क्षेत्र की परिभाषा तक ही समझती आई हैं। जबकि राष्ट्रवाद के सिद्धांतों से यह स्पष्ट है कि वर्चस्व क्षेत्र तो मात्र बुनियादी आवश्यकता ही है। किसी वर्चस्व क्षेत्र में से मात्र एक देश बनता है। राष्ट्र बनाने के लिए नागरिक बनाने पड़ते है, सभ्य और मानववादी।
    सरल उपमान में समझे तो देश और राष्ट्र में वही अंतर है जो एक मकान और एक घर में होता है। मकान ईंट-चुना से बनता है किसी जमीन पर, मगर मकान से घर बनाने के लिए जज़्बात, यानि भावनाएं और संवेदनशीलता लगती है। सैनिक का बलिदान उस मकान और भूमि की रक्षा करता है,मगर संविधान और प्रशासन का न्याय-नियम मकान में भावनाओं और संवेदनशीलता को संरक्षित करके उस मकान में घर बसाता है।
    देश की रक्षा बाहरी आक्रमणों से करी जाती है, जबकि राष्ट्र का निर्माण अंदर से निरंतर करना होता है।सैनिक का कर्तव्य है अपना बलिदान देकर देश की रक्षा करना। राष्ट्र निर्माण का कार्य तो शासकीय संस्थाओं और न्यायपालिकाओं को करना होता है।
    यदि राष्ट्र निर्माण का कार्य बंधित बना रहेगा, तब फिर "देश" को उसके व्यापारी उसके प्राकृतिक और मानवीय संसाधनों का खपतवाद, उपभोग, शोषण और भक्षण करते रहेंगे, ठीक वैसे जैसे कोई पशु अपने वर्चस्व क्षेत्र का भोग करता है। "राष्ट्र" समृद्धि लाते है, मानवजीवन , पशु ,वन्यजीव, वनस्पति और वन के बीच संतुलन रखते है क्योंकि आपसी आवश्यकताओं में यही सब चाहिए होता है। "देश" में शासन व्यापारिक मानसिकता, लाभ-और-हानि से चलता है, जबकि "राष्ट्र" में शासन संविधान और न्याय से चलता है।
    आप भाजपा और आरएसएस को निरंतर सैन्यवादि व्यवहार को देखेंगे। वह सैनिकी दुःख में बड़ चढ़ कर शरीक होते हैं। मगर नागरिकीय हिंसा, दंगे फसाद , प्रशासन के दुष्ट आचरणों के प्रति उदासीन रवैया रखते हैं। मूलतः यह लोग देशवाद को प्रसारित कर रहे हैं, और उसे ही राष्ट्रवाद समझने के भ्रम से पीड़ित हैं।
   

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